न न्याय मंच है, न पंच परमेश्वर आज भी सुबह बारिश में भींग कर ही अखबार बांटना पड़ा। सो, करीब ढ़ाई घंटे लग गये। वापस लौटा तो बुखार ने दस्तक दे दी, पर विश्राम कहां पूरे पांच घंटे तक मोबाइल पर हमेशा की तरह
समाचार संकलन और टाइप किया। तब जाकर तीन बजे फुर्सत मिली। मित्रों का कहना है कि जब तुम धन और यश दोनों से ही दूर हो, एकांतप्रिय हो गये हो, तो फिर इस उम्र में अपने शरीर को इतना प्रताड़ना क्यों दे रहे हो। सामने पकवान की थाली भी सजी हो, तो भी चार सादी रोटी बनवा कर थोड़ी सी सब्जी संग ही काम चला लेते हो। बहुतों को लगता हो कि यह मेरी सनक है। कुछ तो कह भी देते हैं कि यह क्या पागलपन है कि सुबह पौने पांच बजे ही पेपर बांटने निकल पड़ते हो। वहीं ,जो पुलिस अधिकारी या पैसेवाले लोग प्रातः मुझे साइकिल खड़ी कर बंद दुकान के शटर में से अखबार डालते देखते हैं, वे जो मेरे हॉकर वाले इस रुप से अनभिज्ञ हैं। उन्हें संदेह होने लगता है कि यह शख्स मैं ही हूं कि कोई दूसरा, क्यों कि उन्होंने ने अपने करीबियों से मेरे बारे में यही सुना था कि मैं एक ईमानदार और ठीक-ठाक पत्रकार हूं। मेरी लेखनी को तो वे पहचानते हैं । लेकिन, जैसा कि अकसर होता है कि मेरा समाचार पत्र विक्रेता वाला पहचान दब जाता है। अब पहले आपके इस सवाल का जवाब दे दूं कि मैं अब भी अखबार क्यों बांटता हूं। तो बंधुओं इसके पीछे मेरी
अपनी फिलासफी है। पहला तो यह कि साइकिल की गति के साथ उखड़ती सांसें मेरे चिन्तन की शक्ति भी बढ़ती हैंं। दूसरा मैं अपने इस श्रम का उपहास उड़ते देखना चाहता हूं, ताकि उन तमाम उपदेशकों से आंखें मिला कर यह कह सकूं कि तुम्हारा दर्शन शास्त्र झूठा है। सच तो यह है कि एक ईमानदार व्यक्ति के परिश्रम की कमाई से ठीक से दो जून की रोटी भी नहीं है। मिसाल के तौर पर मैं सामने खड़ा हूं। है यदि साहस तो आंखें मिलाकर आओ मुझसे
बात करों न। तीसरा कारण मैं एक पत्रकार के रुप में अखबार वितरण के माध्यम से श्रमजीवी वर्ग को यह बतलाना चाहता हूं कि आजीविका के लिये कुछ तो जुगाड़ का कारोबार करों। अन्यथा सावधान ! ईमानदारी का तमगा बांटने वाले ऐसे उपदेश , जाहे तुम कितने भी योग्य हो, अपने कर्म को ही
धर्म मानते हो, चाहे गीता के इस
ज्ञान को किसी से सुन बैठे हो कि जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान । अरे पगले! ऐसा कुछ भी नहीं है । प्यारे यह दुनिया जुगाड़ से चलती है। अन्यथा अपने जुम्मन चाचा को साठ वर्ष की इस अवस्था में रिक्शा क्यों खिंचवाते ईमानदारों के ये शहंशाह। क्या कसूर है ,उनका यही न कि जुगाड़ तंत्र से वाकिफ नहीं थें। नहीं तो अपने जमाने के इंटर पास हैं। सुबह एक दुकान के चबुतरे पर निढ़ाल पड़े मिलते थें। बीड़ी पी लेते हैं, पर दारू को हाथ तक नहीं लगाया है। ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं सुबह, जेंटलमैनों की इस दुनिया में। अतः मित्रों मेरा चिन्तन स्पष्ट है कि यहां न न्याय मंच है, ना ही पंच परमेश्वर। यहां जो है, वह जुगाड़ है, मक्कारी है, चाटूकारिता है, गणेश परिक्रमा है और झूठ की जय है । आपने कभी उस महिला अध्यापिका का दर्द जाना है, जिसके पास कितनी ही डिग्रियां हैं, स्वयं भी बहुत शिष्ट है, पर दुर्भाग्य से सरकारी
नौकरी नहीं मिली, तो प्राइवेट स्कूल की चाकरी करनी पड़ी। पूरे निष्ठा से विद्यालय में अपना शिक्षक धर्म निभाने के बावजूद वेतन उसे कितना मिलता है, मालूम है न ? और उसकी मनोस्थिति का यह भी सच मैं आपकों आज बतलाता हूं कि वह हर बच्चों से यही कहती है कि सकारात्मक सोचो, खूब प्रगति करोगे। परंतु उसका स्वयं का जीवन पीड़ादायी संघर्ष से गुजरता है। वह देख रही है कि सरकारी स्कूलों में स्वेटर बुनाई कर उससे कम योग्य अध्यापिकाएं उसकी अपेक्षा दस गुना वेतन पा रही हैं। उसका आत्मबल तब और भी टूटने लगता है, जब वह अपने ही विद्यालय के किसी सहयोगी शिक्षिका को नये - नये फैशन वाले पोशाक, महंगे स्मार्टफोन और बढ़िया कम्पनी की स्कूटी से देखती है, जो स्कूल से निकल रेस्टोरेंट में भी लजीज व्यंजनों का लुफ्त उठा रही होती हैं और यहां तो उसे अपने बच्चों के लंच बाक्स में कुछ महंगी भोज्य सामग्री रखने तक के लिये बजट में कहां- कहां से कटौती नहीं करनी पड़ती है। आखिर सहयोगी शिक्षिका ने किस जुगाड़ तंत्र से यह अमीरों जैसी व्यवस्था हासिल की ,यह भी जगजाहिर है। कोई अपना ईमान बेच रहा तो कोई अपना तन और कोई मन भी बेच रहा है !
राजनीति के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है । कल तक जो बड़े माफिया थें , आज धन,जाति और बाहुबल रुपी इस जुगाड़ तंत्र से माननीय बन बैठे हैं। पूछे ना साहब फिर वे भाषण मंच से किस तरह से नैतिकता की बातें करते हैं। मैं अपने जैसे कुछ पत्रकारों की बात छोड़ दूं, तो वहां उनके चौखट पर मीडिया कर्मी परेड करते रहते हैं। बड़े समाजसेवी के रुप उनकी नई पहचान माननीय वाली बनाने के लिये चार से छह कालम की खबर अगले दिन छपती है। उधर , अपने कामरेड सलीम भाई लाल सलाम कहते-कहते केश- दाढ़ी सफेद कर चुके हैं।कितने ही क्रांति दूतों की पुस्तकें उन्होंने पढ़ी होगी, पर वोटों के जुगाड़ तंत्र की सियासत नहीं जानते हैं, इसलिये कल भी पैदल थें और आज भी है। अब क्या कहूं , अपने अहिंसा के पुजारी अपने गांधी जी की लंगोटी तक ये जुगाड़ू नेता बटोर ले गये , तो हमें सादगी से रहने का उपदेश देने वाले बुद्ध, महावीर और साईं बाबा भव्य उपासना स्थलों में आज बैठे हैं। मेरे पिता जी स्वयं एक ईमानदार अध्यापक थें। वे क्यों झुंझला उठते थें, अब मुझे इसका एहसास हुआ है। फिर यदि समाज आपको ईमानदार नहीं बने रहने देना चाहता है, वह आपके श्रम का उपहास उड़ाता है। जैसा मैंने अपने कानों से सुना है और कुछ अपनों ने भी टोका है कि जानते हो, लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं ? जाने दो नहीं बताऊंगा ,नहीं तो तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचेगा। वैसे, उन्हें यह भी मालूम है कि मान- अपमान को लेकर मुझे उतनी पीड़ा नहीं होती है अब, जितना मुझे कोई ईमानदार पत्रकार कह कर सम्बोधित करता है तब । मैं अपने जीवन की डिक्शनरी से इसी एक शब्द को मिटा देना चाहता हूं। अपनी खुशी के लिये भी और अपने जैसों को भी इसी जुगाड़ तंत्र की राह पर लाने के लिये। आप कह सकते हैं कि शशि भाई पच्चीस वर्षों के इस संघर्ष को आप पल भर में यूं नहीं नष्ट करें और मैं कहता हूं कि जब समाज अपने कर्मपथ पर चलने वाले लोगोंं का संरक्षण नहीं करें, तो हमारी ईमानदारी किसके लिये है, क्या उपहास करने वालों के लिये है अथवा इस रंगबिरंगी दुनिया में फकीर बनने के लिये हैं । या फिर अपनी ही राह पर औरों को भी लाकर उसे बर्बाद करने के लिये है। भले ही आज जब मैं साइकिल से अखबार बांट रहा होता हूं, तो पीछे से कोई पगलवा पत्रकार कह लें, कोई वेदना नहीं होती है। संस्थान ने मेरी वफादारी को मेरी बेरोजगारी में तब्दील कर दिया ,उसका भी गम नहीं है। मुकदमे ने मेरी लेखनी को कमजोर कर दिया, उससे भी मैं नहीं घबड़ाया। इसलिये क्यों कि जुगाड़ तंत्र ने काफी पहले ही मेरा दंड निर्धारित कर दिया था । पर यह मेरी भी जिद्द ही थी कि मैंने उसके सामने (जुगाड़ तंत्र ) समर्पण नहीं किया और अब तो करने का कोई सवाल ही नहीं, क्यों कि जिस अवस्था में मैं अब हूं, वहां मोह के लिये कोई स्थान नहीं है। यहां मैं यदि अपने जीवन के इस सफर पर पूर्ण विराम लगा भी दूं, तो मुझे तनिक भी दुख नहीं होगा। हां, एक चिन्ता थी कि मृत्यु के पश्चात मेरे इस संघर्ष की
कहानी इतिहास के पन्नों में दफन न हो जाए, तो इसके लिये ब्लॉग पर बहुत कुछ लिख चुका हूं। सो, आजके लिये बस इतना ही कि " ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है, वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है, यहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हैं?"