प्रकृति के नियम अनुसार पुरातन काल से ही परिवर्तन की लहरें चल रही हैं। समाज एवं प्रकृति में परिवर्तन एक शास्वत प्रक्रिया है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा समाज होगा जो इस परिवर्तन से अछूता होगा। जहां तक भारत का प्रश्न है, यह सर्विदित है कि उसके राजनीतिक इतिहास के आरंभ से बहुत पहले ही सामाजिक इतिहास का आरंभ हो चुका था. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में सामाजिक व्यवस्था के उदय का इतिहास कम-से-कम चार हजार साल पुराना है। इसकी आवश्यकता तब ही अनुभव होती है जब प्रचलित विधियों को अपर्याप्त मानते हुए उनमें सुधार की आवश्यकता अनुभव की जाती है। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तब के नीति निर्धारकों ने भारत के लिए मिश्रित अर्थ व्यवस्था को चुना जिसके अनुसार पूंजीवादी और समाजवादी दोनो विचारधाराओं का लाभ उठाने के उद्देश्य से मिश्रित आर्थिक एवं उद्योग नीति को अपनाया गया। निर्गुट विदेश नीति का भारत को लाभ हो एवं अर्थ व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए उद्योगों की तीन श्रेणियां बनाई गईं। प्रथम श्रेणी के उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित रखा गया। दूसरी श्रेणी में कुछ शर्तों सहित निजी क्षेत्र की भागीदारी रखी गई एवं तीसरी श्रेणी निजी क्षेत्र के उद्योगों के लिए थी। यह इसलिए किया गया क्योंकि उस समय की दोनो बड़ी महाशक्तियां भारत को अपने-अपने गुट में शामिल करने के लिए प्रयत्शील थीं। किंतु भारतवर्ष के नीति निर्धारकों ने किसी भी गुट में न शामिल होने की ठानी एवं विश्व स्तर पर प्रयास करके साम्राज्यवादी ताकतों के चंगुल से नवस्वतंत्र देशों के सहयोग से निर्गुट लहर आरंभ की। वर्षों तक भारत ने इस लहर का नेतृत्व किया। किंतु हमेशा कमजोर ने ताकतवर के हाथों अन्याय सहा है। समय-दर-समय बार-बार उनकी न्याय एवं समानता की दलीलें नकारी जाती रही हैं क्योंकि शासकों के लिए जिस की लाठी उसकी भैंस का सिद्धांत भी उपयोगी साबित होता रहा है। कुछ नवस्वतंत्र राष्ट्रों का झुकाव अपनी समस्याओं के परिणाम स्वरुप किसी न किसी वर्ग में शामिल होने के लिए स्वत: हो गया क्योंकि एक गरीब देश में इंजीनियर तैयार करने पर जनता के 1,25000/- रुपए व्यय होते हैं और डॉकटर पैदा करने पर तो इंजीनियर से भी 25 प्रतिशत अधिक व्यय होता है(आंकड़ा पुराना)। यदि शासकों के पास उनकी योग्यता एवं विशेषता अनुसार मेल खाता कार्य देने की क्षमता नहीं होगी तो प्रत्येक राष्ट्र संसाधनो एवं मानव ऊर्जा पर पड़ने वाले प्रभाव का भलीभांति अंदाज लगा सकता हैं। निर्गुट लहर के केयरो सम्मेलन के दौरान नवस्वतंत्र अफरीकी देशों का गुच्छा का गुच्छा ही निर्गुट लहर में शामिल हो गया किंतु वे विश्व महाशक्तियों के दबाव का सामना करने में अक्षम रहे जिससे इस लहर पर दूरगामी प्रभाव पड़े।
स्वतंत्रता उपरांत भारत को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं अन्य विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ा। भारतीय नेतृत्व एवं जनता के मेहनत एवं हिम्मत का दामन नहीं छोड़ने के फलस्वरुप भारत की गणना विकसित एवं विकासशील देशों के तुल्य ही की जाती है। एक वह भी समय था जब भारतवर्ष को सोने की चिड़िया के नाम से पुकारा जाता था। इसका अंदाज इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जिस तरह संपूर्ण विश्व की जनता का ध्यान समस्त पश्चिमी देशों के विकास के फलस्वरुप उनकी ओर आकर्षित है ठीक उसी प्रकार उन दिनो संपूर्ण विश्व के देशों का आकर्षण भारत की ओर था। आज के घटनाक्रमों पर भी अगर नजर दौड़ाई जाए तो हम पाएंगे कि अब भी विश्व के देशों की तुलना में भारत का स्थान कितना महत्वपूर्ण है। आरंभ काल से ही भारतीय संस्कृति, राजनीति, धार्मिक विश्वास, शासनतंत्र, शिक्षा नीति, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था संपूर्ण विश्व को प्रभावित करती रही है। विश्व की संपूर्ण जातियों एवं देशों का ध्यान भारत की ओर था। जब भी भारत में उथल-पुथल होती थी तो वे अपने संसाधनों को उन्नत कर लेते थे और अराजकता का लाभ उठाकर भारतवर्ष को अपने अधीन करने