दुनिया सुने इन खामोश कराहों को..
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असली तस्वीर तो अपने शहर के भद्रजनों की इस कालोनी का यह चौकीदार है और उसके सिर ढकने के लिये प्रवेश द्वार पर बना छोटा सा यह छाजन है, जहाँ एक कुर्सी है और शयन के लिये पत्थर का पटिया है।
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इस समूह में
इन अनगिनत अनचीन्ही आवाजों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता!
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा - दुष्यंत कुमार
भैया, इस ठंड में पूरी रात ठिठुरते हुये चौकीदारी अब न होगी मुझसे, ऐसा लगता है कि प्राण ही निकल जाएगा, जब सर्द हवाएँ , सीधे हमला करती हैं आधी रात को..।
उस दुर्बल काय बुजुर्ग चौकी की यह वेदना छोटी दीपावली की भोर में मेरे हृदय को चुभन दे गयी थी। भद्रजनों की कालोनी थी यह, लेकिन इस पहरूए की यह पीड़ा, उसका यह मौन चीत्कार किसी को नहीं सुनाई पड़ रही थी।
सुबह के पौने पाँच बजे थें। मुझे भी ठंड लग रही थी, जब अखबार लेकर निकला था। जैसे ही भद्रजनों के इस कालोनी के पास पहुँचा और बड़ा वाला लोहे का फाटक खोला, पुराने चादर में लिपटा यह चौकीदार उस दिन असहज लग रहा था। मैंने पूछ ही लिया कि ठंड लग रही है न भाई..? मुझे कुछ बुखार सा था उस दिन और साढ़े चार बजे सुबह चौराहे पर जीप की प्रतीक्षा में खड़े रहना और फिर दो घंटे साइकिल चलाने की स्थिति में था नहींं। अतः मैं समझ सकता था इस चौकीदार का दर्द..।
विडंबना यह है कि इसी कालोनी में बड़े डाक्टर और मनी पावर रखने वाले जेंटलमैन रहते हैं। अमीरों की कालोनी है मित्रों...। बड़ी- बड़ी अट्टालिकाएँ देख लगता है कि सचमुच यह मीरजापुर तो सच में अपने नाम के अनुरूप साक्षात लक्ष्मी की नगरी है। पर कृत्रित प्रकाश से जगमगा रही इन निर्जीव बंगलों को देख इस मुगालते में न रहें आप कि यहाँ की बदहाली, बेरोजगारी और बेगारी दूर हो गयी है। असली तस्वीर तो अपने शहर की इसी कालोनी का यह चौकीदार है और उसके सिर ढकने के लिये प्रवेश द्वार पर बना छोटा सा यह छाजन है, जहाँ एक कुर्सी है और शयन के लिये पत्थर का पटिया ..। एक पर्दे तक की व्यवस्था नहीं है यहाँ कि वह इन सर्द हवाओं को अपने दुर्बल शरीर की सूखी हड्डियों में प्रवेश करने से रोक सके । इन भद्रजनों के पास तो अनेक गर्म वस्त्र होगें ही , रिजेक्ट माल ही दे दिये होते इस चौकीदार को , तो भी इस बेचारे (कर्मपथ पर चलने वालों के लिये इस अर्थयुग में प्रयुक्त सम्बोधन है यह शब्द ) का काम चल जाता। लेकिन, लगता है कि मेरी ही तरह इस चौकीदार को भी इन भद्रजनों को हाकिम- हुजूर और साहब कह हाथ पसारन नहीं आता है जो...। मुझे तो फिर भी पत्रकार होने के कारण कुछ सुविधा मिल जाती है, कुछ लेखनी के प्रभाव से और कुछ स्नेहवश भी यह समाज मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति समय- समय पर करता ही रहता है। परंतु अन्य श्रमिक अपने कर्मपथ पर चल कर भी कर्मफल कभी नहीं प्राप्त कर पाते हैं। नियति उन्हें उजाले का दीदार करा पाने में असमर्थ है, बढ़ती अवस्था के साथ ही उनकी रातें और स्याह होती जाती हैं।
