भारत के इतिहास में गाय का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। अलग-अलग कालों में इसने अलग-अलग भूमिका निभाई है। सामान्यत: मानव जाति के उदयकाल तथा श्री कृष्ण जी के अवतार काल से विशेषत: गाय को भारत में बहुत श्रद्धा से पूजा जाता रहा है। भागवत में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि समुद्र-मंथन के समय क्षीरसागर से पांच लोकों की मातृ-स्वरुपा कल्याणकारी जो पाँच गौएं उत्पन्न हुईं, उनके नाम थे नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला। ये सभी गौएं समस्त लोकों के कल्याण तथा देवताओं को हृविष्य के द्वारा परितृप्त करने के लिए आविर्भूत हुई थीं। फिर देवताओं ने इन्हें महर्षि जमदग्नि, भरद्वाज, वसिष्ठ, असित और गौतम मुनि को दे दिया जिन्होंने इसे प्रसन्नता से ले लिया। सभी गौएं संपूर्ण कामनाओं को देनेवाली कामधेनु गाय कहीं गई हैं। गौओं से उत्तपन्न दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र यह पाँच जिन्हें पंचगव्य भी कहते हैं, मनुष्यों को पवित्र करने वाली हैं तथा पापों को नाश करने वाली हैं। शकुन-अपशकुन के विषय में भी यह विचार बलवति है कि अगर किसी कार्य पर जाते समय गाय के दर्शन हो जाएं तो वह कार्य सिद्ध हो जाता है। भारत का कोई भी समुदाय जो भारत में ही पैदा हुआ है गाय की तरफ अपनी श्रद्धा और प्रेम से भरपूर भक्ति से गाय की पूजा करता है।
गाय की भी अनेक नस्लें होती हैं। जैसे देशी गाय, विलायती गाय और कपिला गाय इत्यादि। देशी गाय देश रुप है। टीका लगाकर नस्ल बदल जाने पर उसे विलायती गाय कहा जाता है। कपिला गाय बहुत सुंदर होती है। कुछ स्थानों पर इसके बड़े-बड़े सींग होते हैं। कुछ गाएं तो दूध देती हैं परंतु कइयों की सेवा मात्र ही होती है। कपिला गाय को ही ज्यादातर श्रीकृष्ण जी की लीलाओं के साथ जोड़ा जाता है।
गाय ने श्रीकृष्ण जी की लीलाओं में भाग लिया था, तभी से गाय की पूजा की जाती है। गौएं श्रीकृष्ण जी को बहुत चाहती थीं और मानव जीव की ही भांति उनसे व्यवहार करती थीं। उनके न मिलने पर मानव की ही भांति उदास हो जाती थीं। जब श्रीकृष्ण जी ब्रज छोड़कर मथुरा चले गए तो उनकी याद में ब्रजवासी तो क्या गौएं भी उदास हो गईं और खाना-पीना तक छोड़ दिया। जहां श्रीकृष्ण जी ने लीलाएं की थीं उस जगह को गौशाला के रुप में जाना जाने लगा।
वेदों में भी गौमहिमा का बखान किया गया है। आज जिस प्रदेश को ब्रज कहा जाता है, ऋग्वेद में ब्रज शब्द का प्रयोग ‘गोष्ट’ अथवा गौशाला के रुप में हुआ है। महाभारत में इसका प्रयोग देश अर्थ में न होकर बड़े-बड़े सींगों वाली गाय के अर्थ में होता है। बाद में यह प्रदेश विशेष का वाचक बना।
