गाँधी तेरा सत्य ही मेरा दर्पण
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" हम कोई महात्मा गाँधी थोड़े ही हैं कि समाजसेवा की दुकान खोल रखी है। किसी दूसरे विद्यालय में दाखिला करवा लो अपने बच्चे का.."
पिता जी के स्वभाव में अचानक आये इस परिवर्तन को तब मैं बिल्कुल नहीं समझ पाया था। जिन्होंने हम सभी बच्चों को अनुशासन , नैतिकता एवं कठोर श्रम का पाठ पढ़ाया था। वे उन दिन धन को लेकर इतने निर्मम किस तरह से हो गये थें कि सामने खड़े व्यक्ति की विवशता तनिक भी नहीं समझ पा रहे थे।
वैसे , धन के लिये उन्होंने कभी कोई अनैतिक कार्य नहीं किया था । मुझे गर्व है कि उनके दिखाये गये इस मार्ग पर मैं आज भी चल रहा हूँ। एक छोटे से शहर में मझोले समाचार के जिला प्रतिनिधि के रुप में जो मामूली वेतन मिला । उसी में गुजारा कर लिया।
हाँ, तो मैं पिता जी और महात्मा गाँधी की बात कर रहा था। माता जी से अक्सर मैं पूछा करता था कि पापा को क्या हो गया है। वे पैसे के लिये इतने कठोर क्यों हो गये। उस बेचारे के दो बच्चे थें , छात्र शुल्क कुछ कम कर दिये होते ?
हम तीनों बच्चों को भी तो उन्होंने अपने उस विद्यालय में कभी पढ़ाया था,जिसमें वे अध्यापक थें। तब तो फीस में काफी छूट मिली थी।
आज हमारा स्वयं का स्कूल है। अच्छी पढ़ाई होती है , इसलिये तो ये निर्धन अभिभावक भी अपने बच्चों का दाखिला करवाने आ गये हैं। अन्यथा तो विद्यालय अनेक हैं।
पुरुषप्रधान समाज में मेरे इस प्रश्न का कोई उत्तर माता जी के पास नहीं था ।
परन्तु साधारण अध्यापक से विद्यालय प्रबंधक बने पिताजी के स्वभाव में आया यही परिवर्तन ( लोकव्यवहार की अपेक्षा धन की महत्ता ) हमारे खुशहाल परिवार के बिखराव का कारण बन गया।
काश ! पिताजी पहले की तरह ही संवेदनशील साधारण शिक्षक रहे होते।
आज भी किसी ऐसे अवसर पर जब महात्मा गाँँधी को स्मरण किया जाता है, तो मुझे अपने उसी विद्यालय के प्रधानाचार्य कक्ष में बैठे स्व० पिता जी से तर्क करने की इच्छा प्रबल हो जाती है कि वे छात्र शुल्क और अभिभावक के मध्य बापू को क्यों घसीट लाते थें।
और बड़ा हुआ , तो कतिपय प्रबुद्धजनों के श्रीमुख से यह उक्ति सुनने को मिली - " मजबूरी का नाम महात्मा गाँँधी।"
जिस व्यक्ति के सत्याग्रह आंदोलन से अंग्रेज हुकूमत दहल उठा । उसके बारे संदर्भ में इतनी निम्नस्तरीय अभिव्यक्ति ?
राष्ट्रपिता को ऐसे व्यंग्य वचनों से सम्बोधित करने का अधिकार अपने ही देश में तो किसी को नहीं मिलना चाहिए। निश्चित ही कोई कठोर कानून बने इसके लिये।
बापू ने सबसे बड़ी बात यह कही है - " विश्व के सभी धर्म, भले ही और चीजों में अंतर रखते हों, लेकिन सभी इस बात पर एकमत हैं कि दुनिया में कुछ नहीं बस सत्य जीवित रहता है।"
सत्य का अन्वेषण ,सत्य का पूजन और उसका क्रियान्वयन ..जिस भी व्यक्ति में ये गुण समाहित होते हैं। वह कमजोर नहीं हो सकता , न ही कोई उसे पराजित कर सकता है।
वह भी समय था जब जेंटलमैन अंग्रेज खादी के एक वस्त्रधारी इस फ़कीर का उपहास उड़ाते थें , आज वे ही " गाँँधी के व्यक्तित्व " पर शोधपत्र तैयार करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं।
"कुरीति के अधीन होना कायरता है, उसका विरोध करना पुरुषार्थ है।"
गाँधी जी के यह प्रेरणादायी शब्द का प्रभाव यह रहा कि पत्रकारिता जगत में मुझे एक अतिरिक्त पहचान यह मिली कि अबतक अपने जनपद की मेरी चुनावी समीक्षा सत्य के इर्दगिर्द रही।अतः मुझपर लोगों को विश्वास है कि यह किसी राजनैतिक दल अथवा प्रत्याशी का भोंपू नहीं है।
लेकिन , प्रथम तो मेरा उपहास ही हुआ।
बात उस समय कि है जब लालबत्ती से चलने वाले एक माननीय ने अपने आवास पर पत्रकारवार्ता बुलाई थी। वे अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी थें और जिस विभाग के वे मंत्री थें, उसकी मलाई का कुछ हिस्सा कतिपय पत्रकारों को भी मिल जाता था।
अतः उनके तारीफ में क़सीदे पढ़ने वालों की कमी न थी।
