ओ दूर के मुसाफ़िर हम को भी साथ ले ले रे
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मैं छोटी- छोटी उन खुशियों का जिक्र ब्लॉग पर करना चाहता हूँ, उन संघर्षों को लिखना चाहता हूँ, उन सम्वेदनाओं को उठाना चाहता हूँ, उन भावनाओं को जगाना चाहता हूँ, जिससे हमारा परिवार और हमारा समाज खुशहाली की ओर बढ़े ।
बिना धागा, बिना माला इन बिखरे मोतियों की क्या उपयोगिता है। मैं अपने इस लम्बे एकाकी जीवन में क्या खोया ,क्या पाया और क्या सीखा इसकी चर्चा
निःसंकोच ब्लॉग पर करता हूँ ..
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दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाए
फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना
ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना
ये घाट तू ये बाट कहीं भूल न जाना ...
यह गीत मुझे तब से पसंद है , जब एक-एक कर प्रियजन मुझे छोड़ ना जाने कहाँ चले गये। माँ , बाबा और फिर दादी भी ... और भी जो बाद में अपनों जैसे लगे वे भी तो छल गये मुझे ...
इन्हीं की स्मृतियों में नेत्रों में आयी नमी को छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहा था , तभी स्मरण हो आया कि धर्म-
अध्यात्म में रुचि रखने वाले बड़े भैया सलिल पांडेय जी ने इस पितृ पक्ष माह को लेकर अभी पिछले दिनों ही बातों ही बातों में टोका था मुझे कि तुम कुछ नहींं लिख रहे हो अपने ब्लॉग पर.. ? देखों तो अपने पूर्वजों के संग भी किस तरह से दिखावट , बनावट और मिलावट कर रहे हैं , उनके ये कतिपय कलयुगी संतान.. कोई गया ( पिण्डदान स्थल) के लिये दौड़ लगा रहा है, तो कोई अन्य तरीका अपना रहा है , ताकि समाज की नजरों में वह श्रवण कुमार बन सके । शायद ये जनाब यह भूल गये कि श्रवण कुमार तो अपने जीवित माता- पिता को लेकर तीर्थ यात्रा पर निकले थें। परंतु ये सभी उनकी मृत्यु के बाद गया में उन्हें मोक्ष दिलाने जा रहे हैं। इन लोगों से जरा यह पूछ ले कि वृद्ध माँ - बाप को , उनके जीवित रहते चार न सही एक भी धाम की यात्रा करवायी थी क्या कभी ..? फिर उनकी मृत्यु के पश्चात मोक्षधाम में जाने को लेकर यह उतावलापन क्यों है मेरे भाई ..? इतना नाटक - नौटंकी क्यों कर रहे हो आप.. प्यारे यह पब्लिक है, सब जानती है कि आप अंदर से कितने काले हो या गोरे...
वैसे सच कहूँ तो पितृपक्ष पर मेरी भी इच्छा रही कि कुछ लिखूँ, परंतु मैं अपने परिवार के किसी भी सदस्य के लिये एक योग्य संतान जब स्वयं को साबित ही न कर पाया, तो क्या लिखूँ ..?
वैसे भी मेरा यह पूरा प्रयास है कि ब्लॉग पर मैं कुछ भी असत्य नहीं लिखूँ। यह ब्लॉग मेरे लिये अब तक के जीवन काल में एक पवित्र पुस्तक से अधिक महत्व रखता है। इस पर असत्य लेखन करना मैं महापाप से कम नहींं समझता हूँ। यहाँ किसी भी प्रकार की कृत्रिमता मुझे बर्दाश्त नहीं है। चाहे भले ही उसे पढ़ लोग व्याकुल पथिक समझे या फिर संत या ढ़ोंगी , वे मेरा उपहास करे या फिर मुझे गंभीरता से ले , मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता , क्यों कि जिस जगह में खड़ा हूँ, बंधुओं वह अब दलदली भूमि नहीं कठोर चट्टान है। यहाँ से मेरे पांव डगमगाने वाले नहीं है, मन चाहे कितने ही जख्मों को सहता क्यों न करता रहे और राह में मिलने वाले मुझे चंद दिनों में बेगाना समझ लें। ऐसा होना भी स्वभाविक ही है , जब आप अपने परिवार के नहीं हो सके, तो गैर क्यों आप पर विश्वास कर ले.. ? हाँ ,वह आपके साथ टाइम पास जरुर कर सकता है , पर यह उस परिवार का सुख तो नहीं है न, जिन्हें इस माह वियोग होने पर हम बड़े आदर भाव से याद करते हैं। इसलिये उतावलेपन में परिवार का त्याग करने से पूर्व इस पर गम्भीर से विचार कर लें कि आपकों कैसा जीवन चाहिए ...
मेरी तरह घुटन भरा या फिर अपनों संग वह स्वाभाविक हँसी-ठिठोली । मित्रों , जब आपका परिवार है, तभी कोई व्याकुल होगा कि सुबह - शाम आपने क्या भोजन किया, बाहर हैं तो फोन पर संदेशा आएगा , नहीं तो मेरा हाल सुन ले कि सुबह जो थोड़ा सा दलिया खा कर निकलता हूँ , तो रात 10 बजे के बाद ही जा कर रोटी की व्यवस्था हो पाती है। मेरे भोजन ग्रहण करने न करने से किसी को क्या फर्क पड़ेगा। इसे लेकर बेचैनी तो आपकी माँ या पत्नी को ही होती है। शेष जो भी सम्बंध हैं,इस समाज में उसमें आपके प्रति वह तड़प निश्चित ही नहीं दिखेगी, क्यों कि उसका भी अपना परिवार है, फिर हम उसकी प्राथमिकता की सूची मैं कैसे आएँगें।
जो नौजवान गुमराह हो घर छोड़ दे रहे हैं ,उनके लिये कह रहा हूँ यह सब ... कितनी ही बार अवसाद की स्थिति में इस एकाकी जीवन को समाप्त करने की इच्छा हुई, परंतु नहीं किया। अभी तो समय के उस चक्र को पूरा करना है और अपनों की जुदाई को अभी कुछ यूं ही सहना है-
तू ख़यालों में मेरी अब भी चली आती है
अपनी पलकों पे उन अश्कों का जनाज़ा लेकर
तूने नींदें करीं क़ुरबान मेरी राहों में
मैं नशे में रहा औरों का सहारा लेकर
ग़म उठाने के लिये मैं तो जिये जाऊँगा ..
अभिभावकों के कितने ही अरमानों को मैंने परोक्ष रुप से ध्वस्त किया। चाहे वह मेरी विवशता ही क्यों न रही हो। कोलकाता(ननीहाल) में मिले दुलार और फिर बनारस(घर) के अति अनुशासन ने मुझे बेघर कर दिया हो। आज उसी का परिणाम है कि मैं एक मुसाफिरखाने में पड़ा हूँ। फिर क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ पितृपक्ष पर .. नौटंकी मुझे पसंद बिल्कुल भी नहीं है।
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है -
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।