गाय की महत्वपूर्णता इस बात से भी बढ़ जाती है कि भारतीय संस्कृति में गोदान करने की भी परंपरा है। मुंशी प्रेमचंद जी ने भी अपने महत्वपूर्ण उपन्यास गोदान में मानव जीवन के अंतकाल में गाय का दान करने की परंपरा को दर्शाया है। श्री सूरदास जी ने भी जोकि भक्ति काल के प्रतिनिधि कवि हैं और कृष्ण काव्य के तो प्रमुख हैं, अपने सूरसागर में गोदान की परंपरा को दर्शाया है। उनके अनुसार श्रीकृष्ण जी के जीवनकाल में ब्रज प्रदेश के विभिन्न उत्सवों और संस्कारों पर ब्राह्मणो को गाय का दान दिया जाता था। पुराने समय में गाय का सिक्कों के रुप में भी प्रयोग होता था। इसके उदाहरण के लिए कछुआ धर्म में कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं:-
पुराने से पुराने आर्यों को आर्यावर्त बनाना चाहते थे। आगे यह चल दिए पीछे वे चले आए पर ईरान के अंगूरों और गुलों का चस्का पड़ा हुआ था, लेने जाते तो वे पुराने गंधर्व मारने को दौड़ते हैं। हां उनमें से कोई उस समय का चिलकौला नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाते थे। उस समय का सिक्का गौएं थीं। मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी, जैसे कि तरकारियों का भाव करने में कुंजड़ियों की हुआ करती है। यह कहते कि गाय की एक कला में सोम बेच दो। वह कहता, वाह ! सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर यह गाय के गुण बखानते। इस गाय से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए पहली क्रांति सन 1857 ई. में हुई थी। इस क्रांति में गाय ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। उस समय की क्रांति का नेतृत्व कर रहे नेताओं ने यह खबर फैलाई कि सेना में जो कारतूस आजकल प्रयोग में लाए जा रहे हैं, उन्हें गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई है। इन कारतूसों को चलाने से पहले मुंह से खोलना पड़ता था। गाय हिंदुओं के लिए पूजनीय थी इसलिए हिंदु सैनिकों ने इन कारतूसों को चलाने से मना कर दिया और क्रांति में शामिल हो गए। मुस्लमान सैनिकों ने भी सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को चलाने से इनकार कर दिया और वे भी क्रांति में शामिल हो गए।
देशी और विलायती कुल पशुओं में से 80 प्रतिशत छोटे कद, कम वजन की तथा अपरिलक्षित एवं अकूती गौएं हैं। शेष के आकार-प्रकार सुलक्षित तथा भलिभांति कूते गए हैं। इनमें अधिकांश देशी नस्लों की हैं और नस्लों से संकर से पैदा की हुई हैं, यद्यपि बहुत थोड़ी मात्रा में कुछ गौएं होलस्टाइन, फ्रिसियन तथा जर्सी जैसी आयातित विदेशी नस्लों से संकरित भी हैं। देशी नस्लों की गायों में प्रजनन क्षमता की कोई कमी नहीं है। संकर प्रजनन प्रक्रिया की सहायता से, इन्हीं गायों ने उत्तरी अमेरिका में ब्राह्मण, सांता गर्तुडीस, लातीन अमेरिका में ब्राह्मण, नेल्लोर तथा अफ्रीका के अनेक क्षेत्रों में साहीवाल अंतरराष्ट्रीय नस्लें पैदा की हैं।
देशी गायों की झेबु गायों की कार्यक्षमता तथा उनके सुपरिलक्षित लक्षण ब्रिटिश काल में मुखर हुए, जब सेना के कुछ अधिकारियों ने चंद नागरिकों के सहयोग से इस संकर कार्य को संपन्न किया। इन अधिकारियों को पशु प्रजनन में महारत हासिल थी। स्थानीय रियासतों के राजाओं ने फिर इस कार्य को आगे बढ़ाया। यह पशु प्रजनन खासतौर से सेना की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया गया और निर्धारित लक्ष्यों की निम्नानुरुप पूर्ति भी करना था। परिवहन के लिए सुदृढ़ बैलों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए हरियाणा - करनाल तथा रोहतक की हरीना तथा आंध्र प्रदेश से ओंगोल नस्लों को चुना गया। तोपखाना परिवहन को वेगवान रखने के लिए महाराष्ट्र की किनारी नस्ल को समर्थ मानकर उसे लिया गया। सुदृढ़ बैलों की आपूर्ति के अलावा बड़ी-बड़ी सैनिक छावनिओं में दूध की आवश्यकता को पूरा करने के लिए सिंध(पाकिस्तान) थरपारकर गाय को, कराची के पास पाई जाने वाली लाल सिंधी गाय तथा गुजरात की कांकी गाय की नस्लों को चुना गया। दूध उत्पादन की दृष्टि से गुजरात की गिर गाय बहुत उपयुक्त पाई गई। अखिल भारतीय नस्ल साहीवाल जो नई दिल्ली के आसपास पाई जाती है, दूध उत्पादन की दृष्टि से इस गाय का चुनाव किया गया।
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के मार्गदर्शन में विदेशी सांडों के संकर से दूध उत्पादन और बैलों की क्षमता बढ़ाने की प्रक्रिया तथा प्रयास जारी हैं। किंतु विदेशी संकर से पैदा सांड भारत के गर्म वातावरण में अपने आप को फिट नहीं कर पाते। सन् 1959 में फोर्ट फाउंडेशन ने भारत सरकार के अनुरोध पर एक रिपोर्ट तैयार की जिसका शीर्षक था- भारत का अन्न संकट तथा उससे उबरने के उपाय। रिपोर्ट बृहत थी तथा पूरे विवरण के साथ उसमें कृषि तथा पशु-संवर्द्धन विशेषज्ञों की राय को दर्ज किया गया था। ये विशेषज्ञ न केवल भारत के थे, अपितु विदेशी भी थे। भारत में उस समय जनसंख्या विस्फोट हो रहा था। अन्न की मांग प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी और इस सब के परिणामस्वरुप लगभग अठारह करोड़ पशुओं में से जो एक तिहाई निरुपयोगी हो गए थे, उनके कत्ल करने पर लगी पाबंदी हटाए जाने का दबाव बढ़ रहा था। इस दबाव के कारण भारत उस समय अनर्थ के कगार पर पहुंच गया था। अत: फोर्ड फाउंडेशन ने सिफारिश की कि पशु हत्या पर लगा प्रतिबंध या तो हटा लिया जाए या उसे अविलंब शिथिल किया जाए ताकि भारतीय जनता को आसन्न अकाल से बचाया जा सके। किंतु गोवंश ने कमहाल रहकर और रुखा सूखा जैसा भी मिले चारा खाकर हरित क्रांति और सफेद क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान देकर उक्त फाउंडेशन की रिपोर्ट को गलत साबित कर दिया।
गाय की महत्वपूर्णता के अतिरिक्त इसके बहुत से गुण भी हैं। भारत में पशुपालन दूध उत्पादन और कृषि क्षेत्र में उपयोग के लिए किया जाता है। भारत मांस का महत्वपूर्ण उत्पादक भी नहीं है। गाय दूध का महत्वपूर्ण स्रोत है। सी.जी.आई.ए.आर की संस्थाओं द्वारा भी दूर्लक्षित एक हकीकत उजागर होती है कि भूमि की सफल जोत तथा पशु-संवर्द्धन के बीच परस्पर तालमेल कितना बड़ा काम कर जाता है। जिन किसानो के पास दूध की बिक्री का पैसा हररोज आता था। वे उस पैसे को खेती के नए तौर-तरीके के वास्ते आवश्यक साज-समान खरीदने में लगा देते थे। कृषि उत्पादन के लिए अब प्रयोग में नहीं लाए गए संसाधनों का प्रबंधन तथा गोधन को योजना पूर्वक बढ़ाने के बीच कितना घनिष्ठ संबंध है? विश्व में गाय के दूध के सबसे बड़े उत्पादक देश यू.एस.ए, रुस तथा जर्मनी हैं। भारत, सुडान तथा चीन भैंस के दूध के अग्रणी उत्पादक हैं। भारत में डेयरी उद्योग का विकास 1960 से पहले नहीं के बराबर था। इसका कारण था कि भारतीय मवेशियों का उच्च कोटि का न होना तथा इनको पालने के पीछे एक महत्वपूर्ण उद्देश्य इनका कृषि क्षेत्र में शक्ति के साधन के रुप में उपयोग। गाय और भैंसें भारत के महत्वपूर्ण संसाधन हैं। संसार में कुल पशु संख्या का महत्वपूर्ण भाग भारत में पाया जाता है। वर्ष 1982 के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में गायों की 18.2 करोड़ संख्या उनकी विश्व जनसंख्या का 15 प्रतिशत है। पशु गोबर या अपशिष्ट पदार्थों के रुप में खाद भी प्रदान करते हैं। परंतु दुर्भाग्य से अधिकांश गोबर इंधन के रुप में उपयोग कर लिया जाता है। किंतु सन 1969 में भारत में ओंधेधाल ने विविध धारणाओं का जो तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया था, उसमें यह सिद्ध कर दिया था कि भारत में प्रचल्लित पशु-संवर्द्धन प्रणाली से प्राप्त ऊर्जा सत्रह प्रतिशत होती है, जबकि अमेरिका में मांस के लिए पाले जाने वाले पशुओं से वह केवल चार प्रतिशत होती है। भार ढोने वाले पशुओं के रुप में बैलों का महत्व अधिक है तथा देश में अधिकांश गायों को उनके बछड़ों के लिए ही पाला जाता है। ठांठ-बैलों को खेतों तथा गाड़ियां हांकने के काम में प्रयुक्त करने से परिवहन तथा भार परिवहन प्रणाली को लाभ पहुंचता है।
भारत में मवेशियों की नस्ल सुधारने के लिए सूरतगढ़ राजस्थान, धामरोड़ गुजरात, अलमाडी तमिलनाडू, चिपलीमा-सुनाबेदा ओड़िशा, अंदेशनगर उत्तर प्रदेश तथा हैस्सरघट्टा कर्नाटक स्थित प्रमुख स्थान हैं। बछड़ा पैदा करने के उपरांत छ: सप्ताह तक गाय से दूध उत्पादन बढ़ता रहता है। परंतु इसके बाद उसमें कमी आती है। गाय से 8.8 महीने के लिए दूध का उत्पादन होता है।
वैज्ञानिकों ने गौवंश का पहला आनुवांशिक ब्लू प्रिंट तैयार करने में भी सफलता प्राप्त कर ली है। उन्होंने पता लगाया है कि घरेलू पशुओं के जीन्स में 22 हजार जीन्स होते हैं और इनमें से 80 प्रतिशत मानव जीन्स से मिलते जुलते हैं। इससे बेहतर दूध के उत्पादन और मानव स्वास्थ्य को लेकर नई उम्मीद मिलने की उम्मीद है। गौवंश का जेनेटिक ब्लू प्रिंट तैयार करने में 25 देशों के 300 से ज्यादा वैज्ञानिकों को छह साल से अधिक लगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि जेनेटिक मैपिंग से यह जानने में मदद मिलेगी कि इन पशुओं का विकास कैसे हुआ, उनमें चार कक्षों वाला पेट क्यों पाया जाता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्यों उन्हें कैंसर नहीं होता। शोधकर्ताओं ने पाया है कि चूहों की अपेक्षा मवेशियों के जीन्स और मानव के जीन्स में काफी समानता होती है। चीन ने दुनिया की पहली जेनेटिकली मॉडीफाइड गाय तैयार की है। इनर मंगोलिया यूनिवर्सिटी