और लूटपाट के इरादे से भारत पर आक्रमण कर देते थे। ऐसे भी कुछ उदाहरण हैं जब भारतीयों में से ही किसी एक ने विदेशियों को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। भारत की संपन्नता को भांपते हुए सन 1600 ई. में अंग्रेजों द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई। इस कंपनी की स्थापना के समय अंग्रेजों के पास केवल 263 अधिकारी और कर्मचारी थे। कंपनी का मुख्य उद्देश्य भारतीय वस्त्र उद्योग एवं मसालों के लाभ यूरोप तक पहुंचाने का था। धीरे-धीरे यह कंपनी भारत की शासक बन गई एवं 1857 में भारत की प्रथम स्वतंत्रता प्राप्ति की क्रांति की असफलता के बाद भारत का शासन सीधे महारानी विकटोरिया के नियंत्रण में चला गया। भारतीयों पर शासन करने के लिए अंग्रेजों ने अपनी कूटनीतिक चालों और शिक्षा नीति का सहारा लिया। भारतीयों के लिए शिक्षा नीति निर्धारित करने के लिए अंग्रेजों में दो विचारधाराएं थीं। एक विचारधारा के मुखी लॉर्ड मैकाले थे। जिनका मत था कि एक ऐसा वर्ग तैयार किया जाए जिसका रक्त तो भारतीय हो किंतु उनके स्वाद, विचार, सूझबूझ एवं आत्मा की आवाज अंग्रेजी हो। दूसरी विचारधारा वाले भी अंग्रेजी का प्रचार भारत में करना चाहते थे किंतु वे संस्कृत एवं अरबी साहित्य को प्रोत्साहित करने के समर्थक थे। यह विचारक शास्त्रीय एवं भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे। इस विवाद को 1854 ई. में लॉर्ड मैकाले के पक्ष में सुलझा लिया गया और शिक्षा नीति को लागू कर दिया गया जिसके तीन प्रमुख उद्देश्य थे :-
1. पश्चिमी संस्कृति का प्रचार ।
2. प्रशासन को चलाने के लिए लोक सेवक तैयार करना।
3. ब्रिटिश राज की सेवा करने के लिए भारतीय लोगों को प्रशिक्षित करना।
स्वतंत्रता प्रप्ति उपरांत अनेक समस्याएं जो संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के सामने आईं उनमें प्रमुख एक यह भी थी कि भारत की राजभाषा कौन सी हो? बहुत सोच विचार के बाद हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित कर दिया गया। हिंदी के राजभाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो जाने पर कुछ भूभागों के व्यक्तियों को लगा कि हिंदी के राजभाषा के पद पर आसीन हो जाने के फलस्वरुप उनकी प्रगति रुक सकती है। इसलिए उन्होंने इसका विरोध करना आरंभ कर दिया एवं इसके विरुद्ध जन भावनाएं तैयार करने का प्रयास किया। किंतु सिद्धांत: उन व्यक्तियों की यह भावना आज लगभग समाप्त हो चुकी है। यह सर्वमान्य सत्य है कि समय बलवान है तथा वह व्यक्तियों की मेलखाती भावनाएं स्वयं ही तैयार कर लेता है। इसलिए सार्वजनिक, निजी एवं औद्योगिक संस्थाओं के प्रयासों के परिणामस्वरुप अब हिंदी का उन क्षेत्रों में उतना विरोध नहीं होता जितना पहले होता था। दूरदर्शन, सिनेमा और क्रिकेट जैसे सार्वजनिक. निजी एवं स्वैच्छिक उद्योगों ने संपूर्ण भारतवर्ष में हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है।
एक वास्तविकता यह भी है कि भारतीय समाज में अंग्रेजी की स्थिति चाहे जो भी हो, कारोबारी चाहे देशी हो या विदेशी भलीभांति जानता है कि उसका उत्पाद तभी बिकेगा जब स्थानीय लोगों की भाषा में उनके पास पहुंचेगा। इसलिए विज्ञापन जगत में अंग्रेजी की हिस्सेदारी केवल 13% ही है।
सूचना प्रौद्योगिकी ने जब संपूर्ण विश्व को प्रभावित करना शुरु किया तो परिवर्तन लहर अंतर्गत इसका प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ना अवश्यंभावी था। 1990 का दशक भारतीय नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आया। इसी दशक में वर्ष 1991 में भारत की नई उद्योग नीति की घोषणा की गई। अर्थ व्यव्यस्था में बदलाव लाते हुए आर्थिक उदारीकरण की नीति की घोषणा की गई और भारतीय बाजार को एकदम एक नए ढंग से विश्व बाजार के साथ जोड़ दिया गया। भारत ने सूचना प्रौद्योगिकी के आरंभ हुए इस युग में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है एवं विश्व को दिखा दिया है कि भारत विकास की होड़ में किसी से कम नहीं है। आज सामान्य से सामान्य भारतीय से पूछा जाए कि कंपयूटर क्या है तो उत्तर होगा इलैक्ट्रानिक उपकरण है। जो..........
