माँ , महालया और मेरा बालमन...
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आप भी चिन्तन करें कि स्त्री के विविध रुपों में कौन श्रेष्ठ है.? मुझे तो माँ का वात्सल्य से भरा वह आंचल आज भी याद है।
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जागो दुर्गा, जागो दशप्रहरनधारिनी,
अभयाशक्ति बलप्रदायिनी,
तुमि जागो...
माँ - माँ.. मुझे भी महालया सुनना है, कल भोर में समय से उठा दीजिएगा...
अगले दिन ठीक पौने चार बजे सुबह माँ की पुकार सुनाई पड़ती थी कि मुनिया उठ ... जरा मुँह धोकर ठाकुर जी की अलमारी से अगरबत्ती ले आ तो और बैठ मेरे पास आकर।
12 वर्ष का तो था ही मैं , फटाफट सारा काम निपटा भागे आता था। बीमारी के कारण माँ जीवन के आखिरी दो वर्ष अपने पांव पर खड़े होने में असमर्थ थीं। अतः उन्होंने मुझे इस योग्य बना दिया कि आज जब एकाकी जीवन तीन दशकों से बीता रहा हूँ, तो सभी कार्य स्वयं ही कर लेता हूँ।
याद आया बाबा तो दिन भर के थकान के कारण निढ़ाल बिस्तरे पर पड़े रहते थें और हम माँ - बेटे अगरबत्ती सुलगा ट्राजिस्टर से आ रही वीरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज को सुनते रहते थें। जो मुझे समझ में तब बिल्कुल ही नहीं आता था। माँ बताती थी कि महिषासुर के अत्याचार से भयभीत देवगण माँ दुर्गा का आह्वान कर रहे हैं।
लगभग 90 मिटन तक मैं बिना किसी हरकत के उस सम्मोहक आवाज को सुनते रहता था।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि...
बस इतना ही मुझे याद हो पाया था ।
पितृपक्ष विसर्जन अमावस्या के दिन सुबह चार बजे देश और दुनिया के तमाम बंगाली उठ जाते हैं. श्राद्ध पक्ष के खत्म होने और दुर्गापूजा के आने के बीच इस दिन अल सुबह हर पारंपरिक परिवार में एक रस्म निभाई जाती है. रेडियो ऑन करके वीरेंद्र कृष्ण भद्र के धार्मिक प्ले महिषासुर मर्दनी को न सुन लिया जाए. दुर्गापूजा की शुरुआत नहीं मानी जा सकती है। कोलकाता में रहने के कारण हम हिन्दी भाषी भी श्रद्धापूर्वक सुनते थें, बिना उसका अर्थ जाने ही..
1931 में पहली बार सुनाए गए इस प्ले का बंगाल के सबसे बड़े पर्व का हिस्सा बन जाना एक अनूठा मिसाल है. 1966 में रेडियो पर पहली बार महालया (पितृविसर्जन अमावस्या का बंगाल में प्रचलित नाम) के दिन वीरेंद्र भद्र के प्ले महिषासुर मर्दनी को ब्रॉडकास्ट किया गया था. देखते ही देखते 90 मिनट की ये कंपोज़ीशन मां दुर्गा के स्वागत का प्रतीक बन गई। 1905 में पैदा हुए वीरेंद्र भद्र प्ले राइटर, ऐक्टर और डायरेक्टर थें। संगीतकार पंकज मल्लिक के साथ मिलकर बनाई गई उनकी कंपोजीशन महिषासुर मर्दनी ने उन्हें साहित्य और कला जगत के साथ-साथ धार्मिक रस्मो-रिवाज का हिस्सा बना दिया। दुर्गा सप्तशती, लोक संगीत और कूछ दूसरे मंत्रों को मिलाकर बनाई गई इस रचना में विरेन के पढ़ने का अंदाज रोंगटे खड़े कर देता है।
