आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जब-जब किसी जाति या राष्ट्र को किसी वस्तु की कमी का आभास हुआ तो समस्या के समाधान के प्रयास आरंभ हुए। अपने-अपने क्षेत्रों के संसाधनों की कमी के आभास के कारण विभिन्न साम्राज्यवादी देशों व घुमंतु जातियों ने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारतवर्ष की ओर मूंह कर लिया था और सिकंदर से लेकर अंग्रेज 1947 ई. तक भारत वर्ष के संसाधनो का दोहन करते रहे। भारतवर्ष को खोजने की चाह ने ही कोलंबस के माध्यम से कोलंबस के भारत आज का अमेरिका की खोज करादी थी। भारतवर्ष में भाषा के क्षेत्र में भी समय-समय पर उत्पन्न कठिनाईयें का समाधान सोचा जाता रहा है। राजा हर्षवर्धन के शासनकाल उपरांत भारत छोटे-छोटे आकार के राज्यों में बंट गया था मगर भाषा संस्कृत प्रधान हिंदुस्तानी ही रही जोकि मुगल काल तक चलती रही। मुगलकाल में राजकाज के कार्यों के संचालन की भाषा व आम जनता की भाषा में दूरी को भांपते हुए शासकों ने आवश्यकता अनुभव करते हुए अरबी, फारसी, उर्दू के मिश्रण से हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग करना शुरु कर दिया था। बादशाह बाबर और शाहजहां द्वारा हिंदुस्तानी भाषा को स्वीकारा गया। वर्ष 1715 ई. में पादरी जे.जे.कैटरील विरचित हिंदी व्याकरण का नाम ही हिंदी प्रामर रखा गया। वर्ष 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज के प्राचार्य गिलक्राइस्ट ने हिंदी फारसी मिश्रित भाषा को हिंदुस्तानी घोषित किया। अभिप्राय यह है कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व हिंदी राजभाषा के विभिन्न रुप हैं एवं दूसरी भाषाओं के मिश्रण से हिंदुस्तानी के रुप में प्राचीन काल से आज तक आम जनता की बोलचाल की भाषा रही है। भारतवर्ष पर विदेशियों के अधिकार उपरांत उन्होंने स्थानीय लोगों से संपर्क स्थापित करने के मंतव्य से अपनी भाषायी शैली का भारतीय भाषाओं से मिश्रण कर हिंदुस्तानी भाषा तैयार की। परंतु अंग्रेजों का शासन स्थापित होने पर तमाम भारतीय भाषाओं की अनदेखी की गई व अंग्रेजी भाषा को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया और इसे रोजगार के साथ जोड़ दिया गया। अंग्रेजों को कार्य संचालन के लिए कर्मियों की आवश्यकता थी व भारत पर अंग्रेज साम्राज्यवाद स्थापित हो जाने के परिणामस्वरुप किसानों, व्यापारियों, कर्मचारियों और अधिकारियों के पास समर्पण के सिवाए और कोई चारा भी नहीं था। उन के पास एक विकल्प यह भी था कि बेरोजगार रहकर परिवार सहित भूखे मर जाते या ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे तले मिलने वाली सुविधाओं का उपयोग करना आरंभ कर देते। भारतीयों को रोजगार की आवश्यकता थी, इसलिए स्थानीय लोगों ने अंग्रेजी सीखकर सरकारी नौकरियां प्राप्त करनी आरंभ करदीं व अंग्रेजी के गुलाम हो गए।
