हमारी छोटी-छोटी खुशियाँ( भाग- 2)
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परम्पराओं के वैज्ञानिक पक्ष को तलाशने की आवश्यकता है , उसमें समय के अनुरूप सुधार और संशोधन हो , न कि उसका तिरस्कार और उपहास ..
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यह परस्पर प्रेम , विश्वास एवं समर्पण भाव ही है कि जो हमें पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व का बोध कराता है। जिससे हम एक सूत्र में बंध कर अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं । मेरा पूरा परिवार भी कभी एक दूसरे के प्रति समर्पित था।
हाँ, याद है मुझे आज भी नाटी इमली का वह भरतमिलाप । दशरथ नंदन चारों भाइयों के मध्य परस्पर प्रेम की एक झलक देखने की ललक लिये लाखों श्रद्धालु यहाँ जुटते हैं।
विजयादशमी पर्व के दूसरे दिन पूरे वाराणसी और आसपास के जनपदों से भी लोग इस प्राचीन भरतमिलाप को देखने जुटते हैं। यूँ समझे कि आस्था का जनसैलाब यहाँ उमड़ता है।
विदित हो कि धर्म की नगरी काशी में सात वार और तेरह त्यौहार की मान्यता प्रचलित है। नवरात्र और दशहरा के बाद रावण दहन के ठीक दूसरे दिन यहाँ विश्व प्रसिद्ध भरतमिलाप का उत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाता है।
कभी दादी हम दोनों भाइयों को लेकर नाटी इमली जाया करती थीं। हर -हर महादेव के उद्घोष के मध्य हाथी पर बैठ काशी नरेश ( आजाद भारत में भी जनता उन्हें सम्मान में राजा साहब ही कहती थी) आते थें और फिर जब सूर्यनारायण अस्ताचल की ओर होते थें, तो चारों भाइयों के मिलन का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता था। सायं लगभग चार बजकर चालीस मिनट पर जैसे ही अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें भरतमिलाप मैदान के एक निश्चित स्थान पर पड़ती हैं , तब लगभग पांच मिनट के लिए माहौल थम सा जाता है। भरत और शत्रुघ्न दौड़ कर राम और लक्ष्मण के चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। इन भाइयों का परस्पर प्रेम देख भावुक होने के कारण मेरी आँखें नम हो जाया करती थीं।
संत तुलसीदास जी के शरीर त्यागने के बाद उनके समकालीन संत मेधा भगत काफी विचलित हो उठे। मान्यता है कि उन्हें स्वप्न में तुलसीदास जी के दर्शन हुए और उसके बाद उन्ही के प्रेरणा से उन्होंने इस रामलीला की शुरुआत की।
दादी हम दोनों भाइयों को भी इसीतरह से प्रेमभाव बनाये रखने को कहा करती थीं। हम तीनों भाई-बहन एक दूसरे ध्यान रखते भी थें, परन्तु हम जब बड़े हुये,तो न जाने क्यों स्नेह का यह बंधन टूट गया। बड़ों के द्वारा पक्षपात भी इसका प्रमुख कारण बना।
खैर, यह परम्परा क्या ढोंग है ? नहीं मित्रों , इस रामलीला के माध्यम से हमें यह सार्थक संदेश मिलता है कि संकट अथवा षड़यंत्र कैसा भी क्यों न हो यदि परिवार में आपसी सद्भाव एवं त्याग की भावना है , हम सत्य के मार्ग पर हैं , तो इस आपसी सौहार्द के समक्ष हर विपत्ति नतमस्तक है।
अरे! आज तो शरदपूर्णिमा है। याद है मुझे कि इस दिन कोलकाता स्थित अपने कमर के बाहर सीढ़ी पर खड़ा हो चंद्रमा की रोशनी में सुई में धागा पिरोते थे। माँ कहती थी कि ऐसा करने से आंखों की ज्योति बढ़ती है। साथ ही खीर पकाकर रातभर ओस में चंद्रमा की रोशनी में रखा जाता था। हम सभी सुबह इस खीर का प्रसाद ग्रहण करते थें । हमें बताया गया था कि चंद्रदेव ने रात्रि में अमृत वर्षा की है, अतः खीर खाने से स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। बंधुओं , अपनों के स्नेह से निर्मित यह खीर बाजार में नहीं मिलती है कि पैसे से खरीदा जा सके।
क्या इस परम्परा को भी आधुनिक तथाकथित सभ्य समाज के कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए ?
वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि चन्द्रमा की किरणों को 'रजत-ज्योत्स्ना' कहने के पीछे चन्दमा पर उपलब्ध एल्युमिनियम, कैल्शियम, लोहा, मैग्नीशियम तथा टिटेनियम में वह बहुत सारे गुण विद्यमान है, जो चांदी में उपलब्ध होते है । चावल की खीर के पीछे औषधीय कारण है कि नए धान की फसल पर जब चन्द्रमा की यह किरणें पड़ती हैं तब धान (चावल) अत्यंत पुष्टिकारक हो जाता है । आश्विन मास का नामकरण अश्विनीकुमारों के नाम से होने के कारण आयुर्वेदिक चिकित्सक तमाम बीमारियों की दवा इस रात रखे गए खीर के साथ रोगियों को देते है । पुष्टिकारक एवं आयुष्य देने वाली किरणों के कारण ही हमारे ऋषियों ने 12 महीनों में 'जीवेम शरद:शतम' का आशीष देकर इस माह को गौरवान्वित किया ।
शरद पूर्णिमा पर्व को कोजागरी पर्व कहा जाता है । संस्कृत में 'को' का अर्थ रात्रि से है और 'जागरी' का आशय जागरण से है । चातुर्मास में नारायण की योगनिद्रा की स्थिति में इस दिन माता लक्ष्मी धरती पर वरदान एवं निर्भयता का भाव लेकर विचरण करती हैं । जो जागता है और नारायण विष्णु सहित उनका का पूजन अर्चन करता है, उसे आशीष देती है । इसीलिए चन्द्रोदय होते ही सोने, चांदी, या मिट्टी का दीपक जलाकर एवं खुले आकाश में खीर का भोग लगाकर पूजन अर्चन करना बताया गया है ।
शरद ऋतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा की रसमयी किरणों में भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर तक पहुंचने की लीला है । चन्द्रमा का सम्बंध मानव के मन से है । सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर विकास तक के पीछे मन की भूमिका है । मन अंधकार की ओर भी ले जाता है तो ज्ञान के बल प्रकाश की ओर ले जाता है ।
इसी पर्व के पश्चात पति- पत्नी के प्रेम का पर्व करवाचौथ आ जाता था। इस सुहाग- पर्व की सुखद अनुभूति तो मुझे नहीं है, परंतु फिर भी इस व्रत के दिन मैंने अपनी माँ, मम्मी और मौसी तीनों के सहायक की भूमिका अवश्य निभाई है।
कुछ वे बुद्धिजीवी जो ऐसी परम्पराओं को सिर्फ दिखावटी बता इनका विरोध करते हैं, सम्भवतः इन्हें ऐसे पर्व की खुशियों की अनुभूति नहीं है। सच तो यह है कि इस करवाचौथ पर्व में वह स्नेह निहित है , जो युवा ही नहीं वृद्ध दम्पति को भी मुस्कुराने का अवसर देता है।
अब चलते हैं बनारस अपने घर पर , जहाँ करवाचौथ पर मेरी माता जी यानी कि मम्मी निर्जला व्रत रख सुबह से ही पूजा व्यवस्था को लेकर व्यस्त हो जाती थीं। मिश्रित धातु के बड़े और छोटे दोनों करवा और थाली को राख से अच्छी तरह चमका कर धुला जाता था। चावल भी धोकर छत पर धूप में डाला जाता था। हम बच्चों की जिम्मेदारी थी कि कोई पक्षी उसे खाने न पाए। इस चावल और चीनी को पीस कर उसमें शुद्ध घी एवं कपूर डाल कर लड्डू बनाये जाते थें। मेरा कार्य था गाय का गोबर , बेसन का लड्डू और करवा में प्रयुक्त होने वाला सींक लाना। पूजाघर की दीवार के एक चौकोर भाग को गोबर से लेपन किया जाता , जिसपर पीसे चावल को पानी में घोल उससे सियामाई सहित सातों बहनों, सूरज, चांद, वृक्ष, जिसपर छलनी और दीपक लेकर चढ़ा एक युवक, निर्जला व्रतधारी उसकी बहन और उसके सातों भाई एवं भाभी के अतिरिक्त वह नाव जिसपर उसका पति सवार होता था , वे सारे चित्र बनाएँ जाते थें। पहले यह कार्य मम्मी करती थीं ,परंतु बाद में चित्रकला में रूचि होने के कारण मैं यह सब बनाया करता था। कोलकाता माँ और मुजफ्फरपुर में मौसी जी भी मुझसे से सियामाई और अन्य चित्र बनवाती थीं। अंतर सिर्फ इन दोनों स्थान पर यह था कि दीवार की जगह मोटे सफेद कागज पर गोबर लेपन कर उस पर चित्र बनाया जाता था, ताकि घर की दीवार खराब न हो और पूजन के पश्चात चित्र सुरक्षित रहे।