के बॉयोलॉजिकल टेकनॉलोजी की प्रयोगशाला के प्रमुख ली गुआंगपेंग ने बताया कि यह गाय इंसानी स्वास्थ्य के लिए उपयोगी ओमेगा-3 एसिड से भरपूर दूध देती है। गुआंगपेंग ने बताया कि क्लोनिंग से तैयार दो भ्रूण को जेनेटिकली मॉडीफाइड गायों में प्रत्यारोपण के जरिए 23 जून, 2009 को जीएम गाय का जन्म हुआ था। गाय का दूध बच्चों के पीने के लिए बहुत गुणकारी समझा जाता है। और भी बहुत से कार्य जिन्हें पवित्र समझा जाता है, वहां भी गाय के दूध को प्राथमिकता दी जाती है। गाय का दूध बहुत से रोगों का नाश करता है। गाय के शौच से भी बहुत सी बीमारियों का अंत होता है। गाय के गोबर के और भी उपयोग हैं। यह घर की लिपाई-पुताई के काम भी आता है। गोबर से पुती जमीन सूखने पर बहुत साफ रहती है जो बुहारने पर एकदम चमक जाती है।
गोबर गैस तथा गोबर से खाद का उत्पादन, उपयोग और गाय के गोबर से चलेंगे डाटा सैंटर। कंप्यूटर कंपनी एचपी ऐसे शोध पर काम कर रही है जिसके सफल होने पर संभवत: गाय के गोबर से डाटा सैंटर भी चलाना संभव हो जाएगा, एचपी शोध के नतीजे बताते हैं कि गाय के गोबर में एक डाटा सैंटर को चलाने की क्षमता होती है, फिलहाल इसका इस्तेमाल पहले से रसोई गैस, खाद और बॉयोगैस के रुप में किया जाता रहा है। डाटा सैंटर एक सेवा केंद्र होता है जिसमें कंप्यूटर सिस्टम और अन्य संबद्ध उपकरण लगे होते हैं, टिकाऊ ऊर्जा पर एएसएमई अंतररराष्ट्रीय सम्मेलन में एचपी लैब द्वारा पेश शोध पत्र दर्शाता है कि गाय के गोबर से उपयुक्त मात्रा में बिजली पैदा करना संभव है जिसकी आपूर्ति से कोई डाटा सैंटर भी चल सकता है, एचपी लैब, एचपी का केंद्रीय शोध प्रकोष्ठ है, शोध में कहा गया है कि 10000 गायों वाली कोई गौशाला एक मैगावाट की जरुरत वाले डाटा सैंटर(मध्यम आकार के कालसैंटर तुल्य) की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। अधिशेष बिजली का उपयोग अन्य जरुरतों को पूरा करने के लिए किया जा सकता है। एचपी ने कहा कि दस हजार गायों वाला एक डेयरीफार्म प्रतिवर्ष करीब दो लाख टन जैविक खाद उत्पन्न करता है, इसमें से ऐनाएरोबिक पाचन के जरिए उत्पन्न होने वाले मिथेन में से 70 फीसदी ऊर्जा का उपयोग डाटा सैंटर को बिजली और उसे ठंडा रखने के लिए किया जा सकता है।
मेरठ जिले में देवी देवताओं की मूर्तियां बनाने के काम से रोजी रोटी कमाने वाले सैनी समुदाय के 100 से अधिक परिवार गोसंवर्धन सेवा समिति की सहायता से गाय के गोबर, गोमूत्र, दूध, दही और घी पंचगव्य के प्रयोग से वर्ष 2009 की दीवाली के त्यौहार से अपने हुनर का इस्तेमाल करके लक्ष्मी और गणेश की मूर्तियां बना रहे हैं। प्लास्टर ऑफ पेरिस से देवी देवताओं की मूर्तियां बनाने का धंधा छोड़ चुके यह परिवार दोगुणा मुनाफा कमा रहे हैं। 50 प्रतिशत गोबर, थोड़ा सा घी, गोमूत्र, दही और दूध के मिश्रण से तैयार होकर बाजार में बिकने के लिए आने वाली यह मूर्तियां वजन में हल्की और पर्यावरण के अनुकूल हैं। राष्ट्रीय राजधानी के कुछ शॉपिंग मॉल भी इन मूर्तियों को बिक्री के लिए रखते हैं। गायों को हमेशा उपयोगी बनाए रखने के लिए ही गोबर से महंगे उत्पाद बनाने की बात सोची गई है। मूर्तियां बनाने के लिए सूखे गोबर को पीसकर उसमें दूसरे पदार्थ मिलाए जाते हैं। यह परियोजना गोरक्षा अभियान का एक हिस्सा है।
गाय जीवन रक्षक दवाईयां देती है । प्राकृतिक आपदा, अनियमित मानसून, सूखे से दुखी होकर केवल पूजा अर्चना न की जाए। प्रकृति को प्राकृतिक रुप से संरक्षण प्रदान करने वाले प्राणियों की भी रक्षा की जाए। पशु जलाशय सुरक्षित रहेंगे तो पैकेज, कर्ज भी कारगर साबित होंगे। चारागाहों पर बाहुबलिओं का कब्जा रोका जाए। राजनीतिज्ञ तथा कार्पोरेट शामलाट जमीनों से स्वेच्छा से कब्जा छोड़ दें। विकासवाद के नाम पर सरकारीतंत्र की ओर से चारागाहों पर कब्जा न जमाया जाए। गाय़ अपनी प्रकृति अनुरुप चारागाहों में घास चरकर गोबर करेगी जिससे धरती की उर्वरकक्षमता बढ़ेगी। सरकार की ओर से शिविर लगाकर भारतीयों को गाय के दूध की उपयोगिता बतानी चाहिए ताकि गाय का दूध पीकर भारतीय बच्चों का स्वास्थ्य तथा बुद्धि दोनो ही अच्छे रहें। रासायनिक खादों के मुकाबले गोबर से तैयार खाद से किसानो को अधिक सब्सिडी देनी चाहिए। अगर गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना है तो पंजाब के पूर्व शासक महाराजा रंजीत सिंह की ही तरह प्रभावितों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था भी की जानी चाहिए। किसानों के लिए गाय को खिलाने के लिए चारे की सुलभ व्यवस्था हो तथा जो किसान बैलों से खेती करना चाहते हैं उन्हें विशेष रियायतें दी जाएं। गाय अगर आमखास तथा किसान के लिए घाटे का सौदा रहेगी तो उसकी रक्षा कर पाना आसान काम नहीं होगा। कत्लखाने खोलने के स्थान पर अगर गाँवो में ही पशुपालन तथा खेती उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए तो गाँवों में ही ज्यादा से ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। जिससे विश्व बैंक की ओर से दी जाने वाली बिना वजह सलाहों से भी बचा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि विश्व बैंक ने जिसके ऊपर पश्चिमी जगत का कब्जा है, ने 1996 में भारत को सलाह दी थी कि वह अपनी आबादी की अच्छी खासी जनसंख्या (लगभग 20 करोड़) शहरों में बसाए। किसान तो शहर में आकर केवल मजदूरी ही कर सकता है। घर बनाने में सक्षम तो वह हो नहीं पाएगा जिससे अवयवस्थित गंदी बस्तियों की संख्या ही शहरों में बढ़ेगी। एक पर्यावरणविद ने गोबर में कुछ रासायण मिलाकर कागज बनाने में सफलता प्राप्त की है। उनका यह भी कहना है कि बड़े पैमाने पर कागज का उत्पादन होने पर गोबर सौ रुपए किलो बिकेगा। देश कागज उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सकेगा और कागज निर्यात भी किया जा सकेगा। हाल ही में (मार्च, 2015) राजस्थान की आठवीं कक्षा की 13 साल की एक स्कूली छात्रा साक्षी ने गोमूत्र से बिजली पैदा करने के लिए सफल प्रयोग किया है तथा वह इसका प्रदर्शन करने के लिए जापान जा रही है। गोमूत्र से फिनाइल की जगह इस्तेमाल के लिए गोनाइल का भी उत्पादन हो रहा है।