दरअसल, इस चौकीदार से प्रतिदिन दुआ - सलाम होता है मेरा। मुझे देख वह स्वयं फाटक खोल देता है, जबकि उसे नहींं मालूम है कि मैं पत्रकार हूँ। मैं बताना भी नहीं चाहता, इससे हम- दोनों के बीच खुलकर बातें न होतीं फिर इस तरह से। तब वह मुझे इन भद्रजनों का हिमायती जो समझने लगता। इसी कालोनी में एक बड़ा सा बंगला है। अभी निर्माण कार्य चल ही रहा है। उसमें दो बड़े- बड़े कुत्ते भी हैं। जो कभी इस कालोनी के गलियारे छुट्टा सांड़ की तरह धमाचौकड़ी मचाये रहते हैं। ऐसे में मैं इसी चौकीदार को ही अखबार थमा आता था । सोचता हूँ , इन भद्रजनों को क्या कहूँ , कुत्ते के लिये तो मांस, अंडा, दूध और हर सुख-सुविधा की व्यवस्था है। लेकिन जो शख्स पूरी रात आपके घर- प्रतिष्ठान की सुरक्षा कर रहा है, उसे ठंड में ठिठुरने के लिये विवश किया जा रहा है। अपना घर परिवार छोड़ पापी पेट के सवाल पर कहाँ- कहाँ से किस -किस प्रान्त से ये चौकीदार आते हैं। उनकी दीपावली कहाँ मन पाती है। इस दर्द का तनिक भी एहसास इस सभ्य समाज को क्यों नहीं है। वह सरकार जो बड़ी-बड़ी बातें करती है, कम से कम ठंड में इन चौकीदारों को ऊनी वस्त्र ही दे देती। सरकारी कर्मचारियों का वेतन चाहे कितना भी हो जाए , फिर भी उनकी मांगें सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती जाती हैं ।वहीं, वह आम आदमी जो इन रहनुमाओं का भाग्य विधाता है, उसे सत्तासीन लोग फिर से अंगूठा दिखला देते हैं। वायदा कर नाउम्मीद करना, यह सियासी मर्ज दिनोंं दिन बढ़ता ही जा रहा है। अपने सलीम भाई इराक के एक बादशाह का किस्सा सुनाते हैं। बादशाह एक शाम महल में दाखिल हो रहा था , पहरेदार को ठंड से ठिठुरते देख उसने कहा कि अभी गर्म वस्त्र भेज रहा हूँ, पर बादशाह अपना वायदा भूल गया। अगले दिन सुबह पहरेदार मृत पड़ा था और जमीन पर उसने लिख छोड़ा था कि हुजूर पूरी जिंदगी इसी वर्दी में ठंड काट दी, पर कल शाम आपने आश दिलाई, आज सुबह होते-होते आपकी आश क्या टूटी , यह जिंदगी मुझसे रुठ गयी..।
आश यानी की चुनावी वादाखिलाफी का एहसास कब होगा हमारे महान राजनेताओं को। पिछले लोकसभा चुनाव में कितनी उम्मीद थी आम जन को कि उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी, परंतु बेरोजगारी का दर्द और बढ़ गया है।
वहीं , विपक्ष मुद्दों की राजनीति करने की जगह रट्टू तोते की तरह काव्य पाठ कर रहा है..
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए ..
अब तो इंकलाब जिंदाबाद कहने वालों को आइने में पहले खुद को निहार लेना चाहिए।
.खैर , ऐसे पर्वों पर मेरा ऐसा कोई अपना करीब नहीं होता है, जिसने उस शाम मुझे भोजन के लिये पुकारा होता, न ही अब मेरा कोई सपना है। कुछ दिन पूर्व तक मैं वरिष्ठ लेखकों के ब्लॉग पर चला भी जाया करता था कि वहाँ से लेखन ज्ञान अर्जित कर लूं। किन्हीं परिस्थितियों से फिलहाल ऐसा भी नहीं कर पा रहा हूँ। फिर भी रेणु दी , श्वेता जी सहित अन्य रचनाकारों और शब्द नगरी परिवार का आभारी हूँ, जिनकी प्रतिक्रिया,मार्गदर्शन, सहयोग और प्रोत्साहन मुझे प्राप्त होता रहता है। वैसे ,व्हाट्सएप पर भी कुछ शुभचिंतक हैं न मेरे। हाँ, आज भैयादूज पर्व पर रेणु दी ने मेरे सेलफोन पर पहली बार कॉल कर मुझे सरप्राइज गिफ्ट दिया है। मुझे कल रात से ही बुखार है, फिर भी इस आभासी दुनिया का बहुमूल्य उपाहार पाकर हर्षित हूँ। ब्लॉग पर मेरी जो भी थोड़ी बहुत पहचान है,वह सब दी के मार्गदर्शन में ही प्राप्त हुआ है।
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