15 अगस्त, 1947 को भारत अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गया था। 15 अगस्त, 1947 से 25 जनवरी, 1950 तक भारत स्वतंत्र उपनिवेश रहा तथा 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होते ही भारत एक प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र बन गया। संविधान की प्रस्तावना में तीन शब्द प्रभुसत्ता संपन्न, प्रजातांत्रिक और गणतंत्र जोड़े गए। किंतु उस समय की परिस्थितियों का प्रभाव भारतीय नीति निर्धारकों पर पड़ना स्वाभाविक था। साम्यवादी विचारधारा अपने चरम पर थी। विश्व की अलग-अलग दो विचारधाराओं के प्रतिनिधि देशों यूएसए(अमरीका) तथा यूएसएसआर(रुस) में शीत युद्ध जारी था। देश का बंटवारा हो चुका था तथा धार्मिक आधार पर पाकिस्तान नाम के देश के विश्व के मानचित्र में आ जाने के बावजूद अच्छी खासी मुस्लिम आबादी भारत में ही रह रही थी। भारत के संविधान निर्माताओं ने यह विशेष ध्यान रखा कि भारत की नीतियों का झुकाव समाजवाद की ओर रहना चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है तथा यहां के नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा की बहुत ही अधिक आवश्यकता है। भारत में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले नागरिक रहते हैं, इसलिए किसी धर्म को विशेष रुप से प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। सभी अपने-अपने धर्मों को मानने के लिए स्वतंत्र हैं। सामासिक भारतीय संस्कृति फलफूल रही है। भारत के नीति निर्धारक शीत युद्ध के दौरान किसी भी विचारधारा के पक्षधर नहीं थे, इसलिए गुटनिर्पेक्ष रहने का निर्णय लिया गया । किंतु उद्योग नीति पूरी तरह से समाजवाद से प्रभावित थी क्योंकि नीति निर्धारकों का मत था कि समानांतर वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षमताओं को पाए बिना भारत अपने व्यवसाय तथा उद्योग का विकास नहीं कर सकता और युद्ध स्तर पर कार्रवाई करते हुए सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापनाओं एवं राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं को संभालने का दायित्व केंद्र सरकार ने ले लिया। सरकार की मुख्य मंशा ऊर्जा, लोहा, इस्पात, मशीनरी और रासायणों इत्यादि भारी उद्योगों में निवेश की थी। उद्योगों की तीन श्रेणियां बनाई गईं। एक श्रेणी पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थी दूसरी में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की भागीदारी संभव थी तथा तीसरी श्रेणी पूरी तरह से निजी क्षेत्र के लिए थी। किंतु प्रत्येक देश के नागरिकों को देशी तथा अंतरराष्ट्रीय वसनीकों के सहयोग की आवश्यकता होती ही है। भारत के नीति निर्धारकों को एक अच्छी खासी अवधि तक इस नीति से लाभ भी हुआ। पंचशील जैसे सिद्धांतों तथा गुटनिर्पेक्ष लहर के फलस्वरुप भारत को विश्व पटल पर ख्याति भी मिलना आरंभ हो गई। किंतु 1962 के भारत-चीन युद्ध ने भारत को कुछ कड़वे अनुभवों का आभास कराया। 1965 के भारत-पाक युद्ध में कुछ-कुछ पाक-चीन की युगलबंदी सामने आई और पाकिस्तान को तो यूएसए(अमरीका) पक्ष के गुट के द्वितीय पश्चिमी बैंक की पदवी हासिल थी। गौरतलब है कि विश्व के दो देशों इसरायल और पाकिस्तान में पश्चिमी देशों का बहुत सा पैसा लगा हुआ है। इसलिए अनेक बार इसरायल को प्रथम पश्चिमी बैंक तथा पाकिस्तान को द्वितीय पश्चिमी बैंक के उपनाम भी दिए जाते रहे है। यूएसएसआर(रुस) से कोई खास समर्थन मिला नहीं, उल्टा यूएसएसआर(रुस) की मध्यस्थता में कराया गया ताशकंद समझौता भी भारतीय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की रहस्यमयी मृत्यु के बाद संदेह के घेरे में आ गया। भारतीय इतिहास के 60वें दशक के अंत में तथा पूरे के पूरे 70 के दशक में अनेक महत्वपूर्ण बदलाव भारत की जनता को देखने को मिले। भाषा के क्षेत्र में राजभाषा अधिनियम, 1963 पास हुआ और राजभाषा नियम, 1976 बने। उद्योग जगत में सरकारी नियंत्रण को बढ़ाते हुए बैंकों तथा बीमा कंपनिओं का राष्ट्रीयकरण किया गया। भारतीय उपनिवेश काल से चले आ रहे राजाओं के प्रिवी परस अधिकार को समाप्त कर दिया गया। भारत-यूएसएसआर(रुस) में मैत्री संधि हुई। भारत-पाक में युद्ध हुआ जिसमें पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए और नया देश बांग्लादेश अस्तित्व में आया। 1974 में भारत ने पोखरन में अपना पहला परमाणू धमाका किया। विकसित देश इसके पक्ष में नहीं थे इसलिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगवा दिए। परिणाम स्वरुप भारत में महंगाई बहुत अधिक बढ़ गई। विपक्ष की ओर से जबरदस्त विरोध हुआ। इस बीच में उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंधिरा गांधी के चुनाव के विवाद में उच्च न्यायालय ने केस का फैसला उनके विरुद्ध दे दिया। देश ने आपातकान का दौर भी देखा तथा एक लघु संविधान के रुप में संविधान में 42वां संविधान संशोधन हुआ। इस संशोधन में ही भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द धर्मनिर्पेक्ष एवं समाजवाद(Secular & Socialist) जोड़े गए। 1977 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की हार के बाद लामबंद विपक्ष की जनता पार्टी (जिसमें आज की बीजेपी तथा उस समय की जनसंघ भी शामिल थी) की सरकार बन गई। 42वें संविधान संशोधन की प्रतिक्रिया स्वरुप संविधान का 44वां संविधान संशोधन पास हुआ लेकिन उक्त दो शब्द यथावत संविधान की प्रस्तावना में बरकरार रहे। 80 का दशक समाप्त होते-होते भारत में परिस्थितियां बदलीं तथा विश्व के मानचित्र में भी अनेक परिवर्तन हुए। भारत में गठबंधन सरकारों का दौर आरंभ हो गया तथा विश्व के मानचित्र में यूएसएसआर के बिखराव के बाद अनेक नए देश शामिल हो गए। शीत युद्ध का अंत हो गया तथा पश्चिमी देशों की नीतियों की पालना नहीं करने वाले देशों को गंभीर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और 90 के दशक के आरंभ में ही भारत में विकास के नाम पर आर्थिक सुधार लाने का सिलसिला आरंभ हो गया। वैश्वीकरण के युग में सरकारी उद्योगों का विनिवेश आरंभ हुआ जो आजतक जारी है। इंस्पेक्टर राज के समय के प्रतिकूल प्रभावों को समाप्त करने के नाम पर श्रम अधिनियमों सहित अनेक अधिनियमों में संशोधन की प्रक्रिया आवश्यतानुसार जारी है। भारत सरकार पर भारतीय नागरिकों को दी जा रही सब्सिडी बंद करने का भी भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। मगर जनता का उतना विकास हुआ नहीं जितना अपेक्षित था। इस संबंध में मुझे किसी एक व्यक्ति की ओर से सुनाए गए चुटकले की याद आ रही है –
‘एक समय की बात है कि यूएसए(अमरीका) और चीन के राष्ट्राध्यक्ष चर्चा के लिए बैठे हुए थे – चीन के राष्ट्राध्यक्ष ने कहा कि हम अपनी जनता को अधिक रोजगार देने के लिए बेलचे (कस्सी) से होने वाला काम देते हैं – यूएसए(अमरीका) के राष्ट्र अध्यक्ष ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा – क्यों नहीं आप उन्हें चम्मच दे देते - आप के देश में अधिक नागरिकों को रोजगार मिल जाएगा।‘
आज वही देश चीन यूएसए(अमरीका) को प्रत्येक क्षेत्र में टक्कर दे रहा है। शासकों को जनता के हित में काम करने की आदत डालनी चाहिए। अगर कोई दावा करे कि मैने छोटे उद्योगों में पावरलूम की जगह कम शोर करने वाली स्वचालिच मशीनों से उस क्षेत्र का विकास करवा दिया है तो जनता को जवाब मांगने का पूरा-पूरा हक है कि स्वचालित मशीनें आने से कम से कम उतने कामगारों को रोजगार मिला है कि नहीं जितने कर्मचारी हैंडलूमों/पावरलूमों पर काम करते थे। विकास होने से अभिप्राय है कि रोजगार के एकसमान अवसर। एक ही क्षेत्र में काम करने वाले एकसमान कामगारों को समान वेतन। अगर एक कामगार को उसी काम के रु.80000/- और दूसरे को रु.8000/- मिलते हैं तो इसे किसी भी हालत में समाज का आर्थिक विकास नहीं कहा जा सकता। यह केवल किसी एक श्रेणी मात्र का ही विकास माना जाएगा।
विकास के लिए विकास कैंसर प्रकोष्ठ की विचारधारा है – (एडवर्ड अबडे)Growth for the sake of Growth is the ideology of the cancer cell(Edward Abdey)
लगभग 25 वर्षों बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में एकही दल की बहुमत की सरकार बनी है। सेक्युलर तथा सोशलिस्ट विचारधारा के लोगों को शक है कि वर्तमान सरकार उक्त दोनो विचारधाराओं की विरोधी है। ऊपर से भारतीय संप्रभु काल में प्रथम बार 26 जनवरी के गणतंण दिवस समारोह में समाजवाद के धुर विरोधी यूएसए(अमरीका) के राष्ट्रपति मुख्य अतिथि थे। इस अवसर पर सूचना एवं प्रसारण विभाग की ओर से जारी विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना के सेक्युलर तथा सोशलिस्ट शब्द गायब थे। हंगामा होना लाजमी था जोकि हुआ भी। उसपर एक नया विचार आने लगा कि इसके ऊपर बहस हो कि संविधान की प्रस्तावना में यह उक्त दो शब्द रहने भी चाहिए या नहीं। यहां यह बताना भी जरुरी है कि भारत का संविधान लिखित संविधान है जिसमें बदलाव करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्कता है । यह कोई यू.के जैसा अलिखित संविधान नहीं जिसमें किसी परंपरा के माध्यम से भी कोई चीज संविधान में शामिल हो सकती है। बाद में यह विवाद तब कुछ थमा(पूरी तरह नहीं) जब सत्ताधारी दल के अध्यक्ष को सामने आकर यह स्पष्ट करना पड़ा कि यह दोनो शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल रहेंगे । इससे पूर्व भारत की राजभाषा हिंदी को लागु करने से संबंधित परिपत्र भी ठंडे बस्ते में जा चुके हैं। विश्व में चलने वाली सरकारों के संबंध में अनेक बार बहस होती रहती है कि कौन सी सरकार अच्छी है। कुछ तो संसदीय प्रणाली के समर्थक मिलेंगे, कुछ राष्ट्रपति के नेतृत्व वाली(जैसा कि यूएसए(अमरीका) में है), कुछ राजतंत्र के समर्थक तथा कुछ के लिए तो तानाशाही सबसे बढ़िया विकल्प है। हजारों वर्ष पूर्व ही अरस्तू ने इस समस्या का हल निकालते हुए यह बता दिया था कि सरकार वही सबसे अच्छी है जो सुशासन दे नकि नई-नई समस्याएं पैदा करे। इस परिपेक्ष में भारतीय नागरिकों का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वे बेकार के विवादों की ओर ध्यान न देकर गलत लोगों को मतदान के माध्यम से माकूल जवाब दें। मतदान करते हुए वे यह खास ध्यान रखें कि भविष्य में बनने वाली सरकार स्थाई व ईमानदार हो (यह राज्य और केंद्र में अलग-अलग भी संभव है) मगर खास ध्यान यह रखना होगा कि सरकार भी स्थिर हो तथा विपक्ष भी मजबूत रहे। ऐसा नहीं होने पर सरकारें निरंकुश होकर काम करेंगी तथा सरकार पर चैक रखने में कोई भी सक्षम नहीं होगा।
( लेखक राजनीति शास्त्र तथा हिंदी में एम.ए हैं तथा सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं )
15 अगस्त, 1947 को भारत अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गया था। 15 अगस्त, 1947 से 25 जनवरी, 1950 तक भारत स्वतंत्र उपनिवेश रहा तथा 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होते ही भारत एक प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र बन गया। संविधान की प्रस्तावना में तीन शब्द प्रभुसत्ता संपन्न, प्रजातांत्रिक और गणतंत्र जोड़े गए। किंतु उस समय की परिस्थितियों का प्रभाव भारतीय नीति निर्धारकों पर पड़ना स्वाभाविक था। साम्यवादी विचारधारा अपने चरम पर थी। विश्व की अलग-अलग दो विचारधाराओं के प्रतिनिधि देशों यूएसए(अमरीका) तथा यूएसएसआर(रुस) में शीत युद्ध जारी था। देश का बंटवारा हो चुका था तथा धार्मिक आधार पर पाकिस्तान नाम के देश के विश्व के मानचित्र में आ जाने के बावजूद अच्छी खासी मुस्लिम आबादी भारत में ही रह रही थी। भारत के संविधान निर्माताओं ने यह विशेष ध्यान रखा कि भारत की नीतियों का झुकाव समाजवाद की ओर रहना चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है तथा यहां के नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा की बहुत ही अधिक आवश्यकता है। भारत में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले नागरिक रहते हैं, इसलिए किसी धर्म को विशेष रुप से प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। सभी अपने-अपने धर्मों को मानने के लिए स्वतंत्र हैं। सामासिक भारतीय संस्कृति फलफूल रही है। भारत के नीति निर्धारक शीत युद्ध के दौरान किसी भी विचारधारा के पक्षधर नहीं थे, इसलिए गुटनिर्पेक्ष रहने का निर्णय लिया गया । किंतु उद्योग नीति पूरी तरह से समाजवाद से प्रभावित थी क्योंकि नीति निर्धारकों का मत था कि समानांतर वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षमताओं को पाए बिना भारत अपने व्यवसाय तथा उद्योग का विकास नहीं कर सकता और युद्ध स्तर पर कार्रवाई करते हुए सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापनाओं एवं राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं को संभालने का दायित्व केंद्र सरकार ने ले लिया। सरकार की मुख्य मंशा ऊर्जा, लोहा, इस्पात, मशीनरी और रासायणों इत्यादि भारी उद्योगों में निवेश की थी। उद्योगों की तीन श्रेणियां बनाई गईं। एक श्रेणी पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थी दूसरी में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की भागीदारी संभव थी तथा तीसरी श्रेणी पूरी तरह से निजी क्षेत्र के लिए थी। किंतु प्रत्येक देश के नागरिकों को देशी तथा अंतरराष्ट्रीय वसनीकों के सहयोग की आवश्यकता होती ही है। भारत के नीति निर्धारकों को एक अच्छी खासी अवधि तक इस नीति से लाभ भी हुआ। पंचशील जैसे सिद्धांतों तथा गुटनिर्पेक्ष लहर के फलस्वरुप भारत को विश्व पटल पर ख्याति भी मिलना आरंभ हो गई। किंतु 1962 के भारत-चीन युद्ध ने भारत को कुछ कड़वे अनुभवों का आभास कराया। 1965 के भारत-पाक युद्ध में कुछ-कुछ पाक-चीन की युगलबंदी सामने आई और पाकिस्तान को तो यूएसए(अमरीका) पक्ष के गुट के द्वितीय पश्चिमी बैंक की पदवी हासिल थी। गौरतलब है कि विश्व के दो देशों इसरायल और पाकिस्तान में पश्चिमी देशों का बहुत सा पैसा लगा हुआ है। इसलिए अनेक बार इसरायल को प्रथम पश्चिमी बैंक तथा पाकिस्तान को द्वितीय पश्चिमी बैंक के उपनाम भी दिए जाते रहे है। यूएसएसआर(रुस) से कोई खास समर्थन मिला नहीं, उल्टा यूएसएसआर(रुस) की मध्यस्थता में कराया गया ताशकंद समझौता भी