सज़ा
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पौ फटते ही उस मनहूस रेलवे ट्रैक के समीप आज फिर से भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी। यहाँ रेल पटरी के किनारे पड़ी मृत विवाहिता जिसकी अवस्था अठाइस वर्ष के आस-पास थी, को देखकर उसकी पहचान का प्रयास किया जा रहा था। सूचना पाकर पुलिस भी आ चुकी था।
मृत स्त्री के चम्पई रंग वाले मुखड़े पर जिस किसी की भी दृष्टि पड़ती उसका हृदय करुणा से भर उठता था। माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी,गले में मंगलसूत्र , नाक में कील और टब्स पहने रखे वह किसी अच्छे घराने की लग रही थी। किन्तु मृत्यु के बाद भी उसके शांत मुख पर एक दर्दभरी कहानी थी। वहाँ जुटी भीड़ ट्रेन से कटने का सवाल भी और आकलन भी कर रही थी।
लाल वस्त्रों में लिपटी मृतका के सिर के पिछले हिस्से से लहू का रिसाव हो रहा था, जिससे आसपास की जमीन लाल हो गई थी । सिर में लगी इस चोट के अतिरिक्त उसके शरीर पर अन्यत्र घाव नहीं थे। जिसे देख कर ऐसा महसूस हुआ कि नगर के इस सुसाइड प्वाइंट पर मरने से पहले वह जान देने की विवशता से विचलित हुई होगी । जिस कारण वह रेलगाड़ी के समक्ष छलांग लगाने का साहस नहीं जुटा सकी थी किन्तु फिर भी इंजन के धक्के ने उसके जीवन की इहलीला को हमेशा के खत्म कर दिया। जिसके लिए वह गहरी रात घर से दबे पाँव मृत्यु के लिए ही निकली थी।
उसने अपनी पहचान के लिए कोई पत्र अथवा सुसाइड नोट नहीं छोड़ रखा था। लाश देखते ही झल्लाते हुये दरोगा ने सिपाही से कहा था-" यार ! क्या मुसीबत है ? लोग यहीं आ क्यों कट मरते हैं ?" यदि शिनाख़्त नहीं होती तो रेलवे पुलिस पूर्व में इसी रेलवे ट्रैक पर मिले कुछ अन्य लाशों की तरह इस मृत महिला के शव का भी पोस्टमार्टम कर फाइल बंद कर देती। परंतु निकटवर्ती मुहल्ले की होने के कारण शव की पहचान हो गई।
जैसे ही उसके द्वारा आत्महत्या करने की सूचना ससुरालवालों के माध्यम से उसके मायके तक पहुँची वज्राघात-सा हुआ था उनपर। रक्षाबंधन पर्व से पूर्व ममता का भाई उसके ससुराल आया था। तभी उसने अपनी इकलौती बहन की डबडबाई आँखों में छिपी वेदना को पढ़ लिया था। वह अपनी लडली बहन को कुछ दिनों के लिए साथ ले जाना चाहता था, ताकि उसमें नव जीवन का संचार हो सके। उसके इस प्रस्ताव को जब ससुरालवालों ने इंकार किया तो भाई संग मायके जाने के लिए ममता ने भी हाथ-पाँव जोड़े थे, फिर भी उसकी सास का कलेजा नहीं पसीजा । और तो और उसके दोनों मासूम बच्चों को माँ की ममतामयी आँचल से दूर कर उन्हें मामा के साथ ननिहाल भेज दिया गया।
ऐसा होते देख ममता ने रुँधे कंठ से इसका विरोध किया था। उसे यह बात बिल्कुल भी नहीं समझ में आ रही थी कि जब वह स्वस्थ हो चुकी है, तब भी उसके अपने ही सगे-संबंधी इस प्रकार उसे अछूत क्यों समझ रहे हैं। उसे किस अपराध की सज़ा मिल रही है ?
