सावन के झूले पड़े तुम चले आओ दिल ने पुकारा तुम्हें तुम चले आओ तुम चले आओ... रिमझिम बारिश के इस सुहावने मौसम में अश्वनी भाई द्वारा प्रेषित इस गीत ने स्मृतियों संग फिर से सवाल- जवाब शुरू कर दिया है। वो क्या बचपना था और फिर कैसी जवानी थी। ख्वाब कितने सुनहरे थें ,यादें कितनी सताती हैं। अकेले में यूं ही कुछ गुनगुनाता हूं- जब दर्द नहीं था सीने में क्या ख़ाक मज़ा था जीने में अब के शायद हम भी रोयें सावन के महीने में यारो का ग़म क्या होता है मालूम न था अन्जानों को साहिल पे खड़े होकर अक़्सर देखा हमने तूफ़ानों को अब के शायद दिल भी डूबे मौजों के सफ़ीने में सचमुच ऐसे दर्द को सहने का अपना ही अलग मजा है और अलग अंदाज भी। पर अभी तो बचपन की याद आ रही है। सावन का यह महीना हम तीनों भाई- बहन के लिये कितना खास होता था, वहां बनारस में। हो भी क्यों न बाबा विश्वनाथ की नगरी है काशी। सावन के सभी सोमवार व्रत के नाम से ही सही हम सभी को दिव्य स्वादिष्ट पकवान जो भोजन के रुप में मिलते थें। सिंघाड़े के आटे का हलुआ तो मुझे सबसे अधिक प्रिय था ही। फलहारी कढ़ी, तली हुई मूंगफली और फिर आलू भी साथ में पकौड़ी सारी सामग्री सिंघाड़े के आटे से ही बनती थीं। तब घर पर अपना विद्यालय नहीं था , पापा एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थें। सो, ऐसे फलहारी पकवान हम सभी को सिर्फ व्रत के दिन ही मिल पाता था। सो, हम बच्चे न जाने कितनी ही बार घर पर पूछा करते थें कि बताएं न सावन कब आएगा। वैसे , तो शिवरात्रि पर भी यह सबकुछ खाने को मिलता था और अनंत चतुर्दशी की भी याद है सेवई, पूड़ी और बिना नमक वाली मूली की सब्जी मिलती थी। खूबसूरत अनंत खरीद कर और पूजा भी करवा मैं ही तो लाता था। फिर करवाचौथ पर चावल से निर्मित लड्डू खाने के लिये मैं किस तरह से सियामाई के चित्र के समीप ही डेरा डाले रहता था। शीतला पूजन बसौड़ा पर्व पर गुलगुले की मिठास अब भी याद। हम दोनों भाइयों को सोने का लाकेट , जिस पर शीतला देवी की आकृति होती थी , पहनाया जाता था। तब पूछे न साहब , उस बालपन की बात अपनी सीना भी किस तरह छप्पन इंच चौड़ी हो जाया करती थी। जन्माष्टमी पर सजावट भी तो मैं ही करता था और सरस्वती पूजा पर जिस सफेद चादर से जिस तरह से पर्वत निर्मित करता था, ताऊ जी मेरी कलाकारी देख स्नेह से पूछा करते थें कि क्या तुमने सजाया है। इस बार रथयात्रा पर बाबा की बहुत याद आयी। कोलकाता में मुझे घर पर ही दो बार रथ सजाने का अवसर मिलाता था। बाबा ने क्या- क्या नहीं मंगवा के दिया था। याद कर आंखें न जाने क्यों बार-बार नम हो जाती है कि हम बच्चों से इस कदर स्नेह करने वाले बाबा को एक अनजाने ठिकाने पर गम से भरी ऐसी मौत क्यों मिली थी। सभी ने उनसे नाता यूं तोड़ लिया था, मानों उनकी परछाई से भी कलंकित होने का भय था । कोलकाता से बनारस जब वे बीमारी की हालत में आये थें और सभी अपनों ने मुंह फेर लिया था, तो यह हम सबसे के लिये उनका आखिरी शब्द था, " देखा हो गया"। डबडबाई आंखें लिये वे चले गये, फिर न कभी वापस आने के लिये! यह प्यारे ( मेरा नाम) अपने प्यारे से बाबा के लिये बस इतना ही ही कहने की स्थिति में हूं - जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला.. खैर, बात सावन महीने की कर रहा था और ये स्मृतियां मुझे फिर से घसीटकर