इन रस्मों को इन क़समों को इन रिश्ते नातों को सुबह दो घंटे अखबार वितरण और फिर पूरे पांच घंटे मोबाइल के स्क्रीन पर नजर टिकाये आज
समाचार टाइप करता रहा। वैसे, तो अमूमन चार घंटे में अपना यह न्यूज टाइप वाला काम पूरा कर लेता हूं, परंतु आज घटनाएं अधिक रहीं । ऊपर से प्रधानमंत्री के दौरे पर भी कुछ खास तो लिखना ही था। जब तक अखबार साथ है, उसके लेखन कार्य करना ही होगा। वैसे भी बचपन से ही किसी से पिछड़ने की मेरी आदत है ही नहीं ,चाहे परिणाम कितना भी भारी पड़े मेरे
स्वास्थ्य पर ? पर अब कुछ निश्चित स्वास्थ्य को लेकर इसलिए भी रहता हूं कि हमारे
राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के ब्यूरोचीफ बड़े भाई प्रभात मिश्र जी हैं, उनके सौजन्य से शुद्ध देशी गाय का सेवन जो कर रहा हूं। सो, दोपहर के भोजन से मुक्ति मिल गई है, इन दिनों। सुबह नौ बजे अपने दरबे से निकल कर सीधे राष्ट्रीय सहारा अखबार के कार्यालय पहुंचता हूं और अपने पेपर गांडीव के लिये समाचार लेखन का कार्य कर अपरान्ह 4 बजे तक वापस अपने आशियाने में लौट आता हूं। थके शरीर को विश्राम करने की इच्छा हुई तो ठीक , नहीं तो एकांत कमरे में पुराने गीतों में पुस्तकों में खो जाना चाहता हूं। किसी के संग हंसी- ठिठोली मुझे तो बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती है अब और टेलीविजन- अखबार से कोई मतलब ही नहीं रखता । आप भी क्या समझेंगे की यह कैसा पत्रकार है,जब संचार माध्यमों के इन साधनों से दूर रहता है ? पर ऐसा नहीं है साथियों मेरी अनुभवी आंखें स्वयं में ही एक सशक्त संचार माध्यम है। वैसे, आज थकान कुछ अधिक ही महसूस कर रहा हूं,शायद भीषण उमस और बुखार का प्रभाव है। मन कुछ डूबने सा लगा था, तभी मेरे सेलफोन ने एक अच्छे दोस्त का फर्ज निभाया और रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म का यह मेरा पसंदीदा गाना, वह लेकर आया- मैं ना भूलूँगा, मैं ना भूलूँगी इन रस्मों को इन क़समों को इन रिश्ते नातों को मैं ना भूलूँगा, मैं ना भूलूँगी चलो जग को भूलें, खयालों में झूलें बहारों में डोलें, सितारों को छूलें इस गीत के सहारे मैं फिर से सुखद स्मृतियों की सैर कराने लगा। सोचता हूं कि इन रिश्तों की भी कितनी अजीब दास्तान है। प्रेम, त्याग ,समर्पण एवं वेदना ...इसकी बगिया में में भी तो तरह-तरह के फूल हैं। किसी का रंग सुर्ख है, तो कोई श्वेत ही रह जाता है। जैसे कि मेरा जीवन है ! अब तो कभी- कभी स्वयं से ही प्रश्न किया करता हूं कि क्या रिश्ते भी इंसान के जीवन में होते हैं । कैसे होते होंगे ये रिश्ते ? बड़े- बुजुर्ग तो कहते थें कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, फिर मैं इन सारे रिश्तों से दूर बहुत दूर कैसे होता चला गया। बचपन से लेकर यौवन के इस आखिरी पायदान पर जहां मैं खड़ा हूं एवं वानप्रस्थ आश्रम की तैयारी कर हा हूं। इन करीब साढ़े चार -पांच दशकों में कोई एक रिश्ता भी तो मुझे सहारा देने आगे नहीं आया। या फिर मैं ही इनसे से दूर होता चला गया ! चाहे जो भी बात रही हो,मैं हूं तो यतीम ही न। वैसे भी मुझे किसी रिश्ते में विश्वास नहीं रहा। पता नहीं वह कब अपना रंग बदल ले और सारे रस्मों- कसमों को तोड़ अजनबी बन पलायन कर जाए। बचपन का जो पहला रिश्ता मुझे कुछ -कुछ याद है, वह कोलकाता में ननीहाल का है। जहां मां- बाबा और मौसी जी मुझे प्यार दुलार मिला। कोलकाता के बड़े