ममता को कुछ दिनों पूर्व कोरोना हुआ था। पूरे चौदह दिन वह अपनों से दूर आइसोलेशन सेंटर में पड़ी रही। कोविड अस्पताल जाते वक़्त उसे सांत्वना देना तो दूर पुराने विचारों वाली उसकी बूढ़ी सास ने उसे कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ रखा था। उसने भरे मन से एम्बुलेंस में पाँव रखा ही था कि तभी पीछे से सास कि कर्कश गर्जना सुनाई पड़ती है। वह कह रही थी-"यह अभागिन सबके लिए संकट बन गयी है। पता नहीं कहाँ से बीमारी उठा लाई है। ख़बरदार जो इससे मिलने अस्पताल में कोई गया, नहीं तो सबको महामारी दे देगी यह।" सास के इस कटु-वचन ने रोग से उसके बीमार तन से कहीं अधिक कोमल मन पर प्रहार किया था। तब जाते-जाते उसने अपने पति देवांश की ओर आशाभरी निगाहों से देखा था ,परंतु उसने भी उपेक्षात्मक रुख अपनाया
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आइसोलेशन सेंटर से 14 दिन बाद निकल कर जब ममता वापस घर लौट रही थी । उसे साँस लेने में अब भी कुछ कठिनाई हो रही थी, किन्तु अपने दोनों मासूम बच्चों की यादों में खोयी हुई थी। जिन्हें देखने के लिए उसकी आँखें तरस रही थी। ममता सोचा रही थी कि इस एकांतवास के पश्चात घर पहुँचते ही बच्चे माँ-माँ पुकारते हुये उसकी आँचल में आ छिपेंगे । स्वस्थ होकर फिर से सास, ससुर और पति की सेवा में जुट जाएगी।
परंतु यह क्या ? उसके ससुराल लौटने पर परिवार के सदस्यों ने उसका स्वागत नहीं किया। सभी उससे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस ) बनाए हुये थे। सास ने चरणस्पर्श करने से मना कर दिया। पतिदेव नीचे अपनी दुकान पर आसन जमाये हुये थे। बच्चों को भी उसके निकट आने नहीं दिया गया और तभी दूर खड़ी ननद ने उसे पीछे वाली कोठरी में जाने के लिए इशारा किया। बिना रोशनदान वाले इस छोटे से कक्ष और उसमें रखे तख्त को देख उसका कलेजा बैठा जा रहा था। और तभी सास फिर से आग उगलते हुये कहा- "मेरी बात कान खोल कर सुन लो, इस कमरे के बाहर कदम मत रखना,जब तक हमें यह न लगे कि तुम पूरी तरह ठीक हो।" आइसोलेशन सेंटर से ममता को कोरोना मुक्त होने का प्रमाणपत्र मिलने के बावजूद ससुरालवाले पुनः संक्रमण फैलने को लेकर भयभीत थे। उसकी सास और ननद के लिए उसके आत्मसम्मान पर चोंट पहुँचाने का यह सुनहरा अवसर था। अब इस घर में कबाड़ रखने वाली कोठरी में उससे बात करने वाला कोई नहीं था। स्नेह न सही उसके प्रति दयाभाव का प्रदर्शन भी नहीं किया जा रहा था। वह अकेली पड़ी दीवारों से बातें करती या सिसकती रहती थी। इसके बावजूद सास की अविश्रान्त कैंची उसके नाज़ुक दिल पर चलती रही। वह दरवाजे से दूर खड़ी हो उसे ताना देती -"इस महारानी को जरा देखों, कैसे आराम से खांट तोड़ रही है।चौका -बर्तन के लिए हम माँ-बेटी तो हैं ही। ऊपर से इसके शरारती बच्चों ने नाक में दम कर रखा है।"