सबसे प्रचलित लोककथा के अनुसार महालया में देवी को अपनें बच्चों के साथ कैलाश से अपनें पैतृक घर (पृथ्वी) तक की यात्रा शुरू करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। यह निमंत्रण मंत्रों के जप के माध्यम से और जागो तुमी जागो और बाजलो तोमर एलोर बेनू जैसे भक्ति गीतों को गाते हुए दिया जाता है।
ब्लॉग पर जब अपनी यादों की पोटली को टटोले जा रहा हूँ, तो महालया सुनने से अधिक उतावलापन मुझे और किसी धार्मिक कार्य में रहा हो बचपन में , स्मरण नहींं हो रहा है।
कोलकाता का कालीघाट स्थित माँ काली का मंदिर एवं जगह जगह बने कई मंजिला ऊँचा पंडाल , दुर्गा जी की भव्य कलात्मक प्रतिमाएँ , बाजारों में खूबसूरत बंगाली महिलाओं की भारी खरीदारी और छोटे नाना जी की बड़ाबाजार स्थित प्रसिद्ध मिठाई की दुकान गुप्ता ब्रदर्स की वह रौनक , मिठाई के खाली डिब्बों में रुपये भर- भर कर उसे दुकान से कारखाने तक पहुँचाने का मुझे सौंपा गया कार्य , भला कहाँ भूल पाया आज तक। जब माँ का पैर ठीक था , छोटे नाना जी कार भेज देते थे अपनी , बाबा , माँ और हम एक रात जमकर दुर्गा पूजा घुमते थे।
माँ और वह बचपन एक बार फिर से मिल जाता । एक तड़प सी उठ रही है मन में..
कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन
बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन ..
रात्रि के डेढ़ बज चुके हैं और ये सुखद स्मृतियाँ भी न... क्या बताऊँ, यह निद्रा की देवी के आगोश में जाने ही नहीं दे रही हैं मुझे। बिल्कुल शयन की इच्छा नहीं है, भले ही ठीक सुबह चार बजे उठना है। परंतु यह मन अपने बस में कहाँ है। वह तो कोलकाता के बड़ा बाजार जा पहुँचा है। चौथी मंजिल पर स्थित वह अपना कमरा, वह बारजा , बरामदा , नल से आने वाला वह मिट्टी युक्त गंगा पानी , सोफे पर तकिये के सहारे बैठी माँ , नीचे कारखाने से सुनाई पड़ती बाबा की तेज आवाज... प्यारे, लूडो होगा क्या.. नया प्लास्टिक वाला लूडो ले कर मेरा लगभग दौड़ते हुये सीढ़ियों से उतरना , माँ की हिदायत कि सम्हल कर जा मुनिया .. कहींं पांव फिसल न जाएँ ।
फिर खुद में ही उनका यूँ बड़बड़ाना कि ये चौधरी( बाबा) भी न लड़के को अकेले नीचे बुला लेते हैं। यह नहीं कि कारखाने से किसी आदमी को भेज देतें, हाथ पकड़ नीचे ले जाता , समझते ही नहीं कि कितनी खतरनाक सीढ़ी है। वह हर एक दृश्य मस्तिष्क पटल पर छा सा गया है।
उधर, बाबा थें कि नीचे मुझे जयनदत्तो के कपड़े की दुकान पर लेकर चले जाते थें। दुर्गा पूजा पर हर बंगाली नये परिधान में होते हैं। महिलाएँ तो साल भर की खरीददारी कर लिया करती थीं तब..
अब बस भी करो यार .. चलों बिस्तरे पर, मन को समझाये ही जा रहा हूँ। परंतु उलटे वह मुझसे सवाल कर रहा है कि क्यों इतना बड़ा हो गया तू कि तेरे अपने और जो तेरे सपने थें, सभी दूर चले गये। देख तो वह हावड़ा ब्रिज तूझे ही पुकार रहा है। उस शाम तू यही पर तो खड़ा था न। किस तरह से मचलता था , घोष दादू का हाथ थामे पैदल ही उस पार हावड़ा स्टेशन तक जाने के लिये।
खैर , अब बिस्तरे पर जा रहा हूँ, मन को यह तसल्ली देते हुये सोने का प्रयत्न करता हूँ। बेवजह परेशान करती हैं ये यादें.. कभी हर्ष तो कभी दर्द , इन गीतों की तरह ही..
