यादों के झरोखे में तुझकों बैठा रखूंगा अपने पास नाग पंचमी पर याद आया अपना भी बचपन ------------------------------------------------------------------ सुबह जैसे ही मुसाफिरखाने से बाहर निकला , "ले नाग ले लावा " बच्चों की यह हांक चहुंओर सुनाई पड़ी। मीरजापुर में इसी तरह की तेज आवाज लगाते गरीब बच्चे एक झोले में लावा और नागदेवता के रंगबिरंगे फोटो लिये दरवाजे- दरवाजे दस्तक देते आ रहे हैं, कितने ही वर्षों से , हालांकि इस तरह से गला फाड़ कर हांक लगाना मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। इन बच्चों की आवाज में वह मासूमियत नहीं रहती है , जो मेरे बनारस की गलियों में बचपन में सुनाई पड़ती थी कि " छोटे गुरु क बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो "। एक मिठास थी उन बच्चों की आवाज मेंं। तब सामान्य परिवार के बच्चे भी निकला करते थें। बचपन की उन मीठी स्मृतियों में कुछ देर और खोना चाह रहा था कि तभी तेज बारिश शुरू हो गयी। साइकिल किनारे की और रेनकोट पहनने से पूर्व मोबाइल के स्क्रीन पर नजर डाली , देखा कि सुबह के पांच बच चुके थें। फिर भी अखबार का बंडल लेकर जीप नहीं आयी थी अभी तक। करीब पौन घंटे विलंब से वह आयी और फिर शुरू हुआ ढ़ाई घंटे का मेरा साइकिल से वही रोजाना की तरह सड़क तथा गलियों को नापने का सफर । इस दौरान बारिश में कुछ भींग भी गया था और पिछले सप्ताह भर से सर्दी-जुखाम के कारण बुखार भी चढ़ उतर रहा है। तभी, बारजे पर खड़े मेरे प्रति स्नेह रखने वाले अग्रज तुल्य अजय शंकर भैया ने आवाज लगाई कि शशि चाय पीकर जाओ। सो, साइकिल खड़ी की कदम कुछ लड़खड़ा रहे थें कमजोरी से , लिहाजा कोई आधे घंटे वहीं ठहर गया। वे भी पुराने पत्रकार हैं। सो, पत्रकारिता जगत में जनपद स्तर पर क्या स्थिति है उसपर चर्चा शुरू हो गयी। जिसके केंद्र में वरिष्ठ पत्रकार दिनेश उपाध्याय रहें। जो पखवारे भर से जिला अस्पताल में भर्ती हैं। दरअसल, पचास वर्ष की अवस्था के बाद यदि हम वास्तव में श्रमिक पत्रकार हैं, तो फिर शरीर साथ छोड़ने लगता है। अभी दो दिन पूर्व ही मेरे प्रति अत्यधिक स्नेह रखने वाले
राष्ट्रीय सहारा
समाचार पत्र के ब्यूरोचीफ बड़े भैया प्रभात मिश्र भी अचानक गंभीर रुप से अस्वस्थ हो गये थें। बाइक खड़ी कर जैसे ही मंडलीय चिकित्सक पहुंचे हिम्मत जवाब देने लगी उनकी। किसी तरह से एक संदेश उन्होंने दिया कि शशि जल्दी आ जाओ। यह जो तरह- तरह का दबाव हमलोगों पर प्रेस की तरफ से रहता है न, वह मीठे जहर की हमारे
स्वास्थ्य को लगातार क्षति पहुंचाता रहता है। यही नहीं परिवार के सदस्य विशेष कर श्रीमती जी आगबबूला हुये रहती हैं कि दिन भर घर से गायब रहते हो फिर भी जेब खाली, भाड़ में जाये तुम्हारी पत्रकारिता। फिर भी पत्रकारिता के प्रति हमारा मोह हमें तब तक अपने से दूर नहीं जाने देता , जब तक बिस्तरे पर ना गिर जाऊं । ऐसे में मुझे अपने अपना पसंदीदा गाना याद आ गया... " जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ जी चाहे जब हमको आवाज़ दो हम हैं वहीँ हम थे जहां अपने यहीं दोनों जहाँ " खैरे, मैं अपने एक और मित्र डा0 योगेश सर्राफा के प्रतिष्ठान पर गया। उसके बाद बारिश में ही प्रमुख फर्नीचर व्यवसायी संदीप भैया के प्रतिष्ठान पर , जहां राष्ट्रीय पर्व पर ध्वजारोहण की विशेषता यह है कि मुहल्ले भर से अमीर- गरीब सभी एकत्र होते हैं। संदीप भैया स्वयं भारी मात्रा में हलवा बनाते हैं। सभी प्रसाद के रुप में उसे ग्रहण करते हैं साथ ही जो भी श्रमिक, याजक , वृद्धजन एवं बच्चे उधर से गुजरते रहते हैं, घंटों उन्हें दोने में भर-भर के हलवा दिया जाता है। एक धन सम्पन्न व्यक्ति जब बिना किसी स्वार्थ भाव के इस तरह का सामाजिक कार्य करता है, तो ऐसे महायज्ञ के हवनकुंड से निकलने वाली सुंगध मुझे सदैव आह्लादित करती रही है। नहीं तो एक पत्रकार होने के कारण अनेक जगह आमंत्रित मुझे भी किया गया था। पर , सच बताऊं मैं कहीं भी जाता नहीं, बहाना बना टाल देता हूं । कलेक्ट्रेट और पुलिस लाइन में आयोजित कार्यक्रम में भी नहीं। किसी क्लब के समारोह में तो बिल्कुल भी नहीं। ये बड़े लोग( धनिक जन ) अपने फंक्शन में कभी - कभी जो दानदाता होने का दिखावा करते हैं। वह मुझे पसंद नहीं है। किस तरह से किसी महिला को सिलाई मशीन देने के लिये या फिर किसी वृद्ध को कंबल देने के लिये अपने दानवीर होने और उस निर्धन जन की गरीबी की नुमाइश लगाते हैं वे वहां । उसकी फोटोग्राफी भी करवाते हैं। फिर अपने दानदाता होने के प्रमाण पत्र के रुप में उसे हम पत्रकारों से प्रकाशित करवाते हैं। अतः जहां अमीर- गरीब का भेदभाव हो,वहां जाकर ताली बजाना मुझे पसंद नहीं है। सो, अखबार से खाली हो कर दलिया बनाया फिर महसूस हुआ कि बुखार और दर्द कुछ अधिक ही है। लिहाजा कमरे पर जा कर सो गया। दोपहर बाद उठा तो साल के प्रथम पर्व पर जब अकेलेपन का फिर से एहसास होने लगा।
व्याकुल मन यह कहने लगा - " एक वो भी दिवाली थी, एक ये भी दिवाली है उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है " फिर तभी अचानक नागपंचम की बचपन की अनेक यादों स्मृतियों में आती चली जा ही रही रही हैं। जब बनारस में था, तो किस तरह से घर के सभी दरवाजे पर नागदेवता का फोटो लगा कर पूजा होती थी । जिसे हम तीनों ही बच्चे निहार करते थें। अपने पसंद के नाग देवता के फोटो खरीद कर लाते थें। वैसे, हम भाई -बहन को घर से बाहर जाने की इजाजत तो नहीं थी। सो, गलियों से गुजरते अन्य बच्चों की टोलियों को बस देखा करते थें हम। पूड़ी- कचौड़ी साथ में खीर भी भोजन में मिलता था। वह गरीबी के दिन थें, फिर भी हम बच्चों की खुशी के लिये क्या क्या- नहीं होता था। वहीं कोलकाता में था, तो वहां सादे कागज पर बड़े गुरु और छोटे गुरु दोनों नागदेवता को मैं स्वयं बनाता था, क्यों वहां इनका फोटो तब नहीं मिलता था, न ही यह पर्व वहां प्रसिद्ध है। किशोर हुआ तो बनारस में घर के सामने अखाड़े में ताल ठोंकते पहलवानों को देखने पहुंचे जाता था। फुलाया हुआ चना और बताशा हम सभी को मिलता था। लेकिन, मां (नानी) की मृत्यु के बाद न तो कोलकाता को कभी भूल पाया, न ही उस नटखट पन को। पता नहीं मेरी शरारत पर एक दिन मां ने ऐसा क्यों कह दिया कि मुनिया सता ले , पर जब नहीं रहूंगी, तो दुख सहेगा तब समझेगा। मां की उस झिड़क पर मैंने उनकी गोद में सिर रख दिया। पता नहीं लाड प्यार में मैं इतना शैतान कैसे हो गया था। वह चेतावनी आखिर सच हो गयी है। फिर भी इस एकांत में ऐसा क्यों लग रहा है कि मां सामने ही खुले उसी सोफे पर बैठी हुई है। जिस पर एक तरह से उनकी आधी गृहस्थी सजी रहती थी। हो, सकता है कि उन्हें भी मेरी प्रतीक्षा हो। परंतु अभी तो मेरा मन इस गीत को सुनना चाह रहा है- " मगर रोते-रोते हंसी आ गई है ख़यालों में आके वो जब मुस्कुराए वो जब याद आए बहुत याद आए " मेरा तो यही मानना है कि इंसान ( स्त्री- पुरूष) प्रेम में भले ही धोखा खा जाए । वह दूध पिलाने के बावजूद सर्प बन डस ले। लेकिन जो स्नेह करते हैं , वे रहें न रहें फिर भी उनका आशीर्वाद सदैव संग रहता है। मैंने इन्हीं स्मृतियों के सहारे हर वेदना, हर धोखे को सहन किया है। साथ ही इस दर्द से उभर कर एक खूबसूरत समाज हो, इसके लिये कुछ चिंतन भी कर लेता हूं।