ही नामी कानवेंट स्कूल में उन्होंने मेरा दाखिला करवाया। मुझे जबरन पापा द्वारा अपने घर वाराणसी ले जाने के पूर्व मैं कितने दिनों तक कोलकाता में इस प्यार भरे घर- संसार में रहा मुझे बिल्कुल भी याद नहीं। जन्म सिलीगुड़ी में हुआ वह स्थान भी मेरी स्मृति में नहीं है। इसके बाद दार्जिलिंग एवं गैंगटोक में रहा कुछ महीने रहा, जैसा की मम्मी ने बताया था कि हालात सिक्किम के बिल्कुल खराब थें उनदिनों। मां- बाबा और मौसी का साथ छूट गया , वह लंच बाक्स भी टूट गया। फिर अपने ही घर बनारस में मैं सहमा - सहमा सा था मैं। मानों किसी गरीब परन्तु अनुशासित हास्टल में डाल दिया गया था। चेहरे पर कभी मुस्कान मेरे नहीं आयी वहां ,दर्जा दो से छह तक की पढ़ाई के बीच, जब तक बनारस में रहा। अनुशासन के भारी लबादे में दबा हुआ सा , परिवार के सदस्यों को छोटे भाई की तारीफ करते देख अपने बड़े होने का दर्द सीने में दबाये मन मारे अपने भाई को "खईके पान बनारस वाला छोरा गंगा किनारे वाला " उस समय के प्रचलित इस गाने पर थिरकते और परिजनों को ताली बजाते देख टुकुर- टुकुर भारी मन से ताकता रहता था। फिर भी मेरी मनोस्थिति को यहां बनारस में किसी ने नहीं समझा। तब भी कक्षा में अव्वल मैं ही रहता। इसी बीच जब कक्षा पांच में था, तो कबीरचौरा अस्पताल में हम भाइयों के हाथ में कुछ चुभा कर न जाने कैसी जांच की गयी कि मुझमें तपेदिक ( क्षयरोग) की सम्भावना जता दी गयी। तब एक तो मेरा बालमन वैसे ही किसी बड़ी बीमारी को लेकर घबड़ा रहा था, वहीं घर में डांट यह पड़ी कि हमेशा कुढ़ते रहते हो न, अब भोगो ! ऐसा नहीं कि घर पर मेरा ख्याल नहीं रखा जाता था। परंतु मुझे सदैव यही महसूस हुआ कि इस परिवार में मेरी भूमिका छोटे भाई के बाद है। शायद ननिहाल में रहना ही मेरा कसूर था। खैर यह संयोग ही था कि मम्मी- पापा का सम्बंध मां- बाबा(मेरे नाना- नानी) से फिर से सामान्य हो गया। सो, करीब 12 वर्ष की अवस्था में मैं कोलकाता आ कर वही मां का प्यारा सा मुनिया और बाबा का प्यारे बन गया। मेरी खुशियों को मानो पर ही लग गये थें । परंतु मेरे इस प्यार भरे रिश्ते पर फिर से दो ही वर्षों में किसी की नजर लग गयी। मां के निधन के बाद मैं जब बनारस लौटा, तो फिर कभी नहीं खिलखिलाकर हंसा। हां, कालिंपोंग के प्राकृतिक सौंदर्य में घर के बिखरे रिश्तों की कड़ुवाहट को भूल अवश्य गया था, इससे पहले मुजफ्फरपुर में मौसी जा का दुलार भी मिला था। लेकिन, यौवन की दहलीज पर फिर से वही दर्द मिला- एक हसरत थी की आंचल का मुझे प्यार मिले मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाजार मिले जिन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है ! सो, अब हर रिश्त से दूर इसी मुसाफिरखाने के यूं दुबके हुये हूं, ताकि फिर कोई रिश्ता जख्म बन उन घावों को हरा न कर जाए। जिस पर मैंने बड़ी मुश्किल से मरहम लगाया है। लेकिन, सच तो यह भी है कि सुख का एक द्वार बंद हो जाने पर दूसरा खुल जाता है। आश्चर्य यह है कि हम बंद द्वार को तो देखते रहते हैं, पर जो नया द्वार हमारे लिये खुला है, उसे नहीं देख पाते ! यदि मैं अपनी कहूं, तो तमाम रिश्ते टूट जाने के बावजूद मैं यहां कितने ही लोगोंं से जुड़ गया हूं। एक श्रमिक, निर्भिक, ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकार के रुप में पहचान बनी मेरी तब और अब तो कुछ स्नेहीजनों को मेरा ब्लॉग भी पसंद आ रहा है। (शशि)