देश के कोने-कोने में स्थित प्राचीन भारत की स्थापत्य कला की अनूठी धरोहर आज भी जीवंत है। ऐसा ही एक स्मारक है पुरी के समुद्रतट से करीब 30 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में एक कोण पर स्थित सूर्य मंदिर, जिसे उसके आकार के कारण विदेशी नाविकों ने ‘ब्लाक पैगोडा‘ का नाम भी दिया था। भुवन भास्कर की भव्यता एवं दिव्य स्वरुप कोणार्क में देखी जा सकती है, जहां सूर्य मंदिर का स्थापत्य अनुपात दोष रहित व ग्रह नक्षत्रों की गति के अनुकूल एक ऐसा आयाम है, जो न केवल आश्चर्य चकित कर देता है, बल्कि मानवीय निष्ठा और गहरे ज्ञान के संगम को मानव के जहन में प्रत्यक्ष कर देता है। भारतीय उपमहाद्वीप में चार हिंदु मंदिरों में चुंबक तकनीक के उपयोग का वर्णन है जिसमें से यह एक है। पुरातत्व विश्लेषणो के अनुसार मंदिर का मुख्य द्वार चुंबक से बना था जो बाद में गिर गया था और 52 टन चुंबक मिलने की बात आती है। चुंबक से चिकित्सा होती है तथा बुलेट ट्रेन भी इसी तकनीक से चलती है। भारत में चुंबक के इस्तेमाल का उल्लेख 600 ईसा पूर्व से है। चुंबक तकनीक से मूर्तियां हवा में उड़ती थीं। कोणार्क सूर्य मंदिर को 1300 ईसवी में पूर्वी गंग राजा नरसिंह देव ने बनवाया था। इसके गिरने का कारण मुख्यत: विदेशी हमलावारों को ही माना जाता है। कोणार्क बंदरगाह के बंद होने तथा समुद्री डाकूओं ने भी इसके गिरने की संभावना को बढ़ा दिया।
त्रिभुज के समान ओडिशा में कोणार्क तथा भुवनेश्वर को दक्षिण का स्वर्ग कहा जाता है। यह देवालय जगन्नाथपुरी से लगभग 35 किलोमीटर दूर है और यहां से समुद्र किनारे की ‘मेरीन ड्राइव’ द्वारा डेढ़ घंटे में पहुंचा जा सकता है। चारों ओर परकोटे से घिरे, सूर्य मंदिर के चार दिशाओं में चार दरवाजे हैं। मुख्य दरवाजे से हरियाली युक्त परिच्छिन्न पुष्पित प्राँगण दिखता है। ध्यान से देखने पर यह लगता है कि हम किसी देवालय पर नहीं बल्कि किसी जुते हुए रथ पर खड़े हैं। रथ पर ऊपर से नीचे तक नक्काशी की गई है। लगभग 190 फीट ऊंचे अत्यंत अलंकृत बारह जोड़ी पहिए, इन पर जुते सात घोड़े और स्वयं सारथी दिनकर देव, ऐसे प्रतीत होता है कि यह आगे बढ़ने को तैयार है। एक विशेष प्रकार की गतिशीलता, भावप्रवणता और सुष्ठता एक-एक इंच में विद्यमान प्रतीत होती है। कुशल शिल्पियों के वास्तु और ज्यामितीय ज्ञान व लाल बलुआ पत्थरों और ग्रेनाइट की काली चट्टानों पर खुदा तथा उकेरा गया यह सूर्य देवता को समर्पित मंदिर कलिंग व ओडिशा शैली एवं विश्व में हैरान कर देने वाला धार्मिक स्थापत्य कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। मीनार रुपी अट्टालिका पर मंडप की तरह एक छतरी है। मंदिर में निर्मित लगभग 857 फीट लंबा और 540 फीट चौड़ा प्रांगण निरंधार वास्तुशिल्प के अंतर्गत आता है, क्योंकि इसमें प्रदक्षिण पथ नहीं है। कोणार्क मंदिर के मुख्य चार भाग हैं। तलपट्टी, शिखर, जगमोहन, नट मंदिर और भोग मंदिर। जिनके आज यहां भगनावशेष ही मिलते हैं, पर जो बचा है वह अद्भुत है। गर्भग्रह जिसमें कभी सूर्यदेव विराजमान थे, यह लगभग 229 फीट ऊंची और इसके साथ ही लगभग 128 फीट ऊंची नाट्यशाला है। इसकी छत तो आज नहीं रही, लेकिन स्तंभ आज खड़े हैं। समस्त साज-सज्जा के साथ प्रांगण के केंद्र में स्थित यह आधार पट्टिका मुख्य आकर्षण का केंद्र है। इस पर उकेरे गए बारह चक्र, बारह महीनों को दर्शाते हैं। प्रत्येक अंश आठ आरों में विभाजित है, जो दिन के आठ पहर बतलाते हैं। यह पहिए जीवन चक्र के प्रतीक भी हैं। प्रत्येक पहिए की धुरी दीवार से करीब एक फीट सामने की ओर निकली हुई है। आधार पट्टिका का चप्पा-चप्पा तरह-तरह के ज्यामितीय आकारों से सजाया गया है। पूरा ढांचा इस प्रकार घड़ा गया है कि सूर्य की प्रथम किरण गर्भग्रह में विराजमान सूर्यदेव पर पड़े। उस समय निश्चय ही हजारों प्रतिमाओं से सुसज्जित यह रथ जीवंत हो उठता होगा। वास्तुशिल्प और सौर विद्या की जानकारी इन कारीगरों में कितनी गहरी रही होगी कि इन्होंने धूप-छांव को भी अपनी मुट्ठी में कैद कर रखा था। सात घोड़े सप्ताह के सात दिनों के प्रतीक हैं। समस्त जगत पट्टिका यहां हजारों हाथिओं, गायकों, वादकों, नृतकों, अप्सराओं, शिकार, दरबार तथा वृक्षों की महीन आकृतिओं से सजी हुई है। जगमोहन की छत जो क्षितिज के समानांतर है, तीन भागों में विभाजित प्रतीत होती है। इसमें पूर्ण आकार वाली सुंदर स्त्रिओं को विभिन्न मुद्राओं में उकेरा गया है। यहां नारी सौंदर्य को उभारने के लिए स्तंभों और दीवारों को गहराई से खोदा गया है। कोणार्क शिल्प की एक और विशेषता दृष्टिगत हुई, यहां प्रस्तर पर भीतर-बाहर दोनों ओर से नक्काशी की गई है। जगमोहन की आधार पट्टिका पर नटराज शिव की मूर्ति है। ऐसा माना जाता है कि इस अर्थ क्षेत्र में महादेव ने तपस्या की थी। गर्भग्रह के सामने हरे क्लोराइट के विशाल पत्थर पर गढ़ी सूर्यदेव की शक्तिशाली योद्धा के रुप में खड़ी प्रतिमा है। इसका एक हाथ टूटा हुआ है। जगमोहन के उत्तर-दक्षिण में कभी विशाल हाथिओं की मूर्तियां हुआ करती थीं, जोकि अब भगनावशेष के रुप में विराजमान हैं। मंदिर की पूर्वी दीवार के दोनों ओर आज भी गज-सिंह की विशाल प्रतिमाएं विद्यमान हैं। देवालय के दक्षिण-पश्चिम में दो छोटे से देवस्थल हैं। देवी चामुण्डा और छायादेवी का मंदिर, जिन्हें सूर्यदेव की पत्नी कक्ष कहा जाता है। कोणार्क की शिल्पकला से प्रभावित होकर, सूर्य मंदिर में ओड़िशा का प्रसिद्ध नृत्य ओड़िशी का महोत्सव दिसंबर में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। संभवत: इस क्षेत्र में सातवीं और नौवीं सदी में भी सूर्य मंदिर थे। ऐसी मान्यता भी है कि श्रीकृष्ण के पुत्र सांबा को दुर्वासा ऋषि के श्राप से कुष्टरोग हो गया था । एक ऋषि ने उसे बारह वर्षों तक सूर्यदेव की उपासना करने को कहा। उसने उस समय की भरी-पूरी नदी चंद्रभागा के किनारे मित्रवन में घोर तपस्या कर, रोग मुक्ति पाई। माना जाता है कि सांबा ने ही सर्वप्रथम यहां सूर्य मंदिर को स्थापित किया था। आज चंद्रभागा एक छोटे से जलाशय के रुप में सिमटी हुई है, किंतु आज भी यहां श्रदालु माघ माह की शुक्ल पक्ष को सप्तमी के दिन स्नान कर, पाप मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। आइने अकबरी के अनुसार 16 वीं सदी में सूर्य मंदिर सही हालत में था। शायद बाद के मुगल हमलों के कारण या भयानक समुद्री तुफानों के कारण यह खंडित हुआ होगा। एक बात जो पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और सन 1278 के तामर पत्रों के अनुसार निश्चित रुप से कही जा सकती है, वह यह है कि इस देवालय का निर्माण, गंगवंश के राजा नरसिंह देव ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए करवाया था। इसे बनने में लगभग 12 वर्ष का समय लगा था। गर्भग्रह की वास्तविक सूर्य प्रतिमा आज दिल्ली के संग्रहालय में है। कोणार्क भारत की स्थापत्य कला के सात अजूबों में एक है। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित विश्व-स्मारक और भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से बचाए रखने की पूरी चेष्टा की जा रही है। धन्य हैं वे शिल्पी, जिन्होंने मूक-मृत्तिका को मुखरित कर इसे कालातीत बना दिया है।