भारतीय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की रहस्यमयी मृत्यु के बाद संदेह के घेरे में आ गया। भारतीय इतिहास के 60वें दशक के अंत में तथा पूरे के पूरे 70 के दशक में अनेक महत्वपूर्ण बदलाव भारत की जनता को देखने को मिले। भाषा के क्षेत्र में राजभाषा अधिनियम, 1963 पास हुआ और राजभाषा नियम, 1976 बने। उद्योग जगत में सरकारी नियंत्रण को बढ़ाते हुए बैंकों तथा बीमा कंपनिओं का राष्ट्रीयकरण किया गया। भारतीय उपनिवेश काल से चले आ रहे राजाओं के प्रिवी परस अधिकार को समाप्त कर दिया गया। भारत-यूएसएसआर(रुस) में मैत्री संधि हुई। भारत-पाक में युद्ध हुआ जिसमें पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए और नया देश बांग्लादेश अस्तित्व में आया। 1974 में भारत ने पोखरन में अपना पहला परमाणू धमाका किया। विकसित देश इसके पक्ष में नहीं थे इसलिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगवा दिए। परिणाम स्वरुप भारत में महंगाई बहुत अधिक बढ़ गई। विपक्ष की ओर से जबरदस्त विरोध हुआ। इस बीच में उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंधिरा गांधी के चुनाव के विवाद में उच्च न्यायालय ने केस का फैसला उनके विरुद्ध दे दिया। देश ने आपातकान का दौर भी देखा तथा एक लघु संविधान के रुप में संविधान में 42वां संविधान संशोधन हुआ। इस संशोधन में ही भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द धर्मनिर्पेक्ष एवं समाजवाद(Secular & Socialist) जोड़े गए। 1977 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की हार के बाद लामबंद विपक्ष की जनता पार्टी (जिसमें आज की बीजेपी तथा उस समय की जनसंघ भी शामिल थी) की सरकार बन गई। 42वें संविधान संशोधन की प्रतिक्रिया स्वरुप संविधान का 44वां संविधान संशोधन पास हुआ लेकिन उक्त दो शब्द यथावत संविधान की प्रस्तावना में बरकरार रहे। 80 का दशक समाप्त होते-होते भारत में परिस्थितियां बदलीं तथा विश्व के मानचित्र में भी अनेक परिवर्तन हुए। भारत में गठबंधन सरकारों का दौर आरंभ हो गया तथा विश्व के मानचित्र में यूएसएसआर के बिखराव के बाद अनेक नए देश शामिल हो गए। शीत युद्ध का अंत हो गया तथा पश्चिमी देशों की नीतियों की पालना नहीं करने वाले देशों को गंभीर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और 90 के दशक के आरंभ में ही भारत में विकास के नाम पर आर्थिक सुधार लाने का सिलसिला आरंभ हो गया। वैश्वीकरण के युग में सरकारी उद्योगों का विनिवेश आरंभ हुआ जो आजतक जारी है। इंस्पेक्टर राज के समय के प्रतिकूल प्रभावों को समाप्त करने के नाम पर श्रम अधिनियमों सहित अनेक अधिनियमों में संशोधन की प्रक्रिया आवश्यतानुसार जारी है। भारत सरकार पर भारतीय नागरिकों को दी जा रही सब्सिडी बंद करने का भी भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। मगर जनता का उतना विकास हुआ नहीं जितना अपेक्षित था। इस संबंध में मुझे किसी एक व्यक्ति की ओर से सुनाए गए चुटकले की याद आ रही है –
‘एक समय की बात है कि यूएसए(अमरीका) और चीन के राष्ट्राध्यक्ष चर्चा के लिए बैठे हुए थे – चीन के राष्ट्राध्यक्ष ने कहा कि हम अपनी जनता को अधिक रोजगार देने के लिए बेलचे (कस्सी) से होने वाला काम देते हैं – यूएसए(अमरीका) के राष्ट्र अध्यक्ष ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा – क्यों नहीं आप उन्हें चम्मच दे देते - आप के देश में अधिक नागरिकों को रोजगार मिल जाएगा।‘
आज वही देश चीन यूएसए(अमरीका) को प्रत्येक क्षेत्र में टक्कर दे रहा है। शासकों को जनता के हित में काम करने की आदत डालनी चाहिए। अगर कोई दावा करे कि मैने छोटे उद्योगों में पावरलूम की जगह कम शोर करने वाली स्वचालिच मशीनों से उस क्षेत्र का विकास करवा दिया है तो जनता को जवाब मांगने का पूरा-पूरा हक है कि स्वचालित मशीनें आने से कम से कम उतने कामगारों को रोजगार मिला है कि नहीं जितने कर्मचारी हैंडलूमों/पावरलूमों पर काम करते थे। विकास होने से अभिप्राय है कि रोजगार के एकसमान अवसर। एक ही क्षेत्र में काम करने वाले एकसमान कामगारों को समान वेतन। अगर एक कामगार को उसी काम के रु.80000/- और दूसरे को रु.8000/- मिलते हैं तो इसे किसी भी हालत में समाज का आर्थिक विकास नहीं कहा जा सकता। यह केवल किसी एक श्रेणी मात्र का ही विकास माना जाएगा।
विकास के लिए विकास कैंसर प्रकोष्ठ की विचारधारा है – (एडवर्ड अबडे)Growth for the sake of Growth is the ideology of the cancer cell(Edward Abdey)
लगभग 25 वर्षों बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में एकही दल की बहुमत की सरकार बनी है। सेक्युलर तथा सोशलिस्ट विचारधारा के लोगों को शक है कि वर्तमान सरकार उक्त दोनो विचारधाराओं की विरोधी है। ऊपर से भारतीय संप्रभु काल में प्रथम बार 26 जनवरी के गणतंण दिवस समारोह में समाजवाद के धुर विरोधी यूएसए(अमरीका) के राष्ट्रपति मुख्य अतिथि थे। इस अवसर पर सूचना एवं प्रसारण विभाग की ओर से जारी विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना के सेक्युलर तथा सोशलिस्ट शब्द गायब थे। हंगामा होना लाजमी था जोकि हुआ भी। उसपर एक नया विचार आने लगा कि इसके ऊपर बहस हो कि संविधान की प्रस्तावना में यह उक्त दो शब्द रहने भी चाहिए या नहीं। यहां यह बताना भी जरुरी है कि भारत का संविधान लिखित संविधान है जिसमें बदलाव करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्कता है । यह कोई यू.के जैसा अलिखित संविधान नहीं जिसमें किसी परंपरा के माध्यम से भी कोई चीज संविधान में शामिल हो सकती है। बाद में यह विवाद तब कुछ थमा(पूरी तरह नहीं) जब सत्ताधारी दल के अध्यक्ष को सामने आकर यह स्पष्ट करना पड़ा कि यह दोनो शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल रहेंगे । इससे पूर्व भारत की राजभाषा हिंदी को लागु करने से संबंधित परिपत्र भी ठंडे बस्ते में जा चुके हैं। विश्व में चलने वाली सरकारों के संबंध में अनेक बार बहस होती रहती है कि कौन सी सरकार अच्छी है। कुछ तो संसदीय प्रणाली के समर्थक मिलेंगे, कुछ राष्ट्रपति के नेतृत्व वाली(जैसा कि यूएसए(अमरीका) में है), कुछ राजतंत्र के समर्थक तथा कुछ के लिए तो तानाशाही सबसे बढ़िया विकल्प है। हजारों वर्ष पूर्व ही अरस्तू ने इस समस्या का हल निकालते हुए यह बता दिया था कि सरकार वही सबसे अच्छी है जो सुशासन दे नकि नई-नई समस्याएं पैदा करे। इस परिपेक्ष में भारतीय नागरिकों का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वे बेकार के विवादों की ओर ध्यान न देकर गलत लोगों को मतदान के माध्यम से माकूल जवाब दें। मतदान करते हुए वे यह खास ध्यान रखें कि भविष्य में बनने वाली सरकार स्थाई व ईमानदार हो (यह राज्य और केंद्र में अलग-अलग भी संभव है) मगर खास ध्यान यह रखना होगा कि सरकार भी स्थिर हो तथा विपक्ष भी मजबूत रहे। ऐसा नहीं होने पर सरकारें निरंकुश होकर काम करेंगी तथा सरकार पर चैक रखने में कोई भी सक्षम नहीं होगा।
( लेखक राजनीति शास्त्र तथा हिंदी में एम.ए हैं तथा सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं )