किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार ****************************** अब देखें न हमारे शहर के पोस्टग्रेजुएट कालेज के दो गुरुदेव कुछ वर्ष पूर्व रिटायर्ड हुये। तो इनमें से एक गुरु जी ने शुद्ध घी बेचने की दुकान खोल ली थी,तो दूसरे अपने जनरल स्टोर की दुकान पर बैठ टाइम पास करते दिखें । हम कभी तो स्वयं से पूछे कि क्या दिया हमने समाज को.. ****************************************** "अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम, ये मंजिलें है कौन सी, न वो समझ सके न हम..." इस रंगबिरंगी दुनिया के धूप-छांव में जीवन की पहेलियों में उलझते - सुलझते , मंजिल की तलाश में आगे बढ़ रहा हूँ। नियति के इस
खेल को न तो मैं ठीक से समझ पा रहा हूँ और न वे मुझे समझ पा रहे हैं, जो मेरे करीब रहें इतने वर्षों तक। किसी ने मुझे ढ़ोगी , तो किसी ने दंभी से लेकर एक बच्चा और संत भी समझा है। किसी ने स्नेह दिया, तो किसी ने दुत्कारा भी , मेरी जिंदगी का सफर कुछ इसी तरह से आगे बढ़ता जा रहा है। जहाँ तक सम्भव रहा ईमानदारी, मेहनत और समर्पित भाव से अखबार के क्षेत्र में जितनी भी जिम्मेदारियाँ थीं ,उसकों निभाने का प्रयास किया। फिर भी एक मोड़ वर्षों पूर्व ऐसा भी आया , जहाँ मैं अकेलेपन के दलदल में जा फंसा। मेरे मन की छटपटाहट , जब बढ़ी और ऐसा प्रतीक हुआ कि इस रंगीन दुनिया में इस इंसान की कीमत कुछ भी नहीं है। ऐसी मनोस्थिति में विरक्त भाव की प्रबलता के कारण मैंने अपने व्हाट्सएप्प पर लम्बे समय से यह लिख छोड़ा है कि " तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला..." यह मेरे उन पसंदीदा गीतों में से एक है, जो मुझे इस एकाकी जीवन में उस सत्य से अवगत करवाता है कि यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते, है कौन सा वो इंसान यहाँ पे जिस ने दुख ना झेला, चल अकेला ... परंतु इस लम्बे अंतराल के बाद अब मैं अपने व्हाट्सएप्प का यह स्टेटस बदल रहा हूँ। अपने जीवन में सकरात्मक परिवर्तन के लिये, ताकि समाज के प्रति
अपनी जिम्मेदारी को और भी बेहतर ढ़ंग से समझूँ साथ ही ब्लॉग पर अपने विचारों को नयी दिशा दे सकूं। ऐसा नहीं कि मैं स्वयं ही किसी बनावट या दिखावट के लिए यह कर रहा हूँ। ना भाई ना ...बिल्कुल ऐसा न समझे आप , मुझे स्वयं को विशिष्ट दिखलाने का बिल्कुल भी शौक नहीं रहा है। यह बदलाव मुझमें वर्षों बाद आया है, स्वतः नहीं, बल्कि ब्लॉग पर रेणु दी , मीना दी एवं श्वेता जी सहित आप सभी मित्रों से मिल रहे अपार स्नेह के कारण। लम्बे समय से एकाकीपन ने मुझे चहुंओर से घेर लिया था। वहीं पत्रकारिता ने भी तो जब-तब आहत ही किया है मुझे। लेखन से जहाँ अनेक मित्र बने, तो कुछ शत्रु भी। किसी ने शाबाशी दी, तो किसी में ईष्या का भाव भी था। यह पत्रकारिता जगत भी तो कुछ ऐसा है कि हर कार्य हम सभी संदेह की निगाहों से देखने लगते हैं। तरह - तरह की घटनाओं को अपनी इन्हीं आँखों से देखते हैं और उस पर
समाचार एवं विचार दोनों ही लिखते हैं। जिससे नकारात्मक उर्जा भी हम पर ग्रहण लगाती रहती है, ऐसा इन ढ़ाई दशकों में मैंने महसूस किया। यहाँ मैं अपनी
बात कर रहा हूँ। हमारे अन्य बंधुओं के साथ ऐसी स्थिति न रही हो। हर किसी के जीवन को तौलने का एक पैमाना नहीं होता है। हाँ, परिस्थितियों के अनुसार भटकते, फिसलते सच की राह को कितना अपनाया , इस पर निष्पक्ष आत्ममंथन तो हमें जीवन के किसी मोड़ पर करना ही चाहिए। यहीं से हमें अपने दायित्व का बोध होने लगेगा। अतः मुसाफिर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना , अपने दर्द को भूलकर अब मैं यह सोच रहा हूँ कि मैंने समाज को क्या दिया। अब देखें न हमारे शहर के पोस्टग्रेजुएट कालेज के दो गुरुदेव कुछ वर्ष पूर्व रिटायर्ड हुये। तो इनमें से एक गुरु जी ने शुद्ध घी बेचनेकी दुकान खोल ली थी,तो दूसरे अपने जनरल स्टोर की दुकान पर बैठ टाइम पास करते रहें। वे भी कभी स्वयं से पूछे कि क्या दिया उन्होंने समाज को निःशुल्क । डिग्री कालेज के प्रवक्ता के रुप में मोटा वेतन मिलता था उन्हें। तो कालेज में जो शिक्षा वे बच्चों को देते थें, वह निःस्वार्थ और निःशुल्क तो नहीं था न ? हाँ , वे चाहते तो अवकाश ग्रहण के पश्चात कुछ गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दे सकते थें या फिर कोई सामाजिक कार्य जन जागरण का भी करने में वे समर्थ थें। समाज में कुछ पहचान तो उनकी थी ही। परंतु वे जीवन के अंतिम चरण में खास की जगह आम आदमी बन कर रह गये। समाज में उनकी पहचान और प्रतिष्ठा कम होती चली गयी। अब यदि ऐसे भद्रजन समीप से गुजर भी जाए, तो युवा पीढ़ी भला इन्हें क्यों पहचाने ? इस धरा से खाली हाथ प्रस्थान करना इनकी नियति है। वहीं ,आप यह भी देखते होंगे कि एक मामूली सा सामाजिक कार्यकर्ता , जिसके पास मोटर- बंगला कुछ भी नहीं है ,उसे कितना मिलता है, इस समाज में, जिसे हम मतलबी कह अपनी असफलता छिपाने की नाकाम कोशिश करते हैं। सो, कुछ भी करें,पर करें इस समाज के लिये ,घर- परिवार और अपने से अलग। हाँ , ऐसा भी दिखावा न करें कि आपके तथाकथित समाजिक कार्य उपहास की श्रेणी में आ जाए। अब देखे न किसी भी क्लब के धनाढ्य समाजसेवियों को... सौ रुपये के मामूली कंबल का बोझ मंच पर फोटो शूट करवाते समय मुख्य अतिथि सहित आधा दर्जन ऐसे लोग इस तरह से उठाये रहते हैं कि जैसे कोई कीमती रजाई ही हो। ऐसा दिखावे का दानदाता बनना हो, तो घर की बनिया की दुकान ही भली है। अतः मेरी अंतरात्मा यह कह रही है कि तू भले अकेला है, पर कुछ तो कर जा, जिससे तेरा मानव जीवन सफल हो। सो, चिन्तन इस बात का कर रहा हूँ कि इस बीमार तन को किस कार्य में लगाऊँ ! तो जुबां पर आ गयी एक फिल्म ये पक्तियाँ.. " किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार, किसीके वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है ..." बस मैंने तो यही सोच लिया कि यह जो किसी के दर्द को समझने एवं उसमें सहभागिता की बात है, उसे ही जीवन में अपना लूं। अतः यही अब मेरे व्हाट्सएप्प का स्टेटस होगा ... " किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार " हर वर्ग से दिल का रिश्ता जोड़ने की एक मासूम कोशिश तो जरूर करूँगा मैं , पूरी ईमानदारी के साथ। समाज के उस उपेक्षित तबका जिनके नाम पर
राजनीति तो खूब होती रही है, फिर भी वे पहले की तरह ही उपेक्षित हैं, उनकों अपनी लेखनी समर्पित करना चाहता हूँ, वे बच्चे जो अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षा के शिकार हो रहे हो, उस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ और वे पति परमेश्वर जो बड़े कामकाजी हैं, पर पत्नी के तन पर अधिकार जमाने के लिये उनके पास वक्त हैं, लेकिन उसके मन की बात जानने के लिये नहीं, ऐसे दम्भी जनोंं को आगाह भी करना चाहता हो, ताकि यह माली अपने गृहस्थ जीवन की खुशियों की बगिया को खुद ही न उजाड़ बैठे। एक बात और उन तमाम गृहलक्ष्मी से कहनी है कि वे सम्पूर्ण परिवार को विशेष कर अपने जिगर के टुकड़े को फूड प्वाइजन का शिकार क्यों बना रही हैं, बाहर से आयातित बना बनाया खाद्य सामग्री परोस सबकों मरीज वे ही तो बनाती हैं और स्वयं सुबह से देर रात तक टेलीविजन सिरियल्स में आँखें धंसाई रहती हैं।अतः बहुत करना है मुझे, सो चलते - चलते एक और गीत सुने बंधुओं... " रुक जाना नहीं तू कहीं हार के , काँटों पे चलके मिलेंगे साये बहार के , ओ राही, ओ राही..."