मयंक का हठयोग
( लघु कथा )
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अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सुबह का दृश्य कितना आनंदित करने वाला रहा..योग तो वैसे भी मयंक को बचपन से ही प्रिय है.. और आज भी वह अपनी मनोस्थिति पर नियंत्रत के लिये हठयोगी सा आचरण कर रहा है..।
राग-रंग, प्रेम-विवाह और वासना- विलासिता से दूर हो चुके इस व्यक्ति के जीवन में पिछले कुछ महीनों में न जाने क्या परिवर्तन आया कि मन और मस्तिष्क दोनों पर से वह नियंत्रण खोता जा रहा है.. उसकी आँखोंं का नीर कहीं इस संवेदनहीन सभ्य समाज के समक्ष उसकी वेदना को उजागर न कर दे , इसलिये उसे एक हठयोग नित्य करना पड़ रहा है..वह है दूसरों के समक्ष सदैव मुस्कुराते रहना..उसने "मेरा नाम जोकर" के किरदार राजू के दर्द को स्वयं में महसूस किया है। अतः माँ की मृत्यु का समाचार मिलने पर स्टेज पर जिस तरह से उस राजू ने अपने रुदन को अभिनय से दर्शकों के लिये मनोरंजन में बदल दिया.. ठीक उसी तरह वह भी जेंटलमैनों के मध्य ठहाका लगाने का प्रयास कर रहा है..।
वह कहा गया है न..
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब , बांटी न लेंहैं कोय ।।
लेकिन शाम ढलते जैसे ही एकांत पाता है , यह हठयोगी उस मासूम बच्चे की तरह बिलखने लगता है,मानो माँ के स्नेह भरे आँचल से किसी ने उसे निष्ठुरता से विलग कर दिया हो। उसे दण्डित करने से पहले उसके कथित अपराध पर सफाई देने का एक अवसर तक नहीं दिया गया.. इस नयी वेदना की शूली पर चढ़ते हुये भी न्याय की गुहार लगाते रहा वह..।
ऐसी मनोस्थिति में उसे लगता है - " वह न मानव रहा , न दावन बन सका..न कोई उसका मित्र रहा , न वह पुनः किसी से मित्रता का अभिलाषी है..।"
वेदना, तिरस्कार, उपहास एवं ग्लानि से न जाने क्यों उसका हृदय कुछ अधिक ही रुदन कर रहा है.. वह जिस मित्रता को अपने उदास जीवन का सबसे अनमोल उपहार समझा था..वाणी मेंं आयी तनिक-सी कड़ुवाहट से उसका वह विश्वास काँच की तरह चिटक कर बिखर गया.. मानो यह "पवित्र मित्रता" कच्ची मिट्टी का खिलौना था..।
पर मयंक ऐसा तो न था कभी.. वार्तालाप के दौरान सदैव संयमित रहता था, ताकि उस विदुषी मित्र को कभी यह न लगे कि उसका संवाद अमर्यादित है। इस लक्ष्मण रेखा का उलंघन उसने मित्रता टूटने तक नहीं किया..।
किसी अपने द्वारा तोहफे में दिये गये " भूल, अपराध, पाप और गुनाह " जैसे कठोर शब्द जो उसके कोमल मन को छलनी कर देते थें , उसे भी सिर झुका सहन कर लेता था ..फिर न जाने वह क्यों व्याकुल हो गया उस दिन कि उसकी भाषा भी थोड़ी कड़वी हो गयी थी.. परिणाम इस तन्हाई में इन आँसुओं के सिवा और कोई दोस्त उसके साथ न रहा..।
व्यथित हृदय के घाव को भरने का उसका " हठयोग " निर्रथक दिख रहा है.. मन ऐसा डूबा जा रहा है कि मानो अवसाद उसके जीवन के अस्त होने का संदेश लेकर आया हो..ऐसे में वह अपने व्यर्थ जीवन का क्या मूल्यांकन करे.. ? उसकी निश्छलता और निस्वार्थता का कोई मोल न रहा, सरल और निर्मल मन का होकर भी वह कभी भी स्त्री के हृदय को जीत न सका..उसके निर्मल आँसुओं का उपहास हुआ और वह अपना आत्म सम्मान खो बैठा है..जीवन भर स्नेह लुटा कर भी वह अपने हृदय को दुखाता रह गया..।
उसने कभी कल्पना भी न की थी कि उसके जीवन में आया वह मधुर क्षण उसे उस अवसाद के दलदल में ले जाएगा..जहाँ न कोई " योग "और न यह " हटयोग " काम आएगा ..!
जीवन की यह कैसी विडंबना है कि वह जिस विदुषी मित्र में अपनी माँ की छाया ढ़ूंढता रहा, उसी देवी को उसके उस पवित्र स्नेह पर एक दिन न जाने क्यों संदेह हो गया.. ?
और उसके वह कठोर शब्द - " कौन हूँ मैं आपकी..प्रेमिका समझ रखा है.. ? फिर कभी मैसेज या फोन नहीं करना..। "
मानो वज्राघात सा हुआ मयंक पर और फिर इस आत्मग्लानि से मयंक कभी बाहर नहीं निकल पाया.. उसकी जीवन ज्योति मंद पड़ती जा रही है..।
वह इस कड़वे संवाद को जीवन की पाठशाला में मिला एक सबक समझ , उस पथ पर बढ़ना चाहता है, जो उसे गुरु ने दिखलाया था..किन्तु यह प्रश्न पीछा नहीं छोड़ रहा है कि उसका अपराध क्या था.. ।
उस विदुषी ने न तो उसे स्पष्टीकरण का अवसर दिया , न ही स्वयं खेद व्यक्त किया..वह तो शीर्ष पर है और उसकी ख़िदमत में ताली बजाने वालों की भला कहाँ कमी है..।
मयंक का विश्वास इस सभ्य समाज से टूट चुका है, फिर भी दुनिया के इस सर्कस में विदूषकों सा उसे कभी मुस्कुराना तो कभी ठहाका लगाना है..यही उसका " प्रायश्चित " है और यही उसका "हठयोग" भी..।
दर्शक दीर्घा मेंं उसके जो मित्र बैठे हैं..वे सभी उसके अभिनय पर " वाह- वाह " कर अपने महफ़िल में ताली बजा रहे हैं..उसकी मित्रता का उपहास कर रहे हैं ..
उसे लगता है कि दुनिया के इस रंगमंच पर यह " हठयोग " ताउम्र उसे करना है.. !
यही उसकी नियति है..
जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ.. !!!
तभी उसे गुरु की वाणी उसे सुनाई पड़ती है...
कुछ लेना ना देना मगन रहना |
पांच तत्व का बना है पिंजरा,
भीतर बोल रही मैना |
तेरा पिया तेरे घाट मै बसत है,
देखो री सखी खोल नैना |
गहरी नदिया नाव पुरानी,
केवटिया से मिल रहना |
कहत कबीर सुनो भई साधो,
प्रभु के चरण लिपट रहना...
अतः उसे बोध होता है कि रुदन नहीं अब तो घुंघट के पट खोलने की बारी है..।
-व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला )