साथी हाथ बढ़ाना ... एक अकेला थक जाएगा , मिलकर बोझ उठाना ********************************************** पत्रकारिता में अपनों द्वारा उपेक्षा दर्द देती है, लेकिन गैरों से मिला स्नेह तब मरहम बन जाता है ********************************************* "आज हम
अपनी दुआओं का असर देखेंगे तीर-ए-नज़र देखेंगे ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे" विषय गंभीर है। हम पत्रकारों से जुड़ा है।यह जख्म भी हमारा है और यह दुआ भी हमारी है। पत्रकारिता में कभी- कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि हम चाहे कितने भी कर्मठ पत्रकार हो, स्वाभिमानी हो, ईमानदारी से और पवित्रता के साथ अपनी लेखनी का प्रयोग किये हो , फिर भी किसी ऐसे मोड़ पर जब हम टूट जाते, बिखरने लगते हैं, प्रभावशाली पत्रकार होने का उसका दर्प जाता रहता है और यह मन हाहाकार कर उठता है कि दशकों के परिश्रम का क्या यही परिणाम कि जिस संस्थान के लिये हमने अपना घर- परिवार , अपना यौवन और अपना जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया। उसी की नजरों में हम बेगाने से हैं। ऐसे संकटकाल में जब हम बिस्तरे पर पड़ जाते हैं, तो अखबारों के पन्ने पर तब हमारी कोई खोज- खबर नहीं होती , जबकि हम हर एक की खबर खोज - खोज कर लिखते रहें । वहीं जब हम जीवन- मृत्यु से संघर्ष करते हैं, तो सबकुछ दांव पर लगाने के बावजूद बड़े अखबारों को हमारे फोटो , हमारे नाम तक से परहेज रहता है। हमें एक पत्रकार ( न हमारा नाम नहीं , ना ही उस
समाचार पत्र का जिसके लिये हम काम करते हैं) लिखते , क्या इन समाचार पत्रों के स्वामी यह जतलाना चाहते हैं कि तुम हमारे कोई भी नहीं। आखिर क्यों वह संवेदना हमारे प्रेस के मालिकानों में तनिक भी नहीं होती है, जैसा हम अपने संस्थान के लिये सदैव करते रहे हैं । जबकि अस्पताल में हमें देखने कितने ही विशिष्ट जन आते हैं । वे सिर्फ सम्वेदना जताने ही नहीं आते हैं ,वे समारा सहयोग भी करते हैं। पर जिनका बस्ता हमने वर्षों ढ़ोया , वे कहां गये ? ऐसे में हृदय का ताप और भी बढ़ जाता है। वह मौन रुदन बन जाता है। नम आंखें जो दास्तां बयां करती हैं, खामोश जुबां पर जो शब्द होते हैं , उस पत्रकार के ... "नादान ……नासमझ …….पागल दीवाना । सबको अपना माना तूने मगर ये न जाना । मतलबी हैं लोग यहाँ पैर मतलबी ज़माना । सोचा साया साथ देगा निकला वो बेगाना । बेगाना …….बेगाना …. अपनों में मैं बेगाना बेगाना ।" कुछ ऐसा ही तो होता है न ? यहां मैं कि किसी एक पत्रकार की
बात नहीं कर रहा हूं। हममें से बहुतों के साथ ऐसा होता ही रहा है। श्रमिक पत्रकार जो ठहरे हम , यूं भी कह लें कि हर क्षेत्र में कुछ ऐसा ही होता है। वफादारी की इतनी कीमत इस जुगाड़ तंत्र में चुकानी ही पड़ती है। ऐसे में तब बस एक ही भरोसा होता है, वह है हमारी दुआ। हमारे शुभचिंतकों का स्नेह एवं हमारे मित्रों का कर्तव्य हमें नवजीवन देता है । यदि हम किसी कारण पहले की तरह स्वस्थ्य नहीं भी हुये, तो भी हममें इतना आत्मबल तो निश्चित ही विकसित हो जाता है कि हम मृत्यु को एक बार पुनः ललकार सकते हैं और अपनी लेखनी को पहले से कहींं अधिक समाज को समर्पित कर सकते हैं। ठोकर खाने के बाद हमारे पांव अब धरातल पर होता है, ऐसे में हम दिवास्वप्नों में ही उलझे नहीं रह जाते हैं। जिन्होंने हमें स्नेह दिया , नवजीवन दिया, उनकी छवि हमें प्राणी मात्र में दिखने लगती है। यही तो जीवन का लक्ष्य होता है न मित्रों ? अपने पत्रकारिता समाज पर एक बार फिर बहुत कुछ लिखना चाहता हूं, मन का वर्षों पुराना दर्द विस्फोट करने को है, पर क्या मिलेगा इससे। हमारे एक बड़े भाई जो ढ़ाई- तीन दशक से पत्रकारिता के प्रति समर्पित रहे हैं, करीब 18-20 दिनों से अस्पताल के बेड पर पड़े रहें । पुलिस एवं अपराध से जुड़ी खबर की जानकारी उनसे बेहतर तो इस जनपद में किसी के पास नहीं रहती। सो, उनकी तूती बोलती थी। लेकिन, जब वे बिस्तर पर गिरे , तो उन्हें उठाने कौन आगे आया , जानते हैं आप ? हमारे जैसे साथी पत्रकार के अनुरोध पर यह समाज ही आगे आया। यह वही समाज है जिसे हम अकसर बेगाना कहते रहते हैं, लेकिन वह तो अपना निकला। सच तो यह है कि संवेदनाएं हमारी मरी नहीं है, बस वह इस जुगाड़ तंत्र की शिकार हो गई है, कुंठित हो गई है और राह भटक गई है। सोशल मीडिया पर उनके लिये सहयोग की अपील करने में ही हाथ कांप उठा था मेरा उस दिन , क्यों कि अस्पताल के वार्ड में बेड पर पड़े वरिष्ठ पत्रकार मित्र की आंखों में एक दर्द निश्चित ही रहा, कितनों का उन्होंने इसी अस्पताल में इलाज करवाया था और आज वे असहाय से निढ़ाल पड़े थें। फिर ठान लिया हम साथियों ने कि अब कुछ करना है और सोशल मीडिया पर मैंने यह पोस्ट किया कि " साथी हाथ बढ़ाना ... एक अकेला थक जाएगा , मिलकर बोझ उठाना " फिर क्या था दुआओं का असर दिखा । जनप्रतिनिधियों , समाजसेवी जनों एवं आम आदमी तक ने हम पत्रकारों के लिये संकटमोचन की भूमिका निभाई। सो, पर्याप्त धनराशि और चिकित्सकीय व्यवस्था हो गई। यही हमारी कमाई है कि यदि सहयोग के लिये पुकार लगते ही समाज आगे आता है। भले ही संस्थान आये ना आये। पर यह याद हम पत्रकारों को भी सदैव रखना चाहिए कि हमारी लेखनी संस्थान की ही गुलामी न करती रहे , उसे जनहित में चलनी चाहिए। अपनी बात कहूं, तो जब अपनो ने निठल्ला सम़झ कर बेगाना बना दिया था, कोई तीन दशक पहले। जब अपना स्वयं का घर होने के बावजूद रेलवे स्टेशन की कुर्सियों पर रातें गुजारीं , तब भी अपना यही समाज ही तो आगे आया मेरे लिये भी । था क्या मैं इस अनजाने शहर में, एक बंजारा ही न ? पर किसी ने भोजन दिया, तो किसी ने रहने का ठिकाना, मान मिला , पहचान मिला । आज भी इन्हीं स्नेही जनों के कारण ही रोटी और मकान की मेरी व्यवस्था है। वे जानते हैं कि मैं समाज की सम्पत्ति हूं, उनका धन हूं। उनका मेरी प्रति यह जो विश्वास है न , वह किसी खजाने से कम नहीं है मेरे लिये ।अन्यथा वर्ष 1999 में जब मामूली सा सर्दी-जुखाम मेरे लिये घातक मलेरिया रोग में बदल गया। जो आज तक इस दुर्बल शरीर को पीड़ा दिये ही जा रहा है आज तो काफी तकलीफ में रहा । सो, अकसर ही मन को समझता हूं कि देखो साथी हो सकता है कि हमने जाने- अंजाने में हमने कोई बड़ा पाप किया हो, किसी की बद्दुआ ली हो, तभी यह मामूली सा रोग नासूर बन बैठा है। फिर भी इतना तो तय है कि कुछ अच्छे कार्य मैंने भी निश्चित ही किये हैं कि मेरा जीवन, मेरी लेखनी एवं मेरा चिंतन उचित मार्ग पर है। अपनी चदरिया में जो दाग लगा है, उसे यहीं प्रायश्चित से पवित्र करना है। सत्य के मार्ग पर चलना है। कोई न कोई मददगार आएगा, इतना विश्वास रखना होगा हमें। इसलिये जो कष्ट आया है, हे मन ! उसे सहर्ष स्वीकार कर लो , मेरा अब लगातार यही एक प्रयास चल रहा है। माना कि मैं अब कभी स्वस्थ नहीं हो सकता , फिर भी औरों के लिये कुछ कर तो सकता हूं । ऊपरवाले का यह रहम क्या कम है ? यह भी तो हमें स्मरण रहना चाहिए कि... " मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है। जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है।" इसलिये बिना किसी शिकायत के हमें अपना सामाजिक उत्तरदायित्व पूरा करना चाहिए , ताकि यह कहते हुये इस खुबसूरत जहां से विदा ले सकें... "रहें ना रहें हम, महका करेंगे , बन के कली, बन के सबा, बाग़े वफ़ा में ।"