बाधाएं आती हैं आएं, कदम मिलाकर चलना है **************** अटल जी ऐसे राजनेता रहें , जिनका कर्मपथ अनुकरणीय है। उनके सम्वाद में कभी भी उन्माद की झलक नहीं दिखी ***************************
राजनीति की यह दुनिया जहां मित्र कम शत्रु अधिक हैं । उसमें ऐसा भी एक मानव जन्म लेगा, जिसके निधन पर हर कोई नतमस्तक है। यह भी एक आश्चर्य से कम नहीं है । क्यों कि उसने इंसान को इंसान बनना सिखलाया है- " पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी ऊंचा दिखाई देता है। जड़ में खड़ा आदमी नीचा दिखाई देता है। आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है, न बड़ा होता है, न छोटा होता है। आदमी सिर्फ आदमी होता है। " यह उस शख्स की
कविता की पंक्तियां हैं ,जो अब हमारे बीच नहीं रहा। लेकिन, इस जहां से कूच करने से पहले उसने उसने अपने - पराये सभी का दिल जीता था। वह एक आदमी से ऊपर उठ कर महामानव बना था। जब वह
भारत का प्रधानमंत्री बना था।
देश की जनता को उस पर विश्वास था कि उसकी नाव (राष्ट्र) कुशल खेवनहार के हाथों सुरक्षित है। जिसके हृदय एवं वाणी में जाति-
धर्म की बू नहीं हैं। वह नाविक जो निःसंकोच यह उद्घोष करता हो - "
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। " अतः यह सत्य है कि राजनीति के पटल पर अजातशत्रु कहलाने वाले भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसा व्यक्तित्व विरले ही किसी को प्राप्त होता है इस जगत में। मेरे पिताजी जिन्हें राजनीति में कोई रुचि नहीं थी, यदि बनारस में अटल जी की जनसभा होती थी, तो उनका प्रयास रहता था कि वे भी
अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएं। यहां बात उस समय की है , जब जनसामान्य के घरों में टेलीविजन नहीं हुआ करता था। मुझे स्वयं अटल जी के बाद किसी अन्य राजनेता का भाषण सुनने में कोई रुचि नहीं है। लेकिन पत्रकार जो हूं, इसलिये बड़े राजनेताओं की जनसभा में
समाचार संकलन के लिये तो जाना ही पड़ेगा। यदि कथनी एवं करनी में फर्क हो तो फिर भला ऐसे राजनेताओं की बातों को सुनने में क्यों अपना समय व्यर्थ किया जाए। टेलीविजन पर ऐसे डिबेट कार्यक्रम मुझे तनिक भी पसंद नहीं है। यहां मछली बाजार जैसा दृश्य और शोर है। सो, टेलीविजन नहीं देखने के कारण भले ही देश - दुनिया के समाचार मेरे पास विलंब से पहुंचते हो। फिर भी झूठ की इस सियासी दुनिया से बच के निकल ले रहा हूं, यह क्या कम है। जहां तक मेरा मानना है कि यह ठीक है कि हर कोई महान नहीं बन सकता है,पर वह इंसान निश्चित ही बन सकता है। अपने मोहल्ले एवं गली का लाल तो कहला ही सकता है। हां, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी एक आदर्श ( पुरुष / स्त्री ) को दर्पण की तरह अपने सामने रखना होगा। ताकि जब भी हमारा अहंकार जागृत हो, किसी उलझन का सामना करना पड़े, चकाचौंध भरे इस जगत और जुगाड़ तंत्र के प्रति आसक्ति का भाव उत्पन्न हो, तब हम अपने विचलित मन को सावधान कर सके। जैसे मैं करता हूं , जब कभी मेरे मन में यह भाव आता है कि क्यों यह सादगी भरा जीवन व्यतीत कर रहा हूं। पहचान वाला पत्रकार हूं , इसीलिये सामने इस कलयुग का स्वर्ण कलश है। जुगाड़ मेरा भी कोई कम नहीं है, फिर भी सादगी की प्रतिमूर्ति बनने में जुटा हूं ? इस समाज के उपहास से , या फिर षड़यंत्र के मकड़जाल जाल से जब मन अत्यधिक वेदना से भर उठता है। तो पांव स्वतः ही उसी दलदल के समीप जाने को मचलते हैं। जिसमें ढ़ेरों लोग पहले से ही फंसे हैं। ऐसे में किसी महामानव की वाणी गूंजती है कानों में- " जन्म-मरण का अविरत फेरा, जीवन बंजारों का डेरा, आज यहां, कल कहां कूच है, कौन जानता, किधर सवेरा " हर एक शब्द का अपना अर्थ है। सो, पथिक चौक उठता है, जीवन के सत्य का उसे अहसास होता है और व्याकुलता का हरण होता है। मैं ईश्वर को नमन करूँ ना करूँ ? पर गांधी और शास्त्री जी की सादगी के समक्ष अपने इस अभिमानी शीश को निश्चित ही झुकाता हूं। उसे बताता हूं कि तुम्हारा हर त्याग इनके समक्ष तुक्ष्य है। इसलिए कहना चाहता हूं मित्रों , भाइयों और बहनों कि यदि आप राजनीति के गलियारों से निकल कर सत्ता के चौखट पर पहुंच गये हो। तो " अटल " बनो। एक कुशल बाजीगर भी मजमा जरूर लगा सकता है। वह जनता को भरमा कर सत्ता का ताज पहन सकता है। पर पर्दे का राज बाहर आने का भय उसे सदैव ही बना रहता है। इसलिये वह जुमलेबाजी करता है , मनमानी करता है और जनता से ताली बजवाते रहता है। लेकिन जब भी एक सच्ची और अच्छी कविता के इन शब्दों- " टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते सत्य का संघर्ष सत्ता से न्याय लड़ता निरंकुशता से अंधेरे ने दी चुनौती है " से उसका जुमला टकराता है। तो फिर सारा स्वांग वहीं स्वाहा हो जाता है। एक बाजीगर एक तानाशाह चाहे,जितनी भी ऊंचाई पर पहुंच जाएं , फिर भी मृत्यु के पश्चात वह अटल तो नहीं ही हो सकता है। तब उसका कूटजाल टूट चुका होता है, फिर कब्र में अकेले वह पड़ा होता है। वहीं , राजनीति के काजल की कोठरी में भी जो बेदाग ही रहता है, वहीं तो "अटल " होता है। उसमें ही मृत्यु को ललकारने का सामर्थ्य है- " मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? " जब तीसरी बार गठबंधन वाली उनकी सरकार बनी, तो प्रतिपक्ष ने पुनःउपहास किया था। लेकिन उस बार कुछ ऐसे डटे रहे " अटल " कि फिर कोई यह नहीं कहता है तभी से किसी से कि गठबंधन की सरकार टिकाऊ नहीं होती है। उनकी यह गर्जना- " अंगद ने बढ़ाया चरण प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार समर्पण की माँग अस्वीकार दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते " आखिरकार सार्थक हुई। उनके कार्यालय की स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना एक मिसाल है। लेकिन दुर्भाग्य देखें की कि अब तो चहुंओर नई सड़क गड्ढ़े वाली का शोर है। भ्रष्ट तंत्र की भुलभुलैया में ईमान राह भटक रहा है। स्थिति कुछ ऐसी हो गयी है अब - " बिना कृष्ण के, आज महाभारत होना है, कोई राजा बने, रंक को तो रोना है| " स्थिति चाहे जैसी भी हो, पर याद रखें कि हैं तो हम माटी के पुतले ही। एक समय ऐसा भी आता है, जब शरीर साथ छोड़ने को होता है, हम अपनी ही पहचान भूलने लगते हैं। तब हमारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व हमारी पहचान कराता है। हमारे क्षणभंगुर जीवन को चिरंजीवी बनाता है।( शशि)