जागते रहेंगे और कितनी रात हम ...
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सच कहूँ, तो मेरा अब तक का अपना चिन्तन जो रहा है, वह यह है कि पुरुष व्यर्थ में श्रेष्ठ होने के दर्प में जी रहा है ,क्यों कि वह नारी ही जो अपने प्रेम, समर्पण और सानिध्य से उसे सम्पूर्णता देती है। यहाँ उसका सहज कर्म योग है।
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मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा
मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को, तू सुने ना सुने
मुझे देखकर कह रहे हैं सभी
मोहब्बत का हासिल है दीवानगी
प्यार की राह में, फूल भी थे मगर
मैंने कांटे चुने...
इस खूबसूरत नगमें से अपने नादान दिल को बहलाने की नाकाम कोशिश में बंद कमरे के बाहर की रोशनी का एहसास कर रहा था। अवसाद का घटाटोप कभी- कभी कर्मपथ में रुकावट बन जाता है। यह जीवन है क्या सांप- सीढ़ी का ही तो एक खेल है न, इंसान कभी धरती से आसमां की बढ़ता- मचलता दिखता है, तो कभी कटी पंतग बन कर रह जाता है।
कुछ जीवित्पुत्रिका पर्व सोच रहा था, अपने बचपन की मधुर स्मृतियों को , हम दोनों भाइयों का आज के दिन रंग था। किसी की डांट नहींं पड़ती थी। मेरी निगाहें तो पूजा की थाली में पड़े चना और मटर पर जमी रहती थीं। जो अगले दिन तक अंकुरित हो जाता था। मेरे लिये इन्हें तेल और जीरे के तड़का से तल दिया जाता था। महिलाओं के पर्व और रसोईघर से मुझे न जाने क्यों कोलकाता में जो लगाव हुआ, वह आज नासूर बन इस कोमल हृदय को बार-बार संताप देते रहता है। बाजार से लेकर गंगा घाटों पर कैसा उत्सव का माहौल रहा आज ,पर मैं किसी के जिगर का टुकड़ा कहाँ रहा , ना कोई मेरा ही रहा ..
कब से अपने विकल मन को यही तो समझा रहा हूं कि किस्मत का खेल निराला है दोस्त, शांत हो जा न प्यारे ..
परिवार में बिखराव क्या आया कि इन सभी छोटी- छोटी खुशियों पर अकाल्पनिक ग्रहण लग गया। फिर तो अपने तीन दशक के एकाकी जीवन बस यादों के सहारे ही गुजरा है।
तभी रेणु दी का एक भावविह्वल करने वाला संदेश स्मरण हो आया। जिसके कुछ अंश इस तरह से हैं--
" बस समभाव से सृजन करते जाइये | आपके लेखन के मर्म को पहचानने वाले बहुत लोग हैं | और आप कुछ बदल नहीं सकते तो ये भावुकता क्यों ? कितने स्वर्णिम साल गुजर गये किसी अवलम्बन की आस में -- आगे भी गुजर जायेंगे | आपके साथ स्नेह का नया कारवां जुड़ा है उसके स्वागत में अपने आपको हल्का करिये इस पीड़ा से | खुश रहिये | "
उनका स्नेह भरा मार्गदर्शन मुझे ब्लॉग लेखन से जुड़ने के बाद से ही प्राप्त होता रहा है। जब मेरे पोस्ट पर कमेंट बाक्स रिक्त रहता था, तो यह रेणु दी ही थी कि प्रतिक्रिया व्यक्त करती ही रहीं और गत शनिवार के पोस्ट पर भी खाली बाक्स ने जब मुझे उदास किया ,तो अचानक उनका ही कमेंट आ गया। स्नेह का बंधन कभी- कभी रक्त संबंध से भी मजबूत होता है। ऐसी अनुभूति मुझे यहाँ ब्लॉग पर हो रही है ,अपने लिये ..
खैर, पिछले पोस्ट को लेकर कुछ मित्रों ने कहा कि शशि जी बिल्कुल नकारात्मक है। एक जिनका मुझ पर अत्यंत स्नेह है, उन्होंने नाराजगी जताते हुये कहा कि ऐसा भी कोई लिखता है..? गुस्से में ब्लॉग पर प्रतिक्रिया भी नहीं दी उन्होंने...
बंधुओं एक बात मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि लिख तो मैं किसी भी विषय पर सकता हूँ , फिर भी यहाँ स्वः अनुभूत विषयों को प्राथमिकता दे रहा हूँ। जीवन के उस चौराहे पर मैं एकाकी खड़ा हूँ, जहाँ पथिक को स्वयं ही सही दिशा का चयन करना है। न जीवनसाथी है, न मनमीत है , न कोई सहारा, जो हाथ थाम ले और भटकने से रोक ले ...