कंप्यूटर में अधिकतर कार्य केवल अंग्रेजी में ही हो रहा है जिससे संपूर्ण विश्व के गैर अंग्रेजी भाषी अविकसित. विकासशील और विकसित देश अपनी-अपनी भाषाओं का भविष्य सुरक्षित करने के लिए चिंतित हैं। सन 1949 के आसपास एक प्रसिद्ध गणितज्ञ वारेन वीवर यह महसूस करने लगे थे कि कंप्यूटर की तार्किक प्रणाली का उपयोग अंकीय गणनाओं के अलावा भाषा संबंधी संश्लेषण, विश्लेषण और संसाधनों के विकास के लिए भी किया जा सकता है। गैर अंकीय अनुप्रयोगों में कदाचित मशीनी अनुवाद ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें कंप्यूटर विशेषज्ञों ने सर्वप्रथम कार्य आरंभ किया। निजी क्षेत्र किसी उत्पाद को अपनाने से पूर्व उत्पाद की बाजार में संभावना की परख करता है। निजी क्षेत्र के कंप्यूटर से संबंधित हिंदी साफट्वेयर के क्षेत्र में कम उत्साही होने के फलस्वरुप कंप्यूटर के माध्यम से अनुवाद कार्य करने में कठिनाई महसूस की जाती रही है। कंप्यूटर युग के आरंभ होने से हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करने में उत्पन्न होने वाली कठिनाईयों के प्रकार बदल गए हैं। बावजूद इसके उम्मीद का दामन छोड़ने की आवश्यकता नहीं क्योंकि भारतीय यह जानते हैं कि सन 1966ई. में हरित क्रांति की नीव रखी गई थी और अगले ही वर्ष गेहूं के उत्पादन में 50 लाख टन की वृद्धि हो गई थी। तब से आज तक हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्म निर्भर हो गए। दुग्ध क्रांति के फलस्वरुप भारत विश्व के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देशों में शामिल हुआ। विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदमों पर तो प्रत्येक भारतीय को गर्व है। इसी तरह अन्य उत्पादों एवं आवश्यकताओं की आपूर्ति के विषयों में भारत की स्थिति उल्लेखनीय है।
किंतु वास्तव में आजादी के बाद सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जिन महत्वपूर्ण परिवर्तनो की आवश्यकती थी, वह सिर्फ सत्ता और राजनीति द्वारा ही संभव नहीं था, बल्कि उसके लिए इनके बाहर जाकर भी कुछ होना था, जो दुर्भाग्य से नहीं हो सका। साप्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रवाद यहां तक कि सामाजिक और आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई समझौतावादी हो गई। पारिवारिक विघटन, पुराने रोजगारों के ह्रास और नए रोजगारों की तलाश में विश्वसनीयता और विस्थापन की समस्या एक बहुत बढ़ी समस्या बन गई है।
यहां हमें अपना मूल्यांकन उस स्तर पर करना है कि विश्व के अन्य विकसित और विकासशील देशों की तुलना में हम कहां हैं? लगभग हमारे देश के साथ ही औपनिवेषक गुलामी से मुक्त होकर चीन तथा अन्य पूर्वी एशियाई देशों कोरिया, ताईवान, सिंगापुर जैसे देशों की तुलना में भारत की तस्वीर बेहद पिछड़ी नजर आती है। भारत में एक ओर केरल जैसे प्रदेश हैं जिन्होंने बच्चों की मृत्यु दर, शिशु जन्म दर, निरक्षरता निवारण, प्रारंभिक शिक्षा जैसे सभी सामाजिक विकास अंकों की दृष्टि से अभूतपूर्व प्रगति की है। वहीं दूसरी ओर बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य हैं जोकि विरोधाभास के परिचायक हैं। उदारीकरण, बाजारवाद और वैश्वीकरण से रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, महंगाई के घट बढ़ और निर्धारण के मायने भी बदल गए हैं। इसलिए नीति निर्धारकों से अपेक्षाएं केवल इतनी ही हैं कि वांछित सावधानी बरतते हुए विश्व में हो रहे परिवर्तनो का सामना किया जाए और मिथक बातों से बचते हुए विश्व स्तर पर भारत की गरिमा में बढ़ौतरी लाने के लिए अपने योगदान सहित जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चला जाए।