सपने सुहाने लड़कपन के मेरे नैनों में डोले बहार बनके..
या फिर इस..
जो चला गया उसे भूल जा वो न सुन सकेगा तेरी सदा ..
वैसे, तो ढ़ाई दशक से यह जो मेरा कर्मक्षेत्र है, जहाँ
मैं कर्म पुरुष बना, स्वालम्बी बना, पत्रकार बना, पहचान बनी, धन, उत्तम भोजन और परनिंदा से मुक्त हुआ। जहाँ अभिव्यक्ति का सामर्थ्य भी प्राप्त हुआ , यह तपोभूमि विंध्यक्षेत्र भी भगवती विंध्यवासिनी का महा शक्ति पीठ है। महा त्रिकोण क्षेत्र में आदिशक्ति यहाँ तीन स्वरूपों में विराजमान हैं। महाकाली ,महासरस्वती एवं महा लक्ष्मी , जिनका सम्बंध हम मनुष्यों के तन, मन और धन से है।
पूरे नवरात्र यहाँ बड़ा मेला लगता है। कोई पच्चीस लाख दर्शनार्थी आते हैं यहाँ...
मेरा चिन्तन है कि इन्हीं जगतजननी की प्रतिविम्ब है नारी । यदि इनसे कुछ प्राप्त करना है तो बालक बन जाओ ...त्रिदेवों को ही लें, जो त्रिदेवियों का अहंकार भंग करने दूषित उद्देश्य से गये थें ऋषि पत्नी सती अनसूया के आश्रम । वहाँ उनका उद्देश्य पूर्ण हुआ अवश्य ,किन्तु पुरुष नहीं बालक बन कर । यूँ भी कह लें कि अनसूया की सकरात्मक उर्जा के समक्ष त्रिदेवों का नकारात्मक उद्देश्य बौना पड़ गया ..? माँ के अन्नपूर्णा स्वरुप को लें अब , जिनके समक्ष औघड़ दानी बाबा विश्वनाथ स्वयं याचक के रुप में उपस्थित हैं। माँ का प्रेम देखें की जो भी है उनका , वह सब कुछ महादेव को समर्पित कर दिया। पत्नी की सम्पत्ति को अधिकार से नहीं, वरन् उसमें प्रेम जागृत कर प्राप्त करें हम। हाँ , और यदि नारी क्रोधित हो, तब भी बालक बन जाए । भगवान शिव ने यही तो किया था एक बार , मासूम बालक बन रुदन करने लगे, उधर अनियंत्रित महाकाली ने जैसे ही शिव के उस बाल स्वरूप को देखा, उनमें वात्सल्य प्रेम उमड़ पड़ा, रौद्र रुप शांत हो गया। एक प्रसंग पंचवटी का यह भी है कि आसुरी शक्तियों का विनाश करने से पूर्व भगवान राम ने स्वयं अपने हाथों से पुष्प आभूषण बना माता सीता का श्रृंगार और प्रतीक पूजन किया था, शक्ति अर्जन के लिये...
अतः आप भी चिन्तन करें कि स्त्री के विविध रुपों में कौन श्रेष्ठ है.? मुझे तो माँ का वात्सल्य से भरा वह आंचल आज भी याद है।
मेरी दुनिया है माँ तेरे आंचल में
शीतल चाय जो दुख के जंगल में
ओ मैने आँसू भी दिये
पर तू रोई ना
ओ मेरी निंदिया के लिये
बरसों सोयी ना..
- व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला