पथिक! काहे न धीर धरे( जीवन की पाठशाला )
----आत्म उद्बोधन----
ज़िदगी में ग़म है
ग़मों में दर्द है
दर्द में मज़ा है
मज़े में हम है..
वर्ष 2019 का समापन मैं कुछ इसी तरह के अध्यात्मिक चिंतन संग कर रहा हूँ , परंतु ऐसा भी नहीं है कि इस ज्ञानसूत्र से मेरा हृदय आलोकित हो उठा है। असत्य बोल कर क्यों कथनी और करनी का भेद करूँ। यथार्थ और आदर्श में सामंजस्य होना चाहिए।
वस्तुतः जिस होटल में मेरा ठिकाना है , वर्ष के अंत में यहाँ तीन दिवसीय ध्यान शिविर लगता है। जिसे " मनस पूजा " कहा जाता है। इस उपासना पद्यति में साधक ध्यान के माध्यम से अपने ईष्ट को हृदय में धारण करने का प्रयत्न करता है। हर वर्ष इसी तरह के कड़ाके की ठंड में विभिन्न जनपदों से इनका आगमन होता है। इनके लिए गुरु की सत्ता यहाँ सर्वोपरि है।यथा-
ऐसे गुरु पर सब कुछ वारु।
गुरु ना तजूं हरि तज डारु।।
यहाँ मैं यह देख रहा हूँ कि इनकी संख्या में निरंतर कमी होती जा रही है, क्योंकि वृद्ध साधकों की मृत्यु के पश्चात युवापीढ़ी इस रिक्तता को भरने में असमर्थ है।
इस भौतिक युग में युवाओं को नीरसता पसंद नहीं है, उन्हें तो तनिक मनोरंजन चाहिए, भले ही पूजापाठ ही क्यों न हो। अब तो शवयात्रा में भी सेल्फी एक्सपर्ट सक्रिय रहते हैं।
वैसे भी मनुष्य आदिकाल से पशुपक्षियों तक को ही नहीं स्वयं मानव को भी अपने मनोरंजन का साधन समझते रहा है।
और फिर जब ऐसे सजीव खिलौने से मन भर जाता है,तब वह उसके निर्मल, निश्छल एवं निःस्वार्थ स्नेह का कभी उपहास करता है और कभी तिरस्कार । उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसकी ऐसी निष्ठुरता किसी संवेदनशील व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक पीड़ा में वृद्धि कर सकती है।
पर हाँ,मानव को ऐसी ही किसी वेदना के पश्चात सत्य का बोध होता है और अध्यात्म के चौखट पर पथिक दस्तक दे पाता है। वेदना में वह शक्ति है जो दृष्टि देती है।
कुछ लोगों की आदत होती है- " वे मीठी-मीठी बात बोलते, दोस्ती करते एवं सुनहरे सपने दिखाते हैं। इंसान उनकी मृदुता में चतुराई को बहुत बादमें समझ पाता है।"
फिर भी यह घाटे का सौदा नहीं ,क्योंकि हमें दुनियादारी का ज्ञान होना चाहिए।
मुझे ऐसा विश्वास है कि दूसरों को अपने मनोविनोद का साधनमात्र समझने वाला व्यक्ति चाहे जितना भी चतुर हो, उसके द्वारा किये गये छल और कपट पर से आवरण न भी हटे ,तो भी ये एक दिन उसे आत्मग्लानि के उस अंधकूप में डुबो देंगे, जिससे बाहर निकलना उसके लिए आसान नहीं होता है।
उसके छल से पीड़ित मनुष्य बद्दुआ न दे ,तबभी हर क्रिया की प्रतिक्रिया तय है । यह प्रकृति का शाश्वत नियम है।
भौतिक चकाचौंध से प्रभावित अनेक व्यक्ति ऐसा नहीं भी मानते हैं,परंतु धैर्य धारणकर निहित स्वार्थ के लिए दूसरों को कष्ट देने वाले प्रपंची लोगों और उनके परिजनों पर आप लम्बे समय तक दृष्टि जमाएँ रखें, हमारे हर प्रश्नों के उत्तर मिलने लगेंगे , अन्यथा संत कबीर यह नहीं कहते-
“दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय |
बिना साँस की चाम से, लौह भसम होई जाय ||”
मैंने एक दिन दर्प से अकड़ी एक मिश्री की डली को समीप पड़े एक उपेक्षित पत्थर के टुकड़े से यह कहते हुये सुना - " अरे तुझसे मेरी कैसी मित्रता ! देखता नहींं कितना आकर्षण है मुझमें - तभी तो मेरे इर्द-गिर्द इतने चींटे मंडरा रहे हैं -और तुम ठहरे पाषाण - रास्ते के ठोकर बने पड़े हो - आज से हमारी- तुम्हारी दोस्ती हुई समाप्त । "
मिश्री की डली के इस तिरस्कार भरे स्वर के प्रतिउत्तर में बेचारे पत्थर ने किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। हाँ, पाषाण होकर भी उसका हृदय भर आया ,यद्यपि उसने इसे अपना प्रारब्ध समझ संतोष कर लिया , क्यों कि विभिन्न प्राणियों के पांव तले वह पहले से ही कुचला जाता रहा है।
और फिर एक दिन मैंने देख - वहीं पाषाण पथप्रदर्शक यानी कि मील का पत्थर बना सड़क किनारे खड़ा है। भटके हुये यात्रियों को वह राह दिखला रहा है । तिरस्कृत होना उसके लिए उपहार बन गया ।
उधर , उसके पास पड़ी मिश्री की वह डली दिखाई नहीं पड़ी । मैंने सोचा कि सम्भव है कि उसे और भी ऊँचा ओहदा मिल गया हो, वह किसी सिंहासन पर विराजमान हो,दरबारियों से घिरी हो, मेरी दृष्टि उसतक नहीं पहुँच पा रही हो । इसी उत्सुकतावश मैंने जब उसकी खोज-खबर ली, तो दुखद समाचार यह मिला कि जिन चींटों पर मिश्री की डली को बड़ा गुमान था,उन्होंने ही उसका भक्षण कर लिया है।
हाँ, अस्तित्व खोने से पूर्व उसे यह पश्चाताप अवश्य रहा कि जिसे उसने पाषाण कहा , जिसके संग मैत्री से उसे कोई खतरा न था, उसे वह समझ नहीं सकी और वहीं ये चींटे.. ?
मैं समझ गया कि हमें परिस्थितियों का निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिए- सीखने केलिए,जानने केलिए, दुनिया को समझने केलिए, इस प्रक्रिया से गुजरकर एक दिन निश्चित ही आनंद मिलेगा,ऐसा विश्वास हृदय में रखना चाहिए।
साथ ही हमें यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि अनिश्चित मनः स्थिति मनुष्य के मानसिक,चारित्रिक ,सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास में बड़ी घात सिद्ध होती है। इससे आत्मविश्वास का ह्रास होता है।
अतः हे हृदय ! तू अपने निश्चय पर अटल क्यों नहीं रहता। तेरा मेला पीछे छूट चुका है और अब कोई झमेला नहीं है । समझ न बंधु ! जीवन का सबसे बड़ा सत्य है अपूर्णता और यह भी सुन ले तू, इस अधूरेपन का सदुपयोग ही जीवन की सबसे बड़ी कला है। तुझे पता है न कि सारे दर्द मनुष्य अकेले ही भोगता है।
और हाँ, सर्वव्यापित होकर भी ईश्वर अकेला ही है।
- व्याकुल पथिक