दर्प से अकड़े हुये माननीय सोफे पर आकर बैठें और पांव सामने रखी मेज़ पर था। जिसके चारों तरफ अर्धचंद्राकार में हम पत्रकार बैठे हुये थें। वे अपने क्षेत्र और विभाग के विकास कार्यों की गिनती करवा रहे थें और कतिपय पत्रकार " वाह- वाह " कर रहे थें। किसी को यह कष्ट नहीं हुआ कि मंत्री जी के एक पांव का जूता उनके सामने ही है। मैं ठहरा नया- नया पत्रकार और हमारे समाचार पत्र सांध्य दैनिक गांडीव का अपना अलग तेवर था। अतः इसतरह से चुपचाप बैठना कायरता से कम तो नहीं होता। मैंने माननीय को अपने प्रश्नों से न सिर्फ घेरा , वरन् यह भी कह सत्य से अवगत करा दिया कि फलां प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी की स्थिति आपसे बेहतर है ।
इस पर माननीय का मुझ पर नाराज होना स्वभाविक था। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने कहा कि जाने दें न मंत्री जी नया लड़का है।
खैर , चुनाव परिणाम घोषित होते ही उनके चेहरे की रौनक गायब हो गयी। कुछ दिनों बाद उनका प्रदेश अध्यक्ष का पद भी छिन गया। वे पार्टी से बाहर कर दिये गये। नेपथ्य में ही शेष राजनैतिक जीवन उनका बीता।
हाँ,बाद में यह कहते अनेक लोग मिले कि फलां तो जूता ऊपर करके बैठता था। अरे भाई ! बूरे दिन में उनकी आलोचना करना कितना उचित था ? पीठ पीछे किसी की बुराई भी कायरता है।
गाँधी जी ने जो कहा वह किया भी। कथनी करनी में उनके कोई भेद नहीं था।
हमने अपने उसी प्रिय बापू को तस्वीरों में कैद कर रखा है। उनके आदर्शों को पुस्तकों में छिपा दिया है अथवा उन पर अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं।
ऐसा करने वाले सिर्फ कलम के धनी हैं, कर्म के नहीं। वे एक दिन भी गाँँधी जैसा जीवन नहीं व्यतीत कर सकते हैं। सच कहूँ तो ये वे मदारी हैं, जो किसी न किसी विषय को बापू से जोड़ जनता को उसमें उलझा देते हैं, अपनी प्रसिद्धि के लिये।
उधर, गाँँधी जी के इस अहिंसा दर्शन-
"मैं हिंसा का विरोध करता हूँ क्योंकि जब ऐसा लगता है कि हिंसा अच्छा कर रही है तब वो अच्छाई अस्थायी होती है; और हिंसा जो बुराई करती है वो स्थायी होती है, " पर भद्रजनों का व्याख्यान तो हर वर्ष दो अक्टूबर पर सुनता आ रहा हूँ ,परंतु ऐसे सभ्य जन स्वयं के पद- प्रतिष्ठा के लिये मानसिक हिंसा कम नहीं करते हैं।
अब तक जितने भी राजनेताओं एवं समाज सुधारकों पर मैंने स्वयं का चिन्तन किया है , बापू ही मुझे प्रिय हैं।
मित्र एवं शुभचिंतक पूछते है मुझसे कि ब्लॉगिंग क्यों छोड़ दी। तो सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि ब्लॉगजगत में जब अबोध बालक बन प्रवेश किया था ,तो मुझे लगा कि यहाँ कितना स्वस्थ वातावरण है। कितना स्नेह और सहयोग की भावना है। परंतु जीवन का सबसे बड़ा लांछन मुझे यहीं सहना पड़ा । स्वास्थ्य तेजी से गिरा और फिर आँखों ने भी धोखा दिया । अपना भी मन मलिन होता, इससे पूर्व इसे एक सबक समझ मैं यहाँ से हट गया। मौन हो गया। मुझे विश्वास है कि यदि मैं सत्य के मार्ग पर हूँ , तो अवश्य मेरी निर्दोषता प्रमाणित होगी। मैंने जीवन में अथक परिश्रम से एक सम्मान ही तो कमाया है , इसलिये यहाँ भी मुझे स्नेह से शशि भाई कहने वाले कम नहीं हैं।
वैसे ,बापू ने जमनालाल बजाज को लिखे पत्र में कह रखा है -
" मनुष्य को अपने दोषों का चिंतन न करके, अपने गुणों का करना चाहिए , क्योंकि मनुष्य जैसा चिंतन करता है , वैसा ही बनता है, इसका अर्थ यह नहीं कि दोष देखे ही नहीं ,देखे तो जरूर, परंतु उस का विचार करके पागल न बने। "
सो, जो अपराध मैंने नहीं किया है, उसपर चिंतन क्यों करूँ ?
अतः जीवन की पाठशाला में जो भी पाठ मैंने पढ़ा , उसे शब्दनगरी पर लिख रहा हूँ। यहाँ मुझे कहीं अधिक सम्मान मिल रहा है।
" ख़ामोश होने से पहले " मेरी इस साधारण-सी रचना को अबतक " लगभग साढ़े सात हजार " पाठकों ने पढ़ा है । साथ ही मेरा यह विश्वास और दृढ़ हुआ है कि सत्य के मार्ग पर बने रहो।
बापू निर्विवादित रुप से अपने जीवनकाल में भी महात्मा थें और रहेंगे। इस सत्य पर आवरण नहीं डाला जा सकता है। बस आज यहीं तक ,जीवन की पाठशाला में पुनः मिलते हैं।
-व्याकुल पथिक
चित्र परिचयः 67 साल पुराना पोस्टकार्ड, जो बड़े भैया राजमोहन सेठ के पास अनमोल धरोहर के रूप मे मौजूद है।
31-01-1952