इसे मैंने अपने ब्लॉग लेखन का पैमाना मान लिया है। एक बात और मैं छोटी- छोटी उन खुशियों का जिक्र ब्लॉग पर करना चाहता हूँ, उन संघर्षों को लिखना चाहता हूँ, उन सम्वेदनाओं को उठाना चाहता हूँ, उन भावनाओं को जगाना चाहता हूँ, जिससे हमारा परिवार और हमारा समाज खुशहाली की ओर बढ़े । बिना धागा, बिना माला इन बिखरे मोतियों की क्या उपयोगिता है। मैं अपने इस लम्बे एकाकी जीवन में क्या खोया ,क्या पाया और क्या सीखा इसका जिक्र निःसंकोच ब्लॉग पर करता हूँ । वैसे एक पत्रकार के रुप में तो मेरी रुचि राजनीति और अपराध जगत से जुड़ी खबरों में अधिक रहती है , फिर भी ब्लॉग को मैंने इससे दूर ही रखा हूँ।
हाँ , अपने पूर्वजों को लेकर बचपन का एक - दो संस्मरण है मेरे पास । जब मैं छोटा था, तो चित्रकला में रुचि थी मेरी। तब मैंने अपने दादा जी का चित्र बनाया था। जो घर पर सभी सदस्यों को पसंद आया था और एक याद बचपन की है। पितृपक्ष पर एक छोटी सी पोटली में भोजन सामग्री बांध उसके साथ एक बांस की छोटी सी छड़ी घर के बाहर दरवाजे पर रखी जाती थी । हम बच्चों से बताया जाता था कि रात में दादा जी इसे ले जाएँगें। अगले दिन सुबह होते ही हम दरवाजे की ओर भागते थें। पोटली और छड़ी खोजते थें, पर वह मिलती कहाँ थी। तब हम बहुत खुश होते थें कि दादा जी ले गये उसे। सच तो यही था कि चूहा उसे खींच ले जाता होगा , फिर भी हम बच्चों को अपने पूर्वजों से भावात्मक रुप से जोड़ने का यह सहज माध्यम था। आज के बच्चों में ऐसा आत्मीय लगाव क्यों नहींं ला पा रहे हैं हम ..? इस पर भी विचार करें हम ।
सम्वेदनाओं की यही कमी , हमें अवसाद की ओर ले जा रही है। परिवार बिखर जा रहा है, हम टूट जा रहे हैं । इन्हीं सब विषयों पर यहाँ ब्लॉग पर मैं अपने आप से बात करता हूँ, अंतःकरण में दृष्टि डालता हूँ। मुझे लगता है कि अवचेतन मन हमें लगातार संकेत देता रहता है, हम उसे भले न समझ पा रहे हो। बाबा थें ,तो माँ की लम्बी बीमारियों के बावजूद जब भी उनका चित्त प्रसन्न रहता था । उनका पसंदीदा गीत था..
जब प्यार किया तो डरना क्या
प्यार किया कोई चोरी नहीं की
प्यार किया कोई चोरी नहीं की
छुप छुप आहें भरना क्या ...
यह गीत एक दिन सत्य हो गया, उनकी मृत्यु कोलकाता में कब-कहाँ हुई, किस दिन हुई , मुझे कुछ भी पता नहीं। बस इतना पता है कि परिवार का कोई सदस्य वहाँ नहीं था। इस पितृपक्ष में सबसे अधिक मन उन्हीं को लेकर व्याकुल है। माँ का अंतिम संस्कार तो उन्होंने पूरी भव्यता के साथ किया था, परंतु स्वयं अनाथ सा चले गये। दादी घर के एक छोटे से कमरे में बीमार पड़ी रहीं और चली गई, तब मैं कलिम्पोंग में था। ताऊ जी ने बताया था कि तुम्हारे पिता की मृत्यु से दो दिनों पूर्व तुम्हारी छोटी बहन भी चल बसी । अपनी माँ की अर्थी को 13 वर्ष की अवस्था में कंधा देने वाला वह बालक इतना विवश क्यों हो गया कि फिर सभी अपनों से दूर रहा, उनके अंतिम संस्कार तक में न शामिल हो सका। अतः क्या लिखूँ ब्लॉग पर..?
सिर्फ इन कुछ पंक्तियों के..
ओ दूर के मुसाफ़िर हम को भी साथ ले ले रे
हम को भी साथ ले ले
हम रह गये अकेले
तूने वो दे दिया ग़म, बेमौत मर गये हम
दिल उठ गया जहाँ से, ले चल हमें यहाँ से
ले चल हमें यहाँ से
किस काम की ये दुनिया जो ज़िंदगी से खेले रे
हम को भी साथ ले ले....