तनिक-सी भूल हुई नहीं की वे दोनों उसके बच्चों का गाल लाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। यह देख वह स्वयं से सवाल करती कि विवाह के पश्चात पिछले सात वर्षों से जिन ससुरालवालों की इच्छापूर्ति के लिए उनकी उँगलियों के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती रहती ,वे ही आज इतने निष्ठुर कैसे हो गये हैं ? फोन पर उससे बातचीत के दौरान भाई को ममता की पीड़ा का आभास हो गया था, इसीलिए वह उसे अपने साथ ले जाने के लिए बहन के ससुराल आया था। किन्तु उसकी सास ने बड़ी चतुराई से बच्चों की उनकी सुरक्षा का हवाला देकर मामा के साथ जाने दिया, परंतु ममता को नहीं जाने दिया । बहू की भवनाओं से सास संभवतः परिचित हो गयी थी कि यदि इसे खरी-खोटी सुनाती रहेगी तो वह सदा-सदा के लिए घर का पिंड छोड़ देगी, क्योंकि वह कोरोना को खतरनाक छुआ-छूत वाली बीमारी समझती थी। आखिर इसका अंततः असर हुआ भी।
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पुत्रों के जाने के पश्चात ममता बिल्कुल अकेली पड़ गयी थी। प्रियजनों के दुर्व्यवहार का संताप उसके मन-मस्तिष्क को कोरोना से भी घातक विषाणु की तरह चाट कर खोखला कर चुका था। इस हालात में भी उसपर दया करने वाला कोई नहीं था। तिरस्कार से उपजी वेदना ग्लानि में परिवर्तित हो गयी थी। उसे अपने जीवन से कोई आशा और उमंग शेष नहीं रह गया था। एक दिन उसके चोट खाये हृदय में आतंकमय कंपन-सा हुआ था। उसकी आत्मा इस कैदखाने से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगी थी। मोह का बंधन टूट चुका था। अनुकूल वातावरण मिलते ही नकारात्मकता रुपी काली परछाई 'कोरोना' बनकर उसे दबोचने के लिए प्रगट हो जाती है। यह देख भय से आँखें बंद करते ही, वह उस शैतान के काले जादू के वशीभूत हो जाती है।तब इस कोठरी में एक ही आवाज़ गूँज रही थी- "ममता ! जब किसी को भी तेरी जरुरत नहीं है। प्रियजन भी तेरे संग आत्मीयतापूर्ण व्यवहार नहीं कर रहे हैं,तो तू मर क्यों नहीं जाती ?"
धीरे-धीरे ममता का चेहरा अत्यंत कठोर होता गया। उसे लगा कि सारा दोष उसका और उसके प्रारब्ध का है। उसने अपने लिए सज़ा निश्चित कर लिया था और इसका प्रायश्चित करने के लिए उसी रात वह घर से निकली तो मौत उसके साथ हो गई । जिस स्त्री ने घर के बाहर पाँव तक नहीं रखा था, वह न जाने किस प्रकार शहर के दूसरे छोर पर स्थित इस सुसाइड प्वाइंट पर जा पहुँची थी ।
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पोस्टमार्टम के पश्चात ममता का शव घर पर आ चुका था। अंतिम संस्कार की औपचारिकता पूर्ण की जा रही थी। उसके आभागे बच्चों को लेकर मायके वाले भी आ चुके थे। जिनके करुण-क्रंदन से वातावरण ग़मगीन हो उठा था। ससुराल पक्ष की महिलाएँ भी अपनी आँखों पर रुमाल अथवा आँचल रख नाक सुरसुराने लगी थीं ताकि मुहल्ले-टोले को लोगों को यह लगे कि बहूँ की मौत से वे भी अत्यंत दुःखी हैं। ममता के इस तरह से ट्रेन से कट मरने से समाज में उनकी प्रतिष्ठा को कहीं आघात न पहुँचे , दिखावे के लिए हर व्यवस्था सास-ननद ने कर रखी थी। उसका पति किंकर्तव्यविमूढ़ बना खड़ा था।
