" माटी चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा । ना घर तेरा, ना घर मेरा , चिड़िया रैन बसेरा । " बनारस में घर के बाहर गली में वर्षों पहले यूं कहे कि कोई चार दशक पहले फकीर बाबा की यह बुलंद आवाज ना जाने कहां से मेरी स्मृति में हुबहू उसी तरह से पिछले दिनों फिर से गूंजने लगी। कैसे भागे चला जाता था खिड़की की ओर झांक कर गली में उन्हें देखने। हांलाकि घर की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं रही तब । अतः मुझे यह तो याद नहीं कि हमलोगों ने भी उनकी झोली में कुछ डाला हो। वैसे, वे भी कहां मांगते थें किसी से । बस अपने धुन में यह कहते हुये कि " उड़ जाएगा हंस अकेला,जग दो दिन का मेला ! " आगे बढ़ते ही जाते थें । कारण भिक्षावृत्ति संग लोभ उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। जो वे हाथ पसारे हे मेरे माई-बाब ! इस गरीब को कुछ दे दो, भगवान भला करे तेरा, कुछ ऐसा कहते फिरते । वे तो बस इतना कहते थें कि " खुश रहे तेरी नगरी " । जाहिर है कि व्यक्ति विशेष न, हो कर पूरे समाज के कल्याण के लिये वे दुआ करते थें। अब यदि
अपनी बात करुं तो उस बाल्यावस्था में भी फकीर बाबा की तरफ मैं खींचा चला जाता था। लेकिन एक बात तब मेरा बालमन समझ नहीं पाता था कि अन्य भिखारियों से फकीर बाबा अलग क्यों हैं। न हाथ पसारते हैं, न गिड़गिड़ाते हैं , बस जिसे कुछ देना है , उनकी झोली में डालो आशीर्वाद लो और आगे बढ़ो। यहां मीरजापुर में जहां मैं पहले बाबू अशोक सिंह के यहां रहता था। वहां भी नवरात्र में अन्य प्रांत से एक युवा साधु आते हैं। एक पात्र ही उनके पास रहता है। जो भी भोज्य पदार्थ पूड़ी-कचौड़ी, सब्जी, रायता, चटनी ,दूध, दही और मिठाई सभी उसी में एक बार में ही ले लेते हैं। जिससे सभी आपस में मिल जाते हैं। जाहिर है कि व्यंजनों के स्वाद से स्वयं को दूर रखने के लिये वे ऐसा करते हैं, बिल्कुल सरल स्वभाव है उनका। विंध्यवासिनी धाम वे नवरात्र में साधना के लिये आते हैं। वे बाबू साहब के ईंट भट्ठे पर ही नवरात्र में रहते हैं। स्वस्थ शरीर ,शांत स्वभाव एवं मुखमंडल पर तेज है उनके । जबकि काशी में ऐसे मुस्टंडा बाबा भी दिखते थें, जो सजधज कर बैठे रहते थें, कहींं न कहीं । सुबह से शाम उनका शिकार ( यजमान) तलाशने में ही गुजर जाता था। सच तो यह है कि एक सच्चा फकीर लौकिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करता, आज के तमाम उपदेशकों की तरह। फकीर बाबा का मिसाल ब्लॉग पर मैं इसलिए दे रहा हूं कि मैं स्वयं भी उनका अनुसरण करना चाहता हूं, क्यों कि मैं इस स्थिति में हूं कि यदि कोई कार्य यहां के प्रतिष्ठित जनों या जनप्रतिनिधि से कह दूं, तो वे इंकार तो नहीं ही करेंगे, इतना तो सम्मान मेरा करते हैं, अनेक ऐसे सामर्थ्यवान लोग । अतः हम यदि समाजसेवा के क्षेत्र में हैं, पत्रकार हैं, चिंतक हैं, लेखक हैं , समाज सुधारक हैं, उपदेशक है और संत हैं, तो अपने त्याग को इतना बल दें कि स्वयं ही समर्थ जन कहें कि मांगों क्या चाहिए। भक्त की कठिन तपस्या पर ईश्वर भी तो यही कहते हैं न, परंतु जिसकी भक्ति सच्ची है, वह फिर भी स्वयं कुछ नहीं मांगता। यही सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। मांग ही लिया तो फिर शेष बचा क्या ? सभी जानते हैं यहां कि अपने लिये मुझे कुछ नहीं चाहिए। फिर भी स्नेह में कहते हैं कि शशि जी अब तो इस अवस्था में साइकिल से न चलें, कहें तो बाइक या स्कूटी की व्यवस्था करवा दूं। पर मेरा काम जब साइकिल से हो जा रहा है, तो मैं लोभ क्यों करूँ। हां, सोशल मीडिया पर लगातार
समाचार पोस्ट करता रहता हूं। कई व्हाट्सएप्प ग्रुप हैं । मोबाइल पर ही स्नान, भोजन और शयन को छोड़ पूरा दिन गुजरता है। ऐसे में जाहिर है कि मेरे सेल फोन खराब होते ही रहते हैं। अतः किसी ने नया मोबाइल दिया तो उसे निःसंकोच स्वीकार भी कर लेता हूं। कारण मोबाइल पर तमाम खबरें जनहित में पोस्ट करता हूं। काफी संख्या में यहां गणमान्य जन इन ग्रुपों से जुड़े हैं। परंतु फिर भी मैं अपने ग्रुप में कोई विज्ञापन नहीं चलाता, क्यों कि यह मेरा
व्यापार नहीं है। इस जनसेवा के लिये स्नेही जनों ने मेरी आवश्यक को देखते हुये मोबाइल दिये भी हैं। लेकिन, जिस दिन अपने मित्र मंडली को समाचार पोस्ट करना बंद कर दूंगा। फिर यह सुविधा किसी ने देनी भी चाही, तो नहीं लूंगा। लोभ, मोह, प्रलोभन और यश की चाहत से जब- तक हम ऊपर नहीं उठेंगे, फकीर बाबा की तरह आनंदित कैसे हो सकेंगे। चाहे वह राजा ही क्यों न हो। सर्वप्रथम हमें अपने प्रति अनुशासन तय करना होगा। जैसे मैंने निश्चय किया है कि इस वर्ष से एक समय दलिया एवं दूसरे वक्त चार सादी रोटी और एक सब्जी से काम चला लूंगा। अब मेरे सामने से ही ढ़ेरों पकवान गुजरते हैं। फिर भी एक मिठाई से अधिक कुछ नहीं उठाता। ऐसे संकल्प ही हमारे लोभ को नियंत्रित करते हैं। फिर तब जब हम कुछ लिखते हैं, कहते हैं और बोलते हैं , तो वह हमारे त्याग का दर्पण होता है। जिसमें हर कोई स्वयं को निहारने एवं निखारने का प्रयत्न करता है। तब हम सच्चे फकीर , समाज सुधारक कहे जाते हैं। इसके लिये हम अपनी अंतरात्मा की पुकार सुनते रहें, मार्ग प्रशस्त होता रहता है ... " तोरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये।"