कहां ले गयीं। हां, याद आया वह सावन का मेला जब बनारस में था, तो प्रथम और आखिर सोमवार हम सभी मृत्युंजय महादेव मंदिर जाया करते थें। बड़ा भव्य मेला लगता था। वो पीतल की अंगूठी भला कैसे भूल पाऊंगा। जिसके लिये कितनी हिफाजत से पचास पैसे बचाये रखता था। मिट्टी से शिवलिंग बनाता था और उसे रंगता था। सृजन में मेरी बचपन से ही रुचि थी, एक चित्रकार जो बनना चाहता था। पतंग उड़ाने नहीं आती थी, फिर भी कटी पतंगों को रंगबिरंगे कागजों से खूब सजाता था। अकसर पतंग और शिवलिंग मुहल्ले का एक लड़का खरीद ले जाया करता था। क्या करता घर पर पैसे की जरूरत जो थी। सो, अपनी प्रिय सामग्री भी बेच दिया करता था। तब पांचवीं- छटवीं कक्षा में ही तो पढ़ता था। फिर भी परिस्थितियों ने दुनियादारी सिखला दी थी। पर कटी पतंगों को सजाते समय यह कभी नहीं सोचा था कि मैं भी एक दिन इनकी ही तरह कटी पतंग बन जाऊंगा और फिर मुझे कोई न सजा पाएगा। बस यें दर्द भरे नगमे गुनगुनाता रह जाऊंगा- ना कोई उमंग है, ना कोई तरंग है मेरी जिंदगी है क्या,एक कटी पतंग है। किस्मत के
खेल भी निराले होते है। अभी तो सावन में मानस मंदिर की बहुत याद आ रही है। कितनी अच्छी झांकियां सजती थी ,इस मंदिर में। आज भी सजती होगीं ही। परंतु बचपन बीता और सावन मेला भी पीछे छूट गया। उस ठेकुए का स्वाद भी भूल गया , जिसे मानस मंदिर जाने से पूर्व दुर्गा मंदिर में चढ़ाने के लिये मम्मी बनाती थी और हम तीनों बच्चे मुंह पर ताला लटकाएं ,उसकी सुंगध को दूर से महसूस किया करते थें। ठेकुआ मुझे अत्यधिक प्रिय है, इसलिये मौसी जी बाद में भी मुझे भेजा करती थीं , यहां मीरजापुर में भी। सावन के महीने में रेनी-डे का अपना अलग मजा था। पहले बारिश भी तो लगातार कई दिनों तक हुआ करती थी। कक्षा छह में जब था तो एक बार स्कूल के बच्चों संग पिकनिक पर जाने का अवसर इसी सावन में मिला था। तब 11 वर्ष का ही तो था, परंतु देवदरी और राजदरी जैसे जलप्रपात का प्राकृतिक सौंदर्य अब भी याद है, मुझे। पर विडंबना तो देखें जरा मेरी यहां मीरजापुर में ढ़ाई दशकों से हूं। कितने ही आकर्षक पर्यटक स्थल हैं यहां , परंतु न जाने कितने सावन यूं ही गुजर गये , किसी भी जलप्रपात को समीप से नहीं निहार पाया हूं। अब तो बचपन के बाद जवानी से भी नाता टूट चुका है। बच्चन में घर के छत पर लटकती बरगद की डाल से सावन में झूला करता था, तो जवानी में किसी हमसफर की चाहत में झूमा करता था और अब जीवन के तीसरे और अंतिम पड़ाव में बस इस सावन में , यूं ही पुकारा करता हूं - कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन मेरे ख्वाबों के नगर, मेरे सपनों के शहर पी लिया जिनके लिये, मैंने जीवन का ज़हर ऐसे भी दिन थे कभी, मेरी दुनिया थी मेरी बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन कोई लौटा दे ... मित्रों, मेरे जीवन में सावन की उपयोगिता अब बस इतनी है कि ग्रीष्म ऋतु से दुर्बल इस तन को रिमझिम बारिश कार्य करने के लिये नवीन उर्जा देती है। अब यह न कहना कि मैं फिर से विलाप कर रहा हूं। हुजूर ! ये स्मृतियां हैं , जो अटखेलियां यूं ही किया करती हैं। क्या तुम मुझसे जब भी मिलते हो, मैं मुस्कुराता नजर नहीं आता हूं ? पत्रकार जो हूं न, जिसकी अपनी पीड़ा नहीं होती है। समाज हमें हर वक्त याद दिलाता है कि उसका दर्द ही हमारा है।