अब उसकी अर्थी सज चुकी थी। वापस घर लौटते समय हर कोई मेहता परिवार को कोस रहा था। लोग आपस में गुफ्तगू कर रहे थे-
"हे ईश्वर ! इस दुखिया को किस बात की सज़ा दी है। कितनी कुशांगी थी बेचारी। सिर पर साड़ी का पल्लू रखे बिना कभी बारजे से झाँकती न थी।" पहले ने कहा था। "हाँ, साहब ! बिल्कुल गऊ थी । सुनने में तो यही आ रहा है , जब से उसे कोरोन हुआ था,मेहता परिवार का हर सदस्य उसके पीछे पड़ गया था। " दूसरे ने अपनी बात रखी। " राम-राम ! कितना बुरा हुआ उसके साथ। कैसी मृदुल मुस्कान थी उसकी। घर में कोई मेहमान आ जाए तो अतिथि सत्कार के लिए एक पाँव से खड़ी रहती थी। " तीसरा भी टपक पड़ा था।" हाय रे! कैसी कर्कशा स्त्री है यह बुढ़िया, अपनी बहू पर तनिक भी रहम नहीं आया। काश ! उसे मायके भेज दिया गया होता, तो जान बच जाती । " वापस लौट रही पड़ोस की काकी की संवेदना भी फूट पड़ी थी ।
इनको इस प्रकार से ताना मारते देख ममता के पति देवांश को अब वहाँ और ठहरना कठिन प्रतीत हो रहा था। देवी स्वरूपा पत्नी द्वारा इस प्रकार से आत्मघात करने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने उसके असंवेदनशील हृदय को भी झकझोर कर रख दिया। उसकी सुप्त अंतरात्मा चीत्कार कर रही थी । उसके विवेक ने उसे पूरे घटनाक्रम पर दृष्टि डालने के लिए विवश कर दिया था। वह यह समझने का प्रयत्न कर रहा था कि इस कोरोना काल में यह सब क्या हो रहा है? कोरोना कोविड-19 न तो प्लेग जैसा खतरनाक महामारी है, जिससे अत्यधिक घबड़ाने की जरुरत है न ही वह एड्स जैसा भयावह रोग है,जिसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए छिपाना पड़ता है।फिर यह कोरोना किस प्रकार से मनुष्य के सारे आत्मीय संबंधों को निगलता चला जा रहा है। यदि इसे संक्रमण से मृत्यु हो भी रही है, इनमें से अधिकांश लोगों को कोई न कोई अन्य रोग था। उसके केस हिस्ट्री को सामने लाना चाहिए, न कि उसे 'सामाजिक दूरी' बनाए रखने के लिए विवश किया जाए।
कुछ इसी प्रकार का चिंतन करते हुये देवांश का मन बदल जाता है । उसका देवत्व जाग उठता है। मामूली बीमारी को लेकर सर्वगुण सम्पन्न पत्नी को जिस तरह से यातना दी गयी, उसपर वह पश्चाताप करने लगता है । अचानक उसकी भृकुटि तन जाती है और वह जोर से चींख उठता है- " हाँ, मैं हूँ दोषी। मेरी मति मारी गयी थी ।किन्तु उनसे भी सवाल करो,जो हमें 'शारीरिक दूरी' की जगह 'सामाजिक दूरी' बनाने का पाठ पढ़ा रहे हैं। ये मीडिया क्या अँधी है ? उसकी भी तो इसमें भूमिका है ? हमसब यह कैसे भूल गये कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ..!" पत्नी को खोकर वह विक्षिप्त-सा हुआ जा रहा था। उसका अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था, तो ऐसी परिस्थिति उत्पन्न क्यों हुई , इसपर प्रश्न भी कर रहा था।
फिर इस अपराध के लिए सज़ा किसे मिलनी चाहिए.... ?
--व्याकुल पथिक