26 जनवरी, 1950 को लागू
भारत के संविधान के अनुसार हिंदी को राजभाषा स्वीकृत किया गया है और
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह दायित्व है कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास
करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन
सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में
विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रुप, शैली और पदों को आत्मसात करते
हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्दभंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी
समृद्धि सुनिश्चित करे।
भारत सरकार की ओर से राजभाषा अधिनियम,1963 बनाया गया
है और राजभाषा नियम, 1976 भी तैयार किए गए हैं । हिंदी शिक्षण और प्रशिक्षण
योजनाओं के माध्यम से देश-विदेश में हिंदी सिखाई जा रही है । भारत सरकार के
मंत्रालयों, कार्यालयों, उपक्रमों, निकायों में हिंदी के कार्यों का कार्यान्वयन
कराने के लिए केंद्रीय राजभाषा कार्यान्वयन समिति, केंद्रीय राजभाषा कार्यान्वयन
समिति, हिंदी सलाहकार समिति, संसदीय राजभाषा कार्यान्वयन समिति, नगर राजभाषा
कार्यान्वयन समिति और कार्यालय राजभाषा कार्यान्वयन समितियों सरीखी समितियों का
गठन किया गया है । हिंदी की प्रगति के लिए विश्व स्तर के 10 विश्व हिंदी सम्मेलन
हो चुके हैं । पुरस्कार योजनाओं के माध्यम से हिंदी में काम करने वालों को
प्रोत्साहित किया जाता है । फिर भी देश के असंख्य नागरिक हिंदी को स्वेच्छा से
अपनाने को तैयार नहीं । यहां तक कि भारत के अनेक क्षेत्र तो हिंदी के विरोध में
मरने मारने को तैयार हैं । कारण कोई खास नहीं परंतु राजनैतिक और आर्थिक असुरक्षा
का डर दिखाकर भारतीयों की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है जिससे भारत की तरक्की
में भी रुकावटें उत्पन्न हो रही हैं ।
वर्तमान में जितनी भी मुसीबतें भारतीय झेल रहे
हैं उनका प्रमुख कारण है भारत में लंबे समय तक चलती रही राजनैतिक उथल-पुथल और भारत
पर विदेशियों का शासन जिससे देशी भाषाएं अपने स्वाभाविक स्वरुप में फलफूल नहीं
सकीं । किंतु ब्रिटिश उपनिवेश काल और विशेषकर भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम 1857
ई. की असफलता के बाद अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को सदा के लिए गुलाम बनाए रखने के
लिए विशेष प्रयास आरंभ किए गए। जिनमें से कुछ इस
प्रकार से हैं :-
भारत
में 1858 ई. से लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को लागू कर दिया गया । जिसका प्रमुख
लक्ष्य था भारतीयों को ऐसी शिक्षा देना जिससे उनका तन तो भारतीय हो लेकिन बुद्धि
अंग्रेजी हो । रणनीति के तहत भारत में चलने वाले गुरुकुल बंद कराए गए । अंग्रेज
स्वयं भी रोमन लिपि के माध्यम से भारतीय भाषाएं सीखते थे तथा सरकारी सेवा में आने
वाले अनपढ़ भारतीयों को भी रोमन लिपी के माध्यम से पढ़ाते थे ।
दंड स्वरुप भारतीयों पर आयकर लगाया गया । भारतीयों
की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए और भविष्य की योजनाएं तैयार करने के लिए देशी