गौविज्ञान अनुसंधान केंद्र, नागपुर द्वारा गोमूत्र व नीम की पत्तियां मिलाकर तैयार कीट नियंत्रक रसायन को यूरोपीय देशों और अमेरिका से पेटेंट मिला है। केंद्र में इस रासायण का उपयोग कर पूर्णत: जैविक फसल तैयार की जा रही है। गोमूत्र अर्क से हजारों कैंसर पीड़ितों को राहत मिली है। दमा, त्वचा रोग. पेट के रोग, पीलिया, कामला, लीवर सीरोसिस, लीवर हिपोटाइटस से भी निजात दिलाने के लिए यह औषधि लाभकारी है। अमेरिका की ओर से इसे पेटेंट क्रमांक 7718360 प्राप्त हुआ है।
पुराने समय से हिंदुओं की पूज्नीय गाय का कुछ विदेशी आक्रमणकारियों ने लाभ भी उठाया है। वे जब आक्रमण करते थे तो आगे कुछ गौएं लगा देते थे जिससे इधर से कोई आक्रमण नहीं होता था और विदेशियों को इसका लाभ पहुंचता था।
हिंदुओं की दो धारणाएं हैं- अहिंसा तथा गो हत्या निषिद्ध
यह दोनो अवधारणाएं भारतीय मानस में गहरी पैठ बनाकर बैठी हैं। इन्हीं दो अवधारणाओं ने गांधी जी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यद्यपि हिंदुओं की आधी आबादी ही शाकाहारी कही जा सकती है तथापि हिंदु समाज का इतना बड़ा हिस्सा शाकाहारी है, यह बात विश्व में अनूठी कहलाएगी। महात्मा गांधी के अनुसार हिंदुत्व का केंद्रबिंदु गोरक्षण ही है। गाय भारत में मनुष्य का सर्वोत्तम साथी है। गाय करुणा का काव्य है। भारत माता, गंगा मैया की ही भांति करोड़ों भारतीयों के लिए यह गोमाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत विगत कई चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी और बाद में गाय और बछड़ा रह चुके हैं। मांसाहारी हिंदु भी गोमांस नहीं खाते। फिर भी यह निष्कर्ष निकाल लेना एक भ्रांति ही होगी कि भारत में गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध है। गांधीजी यही लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे।
भारत में पशुहत्या प्रतिबंध की धार्मिक तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। देश में सकल पशु-संवर्द्धन के विषय को भलिभांति समझने से पूर्व उस पृष्ठभूमि को तथा अहिंसा की अवधारना को समझ लेना नितांत आवश्यक है। अन्य धर्मों के विपरीत हिंदुत्व विचार को किसी संस्थापक से नहीं जोड़ा जा सकता। हिंदुत्व में कोई कट्टर सिद्धांत नहीं हैं जो सब पर बंधनकारी हों। न ही गैर हिंदुओं का धर्मांतरण करने का हिंदुत्व कोई प्रयास करता है। हिंदु धर्म को मानने वालों के अनुसार हिंदु धर्म सनातन है, चिरंतन है और समय-समय पर साधु-संतों ने उसे नए रुप में प्रस्तुत किया है।
ईसा पूर्व 3000 से भारत संस्कृति की उन्नत अवस्था में पहुंचा हुआ था। इस महाद्वीप में सड़कों का बहुत अच्छा जाल बिछा हुआ था तथा स्नानगृहों के साथ दो मंजिली इमारतें भी थीं। ग्रामों तथा शहरों की रचना सुंदर थी तथा प्रशासकीय यंत्रणा भी सुसंगठित थी। ईसा पूर्व 1500 से 1200 तक और आगे यूरोप की घुमंतु जनजातियां धीरे-धीरे भारतीय उप महाद्वीप की ओर सरकने लगीं। वे खैबर दर्रे के रास्ते उत्तर पश्चिम की ओर आने लगीं। एतद्देशीयों को या तो उन्होंने परास्त कर दिया या दक्षिण की ओर भगा दिया। आने वाली सदियों में ऐसी घुमंतु जनजातियों के कई आक्रांता और विजेता आए और उत्तरी भारत में फैल गए। चंद छोटे-छोटे गुट पश्चिमी तट से सटे मार्ग से आगे बढ़े और वे दक्षिणी भारत तक पहुंचने में भी सफल हो गए । ये लोग अपने साथ अपने पवित्र ग्रंथों को भी लाए थे। प्राकृतिक धर्म को इन लोगों ने कई कर्मकांडों से जोड़ते हुए धर्म को व्यक्तियों में केंद्रित कर दिया। कई आचार और संहिताएं इन्होंने अधिक विकसित कीं तथा उनमें सुधार करते गए। इन प्रक्रियाओं में धर्माचरण इतना जटिल हो गया कि उसके मार्गदर्शन सिद्धांतों को समझने समझाने के लिए विशेष कुशलता और ज्ञान की आवश्यकता होती थी। इसी प्रक्रिया में ब्राहमण पुरोहित नामक एक जाति पैदा हो गई। इसे आगे चलकर एक आनुवांशिक पुरोहित नामक जाति के रुप में विकसित किया गया और यह जाति एक विशिष्ट जाति बन गई। इसने बहुजन समाज को आध्यात्मिक नेतृत्व के अपने दायरे से बाहर रखा। शायद यहीं से भारत में जाति व्यवस्था आकार लेने लगी तथा भारतीय समाज के सभी संस्कारों में विविध गुणों से भरपूर इस पवित्र जीव का महत्व भी बड़ता चला गया।
गायों की रक्षा तथा सेवा करने के लिए देशभर में पंजीकृत गोरक्षा समितियां और गौशालाएं उपलब्ध हैं। इन समितियों को दान स्वरुप दिया जाने वाला धन आयकर अधिनियम की धारा 80-जी अंतर्गत इस धारा के नियमों और शर्तों अंतर्गत आयकर की परिधि में नहीं आता। समय-समय पर गाय की रक्षा के लिए संस्थाएं भी बनती रही हैं और आज भी विद्यमान हैं। इन संस्थाओं के अस्तित्व में आने का मुख्य कारण यह है कि कुछ दुष्ट आत्माएं, जो गाय दूध नहीं देतीं उसे मारकर उसकी चर्बी तथा चमड़ा बेचती हैं। नाथ संप्रदाय में गौरक्षा से संबंधित उनका एक ग्रंथ गौरक्षा बहुत ही प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ के बारे में इस संप्रदाय के अनुयाइयों में बहुत श्रद्धा है। अब जरुरत इस बात की है कि इतने महत्वपूर्ण और पूजनीय जीव की रक्षा करने की जिम्मेदारी हमारे समाज पर है। कुछ संस्थाएं इसमें सक्रिय भी हैं। किंतु कुछ क्षेत्रों में इस पवित्र जीव की दशा बहुत ही दयनीय है। इसके परिणाम स्वरुप यह असमय काल का ग्रास बन जाता है। पशुधन का सही उपयोग नहीं हो रहा है किंतु कुछ असामाजिक तत्व गलत ढंग से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दूध तैयार करने में व्यस्त हैं। पकड़े जाने पर कानूनी कार्रवाई भी उन पर होती है। कितना अच्छा हो कि यह तत्व इस जानवर की नस्ल सुधार कर व उनकी सेवा करके पुन्य तथा धन दोनों अर्जित करें। दूध देने में असमर्थ पशु भी मनुष्य जाति के आर्थिक तथा स्वास्थ्य के लिए सामग्री उपलब्ध कराने के लिए सक्षम हैं। इसलिए मेरा आम जन से यही अनुरोध है कि इस जीव की पूरी सुरक्षा के लिए यह ध्यान में रखें कि कोई भी दुष्ट आत्मा इस पवित्र जीव को गलत स्थान पर न ले जा सके।