पापा तो रात में ट्यूशन पढ़ा कर आये थें, अतः सुहागिनों का सम्पूर्ण श्रृंगार करने के पश्चात व्रत की कथा मम्मी मुझे ही सुनाती थीं। पुरस्कार में मुझे उसी रात सर्वप्रथम चावल के दो बड़े लड्डू मिलते थें। यह लड्डू मुझे सबसे प्रिय है। जिसे पिछले लगभग तीन दशक से नहीं खाया हूँ , क्यों कि मेरी वह छोटी- छोटी खुशियाँ एक-एक कर छिनती चली गयी।
पापा जब रात में आते थे ,तो पूजन कार्य सम्पन्न कर मम्मी को जल ग्रहण करवाते थें। एक बात बताऊँ , सदैव मौन अथवा कठोर वचन बोलने वाले पिता जी इस दिन पत्नी भक्त बने दिखते थे और निर्जला व्रत होने के बावजूद भी मम्मी की खुशी देखते ही बनती थी। करवाचौथ एवं हरतालिका व्रत पर वे घर की मुखिया जो हो जाती थीं। हम सभी उनकी आज्ञा मानते थें।
हाँ, कोलकाता में माँ -बाबा तो सदैव एक दूसरे को चौधरी संबोधन से बुलाया करते थें। वहाँ , पति-पत्नी में अधिकार को लेकर कोई भेद नहीं था और मुजफ्फरपुर में मौसी जी वैसे ही मेरे सीधे साधे मौसा जी पर भारी पड़ती थीं।
पुरुषों के धैर्य की असली परीक्षा छोटी दीपावली को होती थी। चार दशक पूर्व तब कार्तिक माह में ठंड पड़ने लगता था, इसके बावजूद उन्हें करवा में रखे ठंडे जल से स्नान करना पड़ता था। सिर पर जैसे ही करवा का पानी पड़ता था पापा , बाबा और मौसा जी कांप उठते थें। बच्चों-सा नटखटपन भी इनमें आ जाता था। सो, इस जल को डलवाने से पूर्व नखरे किया करते थें, परंतु अपनी -अपनी श्रीमती जी की घुड़की के समक्ष ये सभी नतमस्तक थें।
तो क्या माँ, मम्मी और मौसी किसी उपहार के की कामना से व्रत रहती थीं। चार दशक पूर्व तो उत्तर प्रदेश एवं बिहार में करवाचौथ का प्रचलन भी आज जैसा नहीं था। मेरी मम्मी एवं मौसी ने पति से उपहार लेना तो दूर, अपने आभूषण बेच कर हम सभी को तमाम पर्वों पर खुशियाँ दी हैं।
विपरीत आर्थिक स्थिति में भी कितना समर्पित थें, वे एक दूसरे के प्रति ऐसे पर्वों पर ,जिसका स्मरण कर आज भी मेरा मन आनंदित हो जाता है।
वैसे, स्त्रियों के कार्य में मुझे इस तरह से रुचि लेते देख मेरा उपहास भी होता था ,तो यह आशीष भी मिलता था कि तुम्हें सर्वगुण सम्पन्न पत्नी मिलेगी। खैर, नियति के समक्ष हर कोई नतमस्तक है। अतः जीवनसाथी की कल्पना और अभिभावकों का यह आशीर्वाद फलीभूत नहीं हुआ। फिर भी ये खुशियाँ ,ये परम्पराएँ और अपने लोग की स्मृतियाँ मेरे मानसपटल पर अंकित है। यही मेरे जीवनभर की पूंजी है। जब भी पर्व-त्योहार के अवसर पर इस बंद कमरे में मन विचलित होता है। उसे खुशियों भरी यादों की यह नींद की गोली दिया करता हूँ।
सत्य तो यह है कि यदि हम अपनी संस्कृति, अपने संस्कार एवं अपने प्राचीन साहित्य को युवा पीढ़ी को देने में असमर्थ रहे, तो वह भटकाव की स्थिति में रहेगी। वर्तमान में नैतिक मूल्यों की उपेक्षा कर अर्थ के पीछे भागती दुनिया को ही वह सत्य समझ बैठेगी। वह विचारों के ठोस धरातल पर खड़े होने की जगह सिद्धांतविहीन स्वहित के मार्ग पर बढ़ उस दलदल में जा फंसेगी, जहाँ से उसे बाहर निकालने वाला कोई मार्गदर्शन नहीं होगा। अतः परम्पराओं के वैज्ञानिक पक्ष को तलाशने की आवश्यकता है , उसमें समय के अनुरूप सुधार और संशोधन हो ,न कि उसका तिरस्कार और उपहास ।
आज भी जब मैं अपनी खुशियों को ढ़ूंढता हूँ तो बचपन में जो पर्व- त्योहार , दर्शन-पूजन और व्रत-उपासना परिजनों के साथ मनाया , उसमें वह छुपी मिलती हैं। (क्रमशः )
- व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला