सुबह सड़कों पर एक जीवन संघर्ष दिखता है, इबादत, समर्पण और कर्मयोग दिखता है -------------------------------------------------------------------- " दुनियाँ में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा जीवन हैं अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा गिर गिर के मुसीबत में संभलते ही रहेंगे जल जाये मगर आग प़े चलते ही रहेंगे...." मदर इंडिया फिल्म का यह गीत जीवन का संघर्ष, नियति के समक्ष पराजय न स्वीकार करने की जंग है। जब सुबह सूर्योदय से पूर्व हममें से अनेक लोग मीठी नींद में सोये होते हैं। तब हमारे घर के बाहर सड़कों पर एक कठिन जीवन संघर्ष दिखता है। बूढ़े बाबा नूर मोहम्मद गरीबी की मार से जिनका कमर टूट चुका है। वे लाठी के सहारे आगे की ओर झुके- झुके ही सही धीरे- धीरे पैरों को खिसकाते हुये खुदा की इबादत में मस्जिद को ओर बढ़ते दिखते हैं । पक्के नमाजी हैं वे । नमाज़ पढ़के वापसी के समय मेरी उनकी मुलाकात अकसर ही संदीप भैया की दुकान के बाहर सवा पांच बजे के आसपास हो जाती है। उनकी बूढ़़ी आंखों में अब वह नूर नहीं है। वक्त की मार जो उनपर ऐसी पड़ी है कि कालीन , दरी और बीड़ी बनाने में हाड़तोड़ परिश्रम के बावजूद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है।
स्वास्थ्य साथ छोड़ रहा है। लेकिन, वे अपने कर्म पथ से तनिक भी डिगें नहीं हैं। मैं उन पर एक
लेख भी लिखा था। ऐसे शख्स मुझे बहुत पसंद है। जो जीवन के कठिन दौर में भी अपने पथ डटे रहते हैं । पुत्र की वर्षों पूर्व मौत हो गई तो क्या हुआ, उस दर्द को सीने में दबाये
अपनी विधवा पुत्रवधू सहित पूरे परिवार का खर्च अपने इन्हीं बूढ़े कंधों पर उठाया है उन्होंने, बिना टूटे हुये । मौसम कोई भी , स्वास्थ्य जैसा भी हो और हालत घर का कैसा भी हो, फिर भी भोर में अपने घर से निकल पड़ते हैं इबादत खाने की ओर। मानो हम सभी को यह पैगाम दे रहे हो कि " मालिक हैं तेरे साथ ना ड़र, गम से तू ऐ दिल गम जिस ने दिये हैं वो ही गम दूर करेगा " फिर मैं जब कुछ आगे बढ़ता हूं, तो बूढ़ेनाथ मंदिर के सामने एक ऐसे वृद्ध व्यक्ति को देखता हूं , जो अपने पैरों के बल पर खड़े होने की स्थिति में अब नहीं है। सो, वे वाकर के सहारे मंदिर से लेकर कुछ दूर सड़क तक का सफर तय करते हैं । घर के बाहर चबूतरे पर बैठे-बैठे ही करीब एक घंटे तक हाथ- पांव हिलाते रहते हैं। उन्हें कभी परिवार के सदस्य को पुकारते मैंने नहीं देखा, ना मदद मांगते ही । शारीरिक लाचारी को अपनी कमजोरी मानो उन्होंने कभी समझा ही नहीं, एक बहादुर योद्धा की तरह वे इस अपंगता जैसी कठिन परिस्थिति का सामना कर रहे हैं। मैंने मंदिर के आगे शीश झुकाया हो या नहीं यहां, फिर भी इस संघर्ष पुरुष के समक्ष नतमस्तक हूं। किस तरह से धीरे- धीरे वे स्वतः ही अपने शरीर की मालिश करते हैं। अपने हर अंग को धीरे - धीरे हाथों से करीब घंटे भर मलते ही हैं। मैं तो अपलक उन्हें निहारता रह जाता हूं। बिल्कुल दुर्बल शरीर है, फिर भी स्वस्थ रहने की इच्छाशक्ति दृढ़ है। वैसे, मार्ग में मुझे बहुत से ऐसे बुजुर्ग और प्रौढ़ दम्पति भी दिखते हैं, जो टनाटन हैं , हंसी- ठिठोली आपस में किये रहते हैं। खुदा उनपर मेहरबान है। वजन घटाने के लिये कम अवस्था की एक लड़की अकसर ही पुरानी अंजही मुहल्ले की दिख जाती है, मेरी राह मैं। मुझे कुछ हंसी सी आ जाती है, इतनी कम आयु में ऐसे भारी भरकम लोगों को देख कर । यह लड़की भी आमलेट, मोमो, मैगी, चाट और गोलगप्पे खूब खाती थी। पर अब निश्चित ही पछतावा हो रहा होगा उसे। सो, सुंदर काया पाने के लिये उसका भी संघर्ष मैं सुबह देखता हूं। लेकिन, मुझे तकलीफ दो तरह के लोगों को देखकर होता है। पहला कोई ऐसा वृद्ध जो शारीरिक रुप से कमजोर है, फिर भी रिक्शा खींचे जा रहा होता है और दूसरा वे कुछ लड़के- लड़कियां जो घर से निकलते तो हैं कोचिंग पढ़ने जाने के लिये, परंतु कान से उनका सेलफोन सटा होता है। यह कैसा प्रेमपाश है इनका , जो एक दूसरे के भविष्य को अंधकारमय किये हुये हैं। वो बैराग फिल्म का गीत है न कि " छोटी सी उमर में लग गया रोग , कहते हैं लोग मैं मर जाऊंगी " गर्दन से ऊपर के हिस्से कपड़े से लपेटे और उसी के अंदर मोबाइल दबाये ये लड़कियां आखिर क्या संस्कार लेकर बाबुल के घर विदा लेंगी ? किसी भी नारी संगठन ने इस पर तनिक भी विचार नहीं किया है और इससे अधिक हम कुछ कह भी नहीं सकते हैं। लड़के तो पहले ही इस
खेल में बर्बाद हैं । सो, एक उम्मीद रहती थी कि शादी के बाद उसका घर संवर जाएगा, पर अब तो दोनों के अपने- अपने यार हैं ! हां, कुछ ऐसे भी बदनसीब नजर आते हैं, जो आंखें खुलते ही मदिरालय का द्वार खटखटाने पहुंच जाते हैं।पता नहीं कहां से पैसा जुटा लाते हैं या बीवी- बच्चों का पेट काट लाते हैं। हां, एक संघर्ष मेरा भी तो सुबह रहता है अब , चाहे शरीर हां कहे अथवा ना , फिर भी सप्ताह में छह दिन ठीक चार बजे उठना है। शौच- स्नान करके पांच बजे मुकेरी बाजार चौराहे पर खड़ा हो जाता हूं, इस प्रतीक्षा में कि जीप अखबार का बंडल लेकर आती ही होगी। अभी तीन दिनों पहले जब मलेरिया वाली वहीं पुरानी शारिरिक तकलीफ फिर से सर्दी-जुखाम एवं बुखार के बाद उभर आई, मांसपेशियों और सिर में दर्द से बेचैन हो उठा, तो कुछ चिन्तित हो गया था कि किसी तरह से तो चिरायता मिश्रित काढ़ा पीकर मैंने इसपर कुछ नियंत्रण पाया था, अब फिर से कौन सी दवा तलाशी जाएं। सो, ऐसा लगा कि वर्ष 1999 से जिस असाध्य मलेरिया से पीड़ित हूं , कहीं उसकी दोस्ती अबकि और महंगी तो नहीं पड़ेगी। खैर काढ़ा एक बार की जगह तीन बार ले रहा हूं और स्वयं को कुछ ठीक महसूस कर रहा हूं। यह मेरा संघर्ष ही कि इस स्थिति में भी सुबह ढ़ाई घंटे मुझे आप मीरजापुर की सड़कों और गलियों को साइकिल से नापते हुये भी देखिएगा। ज्वर और दर्द चाहे कैसा भी क्यों न रहा हो , इन ढ़ाई दशकों में अपने इस होमवर्क से पीछे नहीं हटा। अब तो ऐसे कर्मयोगी बुजुर्गों को देख मेरे आत्मबल में कहीं अधिक वृद्धि हुई है। पर अभी थोड़ा ऊपरवाले से खटपट चल रहा है मेरा, सो मैं उसे अजमा रहा हूं और वह मुझे। इसीलिये तो मैं उसके चौखट पर दस्तक नहीं दे रहा हूं। उसे पुकार भी नहीं लगा रहा हूं। मेरे ढ़ेरों सवाल है बचपन से लकर युवाकाल के, मैं जवाब चाहता हूं उससे, पर वह भी तो कुछ पूछना चाहता हो मुझसे ? सो, पता नहीं मैं उसके कटघरे में खड़ा हूं, या वह मेरे। यह तो आमना-सामना होने पर ही पता चलेगा। फिर भी मुझे किसी की गुलामी कुबूल नहीं। चाहे वह खुदा हो या इस धरती का बादशाह । मैं बराबरी चाहता हूं किसी का दरबार नहीं। उसे याद होगा कि बचपन में मैंने उसकी किस तरह से सेवा किया करता था। पर मां(नानी) सहित उसने मुझसे हर वह चीज छीनी है, जो मुझे प्रिय थी। अतः " मैं तो वह मुसाफिर हूं, जो रस्ते में लुटा हूं । ऐसे न दीप कभी किसी दिल का बुझा हो..." अब इस बीमार शरीर पर क्या जोर लगाओगे ? खुद्दारी मेरी फिर भी नहीं खरीद पाओगे। मैं नहीं जानता कि यह कैसा मेरा पागलपन है, परंतु ओ मुझे अजमाने वाले, तुम भी कभी फुर्सत में यह सोचोगे कि किस माटी के पुतले को गढ़ा है। हां , एक एहसान तुम मुझ पर करना कि मेरे इस स्वाभिमान को बनाये रखना। न धन मिला, ना ही रोटी, कपड़ा और मकान ठीक से। जवानी यूं ही गुजर गई, न बीवी- बच्चे मिलें। एक स्वास्थ्य बचा था, तो उसे भी 19 वर्ष पूर्व छीन लिया। फिर भी शिकवा नहीं तुमसे, न कोई शिकायत है। जो संघर्ष करता हूं , यह तुमसे छिपा नहीं है। फिर तुम्हारे दरवाजे पर जा क्यों दूं दस्तक। सो, दोस्ती फिल्म का यह गाना मैं तुम्हें सुनाता हूं- " चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे, आवाज़ मैं न दूंगा.. आवाज़ मैं न दूंगा, मितवा मेरे यार तुझको बार बार, आवाज़ मैं न दूंगा.." वैसे,चाहूं तो मैं भी बैठ के भोजन कर सकता हूं। लेकिन, जिस निठल्ले होने का कलंक मुझ पर लगा था और मैं सब कुछ छोड़ घर से निकाल था। फिर से वह न कहलाऊँ, इतना मेरा ख्याल रखना। राह अभी लंबी है, मंजिल भी दूर है। इस पथिक की व्याकुलता पर दुनिया हंसे चाहे जितनी , पर तुम न उपहास करना। प्यारे ! बस इस संघर्ष पथ पर इतना ही तुमसे चाहता हूं- " ज़िंदा हैं जो इज़्ज़त से वो, इज़्ज़त से मरेगा "