मुझ जैसे कितने ही एकाकी इंसान होगें, जिनकी खामोश पुकार दुनिया के इस शोर भरे मेले में वर्षों पूर्व गुम हो चुकी है। सो, अब यह कहना-
तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो
होंठ पे लिये हुए दिल की बात हम
जागते रहेंगे और कितनी रात हम
मुक़्तसर सी बात है तुम से प्यार है
तुम्हारा इन्तज़ार है,
तुम पुकार लो ...
स्वयं का उपहास है। फिर क्या किया जाए,जब मस्तानी शाम डरावनी सी लगने लगे और रात काली नागिन सी फुफकार रही हो ,तो है कोई रास्ता अवलंबन का..?
तो मित्रों, तीन रास्ते हैं मेरे जैसे संवेदनशील एकाकी लोगों के समक्ष , जिन्हें बाहरी दुनिया की हंसी- ठहाका उबाऊ लगता है। क्लब की पार्टी और बैठकों में जाना पसन्द नहीं हो। पहला अध्ययन, दूसरा चिन्तन और तीसरा लेखन। मेरे पास चौथा जबर्दस्त विकल्प है, वह यह कि दोनों कानों में इयरफोन लगा तेज आवाज में फिल्मी नगमें सुनने लगता हूँ। ऐसा करने से मस्तिष्क पटल से स्मृतियों पर पर्दा डालना आसान हो जाता है, हृदय की वेदना भी स्वतः कम हो जाती है। अन्यथा तो..
रात ये क़रार की बेक़रार है
तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो...
सच कहूँ, तो मेरा अब तक का अपना चिन्तन जो रहा है, वह यह है कि पुरुष व्यर्थ में श्रेष्ठ होने के दर्प में जी रहा है ,क्यों कि वह नारी ही जो अपने प्रेम, समर्पण और सानिध्य से उसे सम्पूर्णता देती है। यहाँ उसका सहज कर्म योग है। इस पथ पर चल कर जीवन की राह में भ्रमित होने की गुंजाइश कम होती है। नहीं तो बिन स्त्री के करते रहें न हठयोग, जीवन इसे साधने में ही निकल जाएगा, यदि कहीं पांव डगमगाया तो सारी साधना, सारा स्वाभिमान, सारा सम्मान क्षण भर में धूल में मिल जाएगा। इससे भी कहीं अधिक एकाकीपन का बड़ा रोग है..।
नर - नारी ये प्रकृति के सृजन सूत्र हैं। यहाँ सबकुछ स्वाभाविक है, यह तृष्णा नहीं है। तृष्णा तो हमारे मन का सृजन है। प्रकृति की उत्पत्ति के मूल में संयोग ही है। इनमें से किसी भी तत्व के वियोग होते ही विखंडित हो जाएगी , हमारी यह खूबसूरत पृथ्वी ।
फिर भी पुरुष की शंकालु प्रवृत्ति यह नहीं देख पाता कि स्नेह, प्रेम, सेवा , त्याग एवं उत्सर्ग की प्रतिमूर्ति है नारी। वह नर नारी के मध्य वासना के अतिरिक्त और भला सोचेगा भी क्या ? नारी में माता , बहन और मित्र देखने की जो उसकी आदत ही नहीं है। पुरुष की इसी प्रवृत्ति के कारण नारी कितनी भी ऊँचाई पर पहुँच जाए, फिर भी उसके वास्तविक स्वरूप को दबा उसे भोग की सामग्री बना दिया जाता है। ऐसा मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में रह कर देखा है कि कितने ही महिला अधिकारियों के संबंधों को यह पुरुष अपनी वासना की चाशनी में डूबो कर परोसता है। ऐसे पुरुष उसके प्यार भरे आंचल का छांव कभी प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जिसका आश्रय पाने से पुरुष की रिक्तता, निरुद्देश्यता, व्याकुलता समाप्त हो जाती है, अर्धांगिनी के न होने के बावजूद भी ऐसी अनुभूति मुझे न जाने क्यों होती रहती है। जैसे किसी अदृश्य डोर से बधा हुआ है, मेरा यह मासूम हृदय....
खैर , यह मन भी कितना पागल है, कल्पनाओं के भुलभुलैये से शीघ्र निकलने का नाम ही नहीं लेता है जो। अब मैं आज की शाम अपनी बात इस प्यारे से गीत से समाप्त कर रहा हूँ...
तेरे लिये पलकों की झालर बनूं
कलियों सा गजरे में बांधे फिरूं
धूप लगे जहां तुझे छाया बनूं
आजा साजना...