1947 ई. में जब भारत आजाद हो गया तो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति को सबसे अधिक कठिनाई भारत की राजभाषा के चयन में ही हुई। जरा सोचिए उस समय के एक शक्तिशाली राजनितिज्ञ आइवर जेनिंग्स को डॉ भीमराव अंबेदकर के स्थान पर संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए नियुक्त करने के इच्छुक थे। ऐसा हो जाने से हिंदुस्तानी अथवा हिंदी का क्या होता अंदाज स्वयं ही लगाया जा सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विशेष आग्रह पर यह दायित्व डॉ भीमराव अंबेदकर को सौंपा गया। काफी सोच विचार उपरांत हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि के साथ संघ की राजभाषा स्वीकार किया गया। संविधान हिंदी को राजभाषा घोषित करता है परंतु इसने संविधान लागू होने की तिथि से 15 वर्ष की अवधि तक सरकारी भाषा के रुप में अंग्रेजी भाषा के प्रयोग की अनुमति दी। इसके पश्चात अंग्रेजी भाषा के प्रयोग की अनुमति का अधिकार संसद को सौंपा गया। इस अधिकार का प्रयोग करते हुए संसद ने राजभाषा अधिनियम पास करते हुए अंग्रेजी को सरकारी भाषा के रुप में प्रयोग करने की अनुमति 26 जनवरी, 1971 तक प्रदान करदी। 1967 में राजभाषा अधिनियम में संशोधन के उपरांत अंग्रेजी के प्रयोग की अनुमति अनिश्चित काल तक चलते रहने की आशंका है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 अनुसार हिंदी भाषा का प्रसार. वृद्धि व विकास कराने का कर्तव्य संघ सरकार को सौंपा गया है। राजभाषा स्वीकार होते ही कुछ क्षेत्रों से हिंदी का विरोध होना शुरु हो गया जिसका प्रमुख कारण था अंग्रेजी शासकों द्वारा अपने शासनकाल के दौरान भारतीय भाषाओं को पीछे धकेला जाना। कुछ क्षेत्रों के नागरिक यह अनुभव कर रहे थे कि हिंदी के उन्नत हो जाने पर उन्हें भाषायी व रोजगार के आधार पर हानि हो सकती है मगर अब उनका भय कुछ हद तक दूर हो चुका है। वे लोग भी हिंदी भाषा को स्वीकार रहे हैं। मगर अबतक राजभाषा हिंदी को उन्नति के जिस शिखर तक पहुंच जाना चाहिए था वह स्थान आजतक भी इस भाषा को प्राप्त नहीं हुआ है। इस संबंध में सर्वमान्य सत्य यह है कि इस विषय अंतर्गत वांछित इच्छा शक्ति का उपयोग नहीं किया गया। 1955 में राष्ट्रपति महोदय ने मुंबई द्विभाषी राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बाल गंगाधर खेर की अध्यक्षता में राजभाषा आयोग बनाया था। खेर आयोग ने हिंदी के आधिकारिक उपयोग तथा 14 वर्ष की आयु तक के प्रत्येक विद्यार्थी को हिंदी का उचित ज्ञान कराने का सुझाव दिया था। आयोग ने माध्यमिक स्तर तक हिंदी को अनिवार्य करने का सुझाव दिया था। यदि 26 जनवरी 1950 को जन्मे बच्चे को हिंदी पढ़ाई जाती तो आज इतने वर्षों बाद यह पूछने की आवश्यकता नहीं होती कि हिंदी भारत की राजभाषा है कि नहीं। कड़ा परिश्रम और संयम सफलता की दो चाबियां हैं। इसका प्रमाण भारतवर्ष पर मुगल शासनकाल के दौरान अंग्रेजों की ओर से दिया गया था। कैप्टन हॉकिंस अंग्रेजों की ओर से बादशाह जहांगीर के दरबार में भारत में व्यापार करने की अनुमति मांगने गए थे। बादशाह जहांगीर यह अनुमति देने को तैयार हो गए किंतु पहले से दरबार में मौजूद पुर्तगाली लॉबी के प्रभाव में आकर उन्होंने अंग्रेजों को अनुमति प्रदान करने से इंकार कर दिया। किंतु अंग्रेजों ने कड़ी मेहनत और संयम का दामन न छोड़ा। उन्हीं मुगल शासकों से व्यापार की अनुमति भी लेली व बाद में भारत पर अपना साम्राज्य भी स्थापित कर लिया। भाषा क्षेत्र में भी अंग्रेजों ने बहुत कड़ी मेहनत की है। आज से कोई 500 से अधिक वर्षों की बात है। अंग्रेजी की पहुंच दो एक टापुओं तक ही थी। शासक वर्ग में लेटिन की पुत्री इतालवी को सीखने का चाव था। इंगलैंडवासी विदेशी भाषा भक्ति भाव से ऊपर उठे। ज्ञातव्य हो कि प्रिंटिंग का काम 11वीं सदी में आरंभ हो गया था किंतु अंग्रेजी में छपी किताब 1475 ई. में ही पब्लिश हो सकी वो भी अपने छपने के बीस साल बाद। एक बार आरंभ कर लेने के उपरांत उन्होंने जी तोड़ मेहनत की और दुनिया भर के ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। विदेशी कथाओं पुस्तकों के आधार पर साहित्य रचना की तथा साथ ही सबल हुआ वह समाज।
कालांतर में भारतवासी आवश्यकता अनुसार राष्ट्रीय व स्थानीय भाषाओं का मिश्रण करते रहे हें। मोहम्द तुगलक के शासन काल में जब राजधानी को दौलताबाद जाने का आदेश हुआ तो अनेक राजदरबारी, नागरिक, सैनिक, कर्मचारी, व्यापारी, सूफी संत परिवार सहित दक्षिण पहुंचे। ये अधिकांश लोग दिल्ली के आसपास के थे व हरियाणवी एवं खड़ी बोली बोलते थे। जिस स्थान पर यह लोग रुके थे वहां की भाषा दुरुह थी। परिणामत: इन्होंने ग्रामीण बोली बांगरू तथा जादू को आधार बना लिया व साहित्य रचना भी की। सभी भारतीय भाषाओं का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने पर हम पाएंगे कि सभी का आधार एक ही है व बोलचाल में आपस में मिलती हैं। वह दिन दूर नहीं जब कुछ क्षेत्रों में उपजी गलत धारणाओं का निवारण करते हुए हिंदी को पूरे विश्व में सम्मानजनक स्थान पाना है। अत: मेरा भारत सरकार, भारतीयों तथा स्वेच्छा से हिंदी की प्रगति में योगदान देने वाली संस्थाओं से यही अनुरोध है कि संयम बरतते हुए जोकि भारतीय संस्कृति का आधार भी है कड़ा परिश्रम जारी रखा जाए और वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत की राजभाषा हिंदी अपना गौरव एवं आदर स्वयं ही पा लेगी।
विजय कुमार शर्मा की अन्य किताबें
मैं राजनीति शास्त्र एवं हिंदी में एम.ए हुं, अपने विभाग में यूनियन का अध्यक्ष रह चुका हुं, जिला इंटक बठिंडा का वरिष्ठ उप प्रधान रह चुका हुं, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, बठिंडा एवं भुवनेश्वर का सदस्य-सचिव रह चुका हुँ, वर्तमान में अखिल भारतीय कर्मचारी भविष्य निधि राजभाषा संघ का सलाहकार हूँ, आयकर विभाग में सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत रह चुका हुँ, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर हिंदी मामलों से संबंधित विशेषज्ञ पेनलों एवं हिंदी संगोष्टियों का हिस्सा रह चुका हुं, अलग-अलग नाम से विभागीय और नराकास की 12 से भी अधिक पत्रिकाओं का संपादक रह चुका हुँ, कर्मचारी भविष्य निधि संगठन से राजभाषा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात जुलाई, 2019 से बतौर परामर्शदाता कौशल विकास और उद्यमशीलता मंत्रालय में तैनात हूँ, 05 वर्ष तक श्री साईं कॉन्वेंट स्कूल, अमृतसर के प्रधानाचार्य का पद संभाला और कुछ समय तक एनडीएमसी, दिल्ली के सोशल एजुकेशन विभाग के कौशल विकास अनुभाग का कार्य भी देखा। मनसुख होटल और करतार होटल अमृतसर का प्रबंधक रह चुका हूँ , भाषाकेसरीओएल के नाम से मेरा यूट्यूब चैनल है और स्वयं की ओर से लिखित पुस्तकों का लेखक भी हूँ ।D