भाषाओं में छपने वाले तमाम समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को इंग्लैंड में मंगवाना
आरंभ किया गया । 1865 ई. में ब्रिटिश सरकार ने लंदन से भारत के लेफ्टीनेंट गवर्नर को आदेश
दिया कि भविष्य में ब्रिटिश शासन अधीन भारत के प्रत्येक क्षेत्र से देशी भाषाओं के
सभी मुद्रित समाचार पत्रों, पुस्तकों और पत्रिकाओं की सूची बनाकर लंदन भेजी जाए
ताकि रॉयल-एशियाटक-सोसायटी-लंदन ब्रिटेन में उसका प्रयोग कर सके।
हकीकत चाहे जो भी हो किंतु अंग्रेजों को एक बात अच्छी
तरह से मालूम थी कि बहुसंख्यक भारतीय हिंदी बोलने, लिखने और समझने में सक्षम हैं,
इसलिए जब भारत सरकार अधिनियम, 1935 आया तो तभी से यह साफ होने लगा था कि भारत की
राष्ट्रभाषा हिंदी होने वाली है । अफसरशाही ने रोजगार खो जाने के डर से हिंदी का
विरोध करना शुरु कर दिया जो हिंदी के राजभाषा बनने से लेकर आज तक जारी है । विधी
क्षेत्र ने भी अंग्रेजी का ही समर्थन किया । लेकिन एक विषय हमेशा से अनुसंधान का
विषय रहा है कि कोई भी भारतीय उग्रवादी संगठन अंग्रेजी का विरोध नहीं करता जबकि
हिंदी भाषियों पर हमलों की बात आम है । कुछ समय पूर्व मैने समाचार पत्रों में पढ़ा
था कि कुछ उग्रवादी संगठनो के सदस्य अपना अंग्रेजी ज्ञान बढ़ाने के लिए
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में दाखिला ले रहे थे । कारण यही है कि अंग्रेजी
के ज्ञाताओं को प्रतिभाशाली माना जाता है तथा हिंदी बोलने वालों को गरीब और आम
नागरिक । राजनीतिज्ञ भी वोटरों से वोट तो भारतीय भाषाओं में मांगते हैं किंतु
जीतने के बाद हिंदी की कोई खोज खबर नहीं लेते । रोजगार के मामले में भी अंग्रेजी
के पंडितों को प्राथमिकता मिलती है । भारतीय भाषाओं के साहित्यकार भी अपने औजारों
के साथ लड़ने को मजबूर हैं । दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में कुछ साहित्यकारों की
ओर से सदी के महानायक श्री अमिताभ बच्चन के विरोध ने एक नए विषय को ही तूल दे दिया
। सिने जगत की कुछ हस्तियों ने खुलकर यह कहना आरंभ कर दिया कि हिंदी की सबसे अधिक
सेवा तो अभिनेताओं-अभिनेत्रियों ने की है । यह अलग बात है कि एक दो अभिनेता-अभिनेत्रियों
को छोड़कर बाकी सभी अपनी स्क्रिप्ट रोमन लिपि में ही पढ़ते हैं । जबकि अधिकतर
साहित्यकार अपनी रचनाओं और पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के मामलों में भारत सरकार के
मूंह की ओर ही ताकते हैं । मगर जब केंद्र सरकार के कार्यालयों/उपक्रमों/उद्यमों
में तैनात हिंदी कर्मी, जिनके पास कोई प्रशासनिक शक्तियां नहीं होती, उनकी वांछित
इच्छा पूरी नहीं कर पाते तो गुस्से से लाल पीला होकर उन्हें हिंदी के पंडे तक की
संज्ञा दे देते हैं।
इसलिए जरुरत अब इस बात की है कि भारतीय
नीतिनिर्धारक सकारात्मक नीति अपनाते हुए भारतीय भाषाओं में काम करने का मंत्र देकर
भारत को सुपर पावर बनवाने में सहायक बनें । हिंदी को रोजगार के साथ जोड़ा जाए ।
हिंदी में काम करने वाले केंद्र और राज्य सरकारों के कार्यालयों/उपक्रमों/उद्यमों
में कार्यरत कर्मचारियों को हिंदी में काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए हिंदी
भत्ता के नाम से एक विशेष भत्ता आरंभ किया जाए और वर्तमान में चल रही सभी की सभी
पुरस्कार योजनाएं बंद कर दी जाएं । एक ही फॉरमुला लागू हो, हिंदी में जितना
अधिक काम उतने ही अनुपात में अधिक भत्ता ।
हिंदी संवर्ग में कार्यरत हिंदी
कर्मियों को प्रशासनिक शक्तियां प्रदान की जाएं । हिंदी के वर्तमान एवं सेवानिवृत
कर्मियों के नेतृत्व में हिंदी बुद्धिजीवियों को शामिल करते हुए पूरे देश में जिला
स्तर पर हिंदी समन्वय एवं शिकायत समितियों का गठन किया जाए । सभी कंप्यूटरों के
देवनागरी और भारतीय भाषाओं के ही कीबोर्ड खरीदे जाएं । हिंदी में काम करके देश की
तरक्की में काम करने वाली तमाम छोटी बढ़ी कंपनियों को करों में रियायत देने के
अतिरिक्त पुरस्कृत भी किया जाए । ज्यादातर बहानेबाज हिंदी को कठिन होने का रोना
रोते हैं तथा यह भी बहाना बनाते हैं कि देशी भाषाओं में विज्ञान एवं तकनीकी की पुस्तकें
उपलब्ध नहीं हैं । हिंदी का विरोध करने वालों के ध्यान में यह तथ्य लाना भी अति आवश्यक है कि
अंग्रेजी ने अपना वर्तमान स्थान कोई रातों-रात हासिल नहीं कर लिया है। इसके पीछे
वहां के विद्वानों और साहित्यकारों की कड़ी मेहनत और लगन छुपी हुई है। ज्ञातव्य हो
कि प्रिंटिंग का काम 11वीं सदी में आरंभ हो गया था किंतु अंग्रेजी में छपी किताब
1475 ई. में ही प्रकाशित हो सकी थी और वो भी अपने छपने के बीस साल बाद । मानव एक
ऐसा सामाजिक प्राणी है जो कोई भी काम बिना सीखे नहीं कर सकता । किंतु हिंदी उसे
बिना मेहनत किए ही आ जानी चाहिए, यह चक्र अनंत काल तक चलते रहने की आशंका है। इसलिए
हिंदी के सरलीकरण और वैज्ञानिक एवं तकनीकी सामग्री उपलब्ध कराने का दायित्व भारतीय
साहित्यकारों व विद्वानों को सौंपा जाए । क्योंकि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है, इसलिए
भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहित करने वालों को प्रत्येक सुविधा दी जाए । अगर इससे
बात नहीं बनती तो फिर जानबूझ कर हिंदी के रास्ते में रोड़े अटकाने का प्रयास करने
वालों के लिए दंड का प्रावधान भी भारत सरकार को करना चाहिए । यहां तक बात हिंदी
प्रेमी साहित्यकारों, विद्वानों और कर्मियों की है तो उनका मुख्य हथियार है
समन्वय, प्रेम, मित्रभाव एवं अधिक से अधिक जनसंख्या तक पहुंच । उन्हें एक बात सदा
ध्यान में रखनी होगी कि भारतीय जनसंख्या में एक प्रतिशत का हिस्सा रखने वाले शेयर
बाजार के निवेशकों को एकदम शेयर बाजार के धड़ाम से गिर जाने के बाद हुए नुकसान पर
सांत्वना देने के लिए एक के बाद एक देश के वित्तमंत्री को बयान पर बयान देने पड़े
थे और प्रधानमंत्री को निरंतर नजर रखनी पड़ी थी तो भारतीय जनसंख्या का चार प्रतिशत
अंग्रेजी पंडित तबका अगर मुसीबत में पड़ा तो उनकी सहायता के लिए कौन-कौन सामने
आएगा अंदाज लगाना कठिन नहीं । इसलिए हिंदी प्रेमियों, विद्वानों और कर्मियों से
अनुरोध है कि वे आपस में गुथ्थम-गुथ्था हुए बिना बगैर किसी हो हल्ले के पूरी मेहनत
से हिंदी की सेवा में लगे रहें और सबका साथ और सब तक पहुंच की नीति से हिंदी की
प्रगति में लगे रहें ।