कर्म हमें महान बनाता है पर स्नेह इंसान तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है फिरूँ तुझे संग ले के नए-नए रंग ले के सपनों की महफ़िल में तस्वीर तेरी दिल में... सचमुच तस्वीर दिल में उतारनी हो या फिर कागज पर , यह काम इतना आसान है नहीं । समर्पण, सम्वेदना एवं स्नेह से ही इसे आकर मिलता है। और जब यह सजीव हो उठता है, तो हमारे ही सपनों की महफिल पर अपना अधिकार जताने लगता है। दिल में जो भावनाओं का उफान है,वही हमें लेखक बना देता है। यहां कर्म का बंधन नहीं स्नेह की प्रबलता होती है। कर्मयोगी सब कुछ पा सकता है, पर स्नेह से वंचित रह जाता है। सोचे जरा ग्वाल- बाल, गोपियों और बछड़ों संग यह नटखट नंदकिशोर का स्नेह ही तो रहा कि ब्रजमंडल को इंद्र की मेघ वर्षा से बचाने के लिये गोवर्धन उठा लिया, लेकिन जब वे द्वारिकाधीश बन गये तो उसी द्वारिका नगरी को समुद्र में डूब जाने दिया। यहां कर्म ने राह रोक लिया, वहां स्नेह ने विवश कर दिया। और इस पर भी विचार करें कि जिस नन्हे ग्वाले ने स्नेह में अनेकों बार संकट में अपने बाल सखाओं की प्राणरक्षा की, वही जब योगेश्वर कृष्ण हो गया तो इसी कर्म के बंधन के कारण ही अपने प्रिय भांजे अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकाल सका। सो, कर्म पर चाहे जितने भी उपदेश कोई दे लें, मुझे तो स्नेह के दो बोल ही भाते हैं। हां, प्रशंसा की भूख बिल्कुल भी नहीं है। वस्तुतः प्रशंसा करके किसी को जितना ठगा जा सकता है, उतना और किसी तरह से भी नहीं। यह हमारे व्यक्तित्व विकास में जहर की मीठी गोली ही तो है। जबकि स्नेह पवित्र है, सरल है और बुझे मन को फिर से रौशन कर देता है। यदि अपनी बात करूं, तो स्नेह की खोज में भटकता रहा, फिसलता रहा और सम्हलता रहा। बनारस में था, तो पढ़ाई के दबाव में बचपन छीन गया। कोलकाता में शिशु कक्षा का विद्यार्थी था, पर जब बनारस लाकर पिता जी ने सीधे कक्षा दो में ठूंस दिया। कुछ -कुछ याद है कि अलका मुझसे तीन-चार नंबर अधिक पाकर फस्ट हो गयी थी। लेकिन, इसके बाद अपनी सभी कक्षाओं में अव्वल मैं ही रहा, चाहे प्रतिद्वंद्वी कोई रहा। भाई - बहन में बड़ा होने के कारण कुछ भी अप्रिय कार्य हो जाए, तो डांट तो मुझे ही पड़ती थी कि तुम्हें समझ होनी चाहिए वे दोनों तो छोटे हैं। दादी के पास भी तो हम तीनों को कम ही जाने दिया जाता था। वे अनपढ़ थीं, पुराने ख्यालों की इसलिये हमारे सभ्य परिवार का हिस्सा कैसे हो सकती थीं। पर थीं बड़ी ही स्वाभिमानी , अपना भोजन स्वयं बनाती थीं। स्नेह की बोल बच्चे तो क्या पशु-पक्षी भी पहचानते हैं और कर्म का बोझ भी। गरीब तो थें ही , सो दादी कहीं से कुछ बढ़िया खाने का सामना लाती, तो ले रे पप्पी ! कह आवाज जरुर लगाती थी। यह उनका हम बच्चों के प्रति स्नेह ही था। नहीं, तो जब तक घर में स्कूल नहीं खुला था, उन्हें खाना कौन पूछता था। मम्मी और दादी में सम्वाद अंत तक मैंने नहीं देखा। फिर भी दादी हम बच्चों का ख्याल रखती थीं। जब मैं इंटर में पढ़ता था और घर से गिनती कर चार रोटी सुबह और उतना ही शाम को मिलता था,तो दादी किस तरह से सुबह के नाश्ते की व्यवस्था मेरे लिये करती थीं, उसे याद कर आंखें अब भी नम हो जाती हैं। घर पर जब तक कक्षाएं चलती थीं। वे मुझे पढ़ने के लिये कम्पनी गार्डेन और एकांत में स्थित मंदिरों में ले जाया करती थीं। घर से एक दिन में एक ही पुस्तक पढ़ने को मिलता था, वह भी छोटे भाई साहब की इजाजत के बाद। तब दादी ही दिलासा दिलाती थी कि काहे मन मारे है, फस्ट(प्रथम श्रेणी) तो तू ही आएगा। कारण हम दोनों ही भाई इंटर में थें। हाई स्कूल के बाद मैं घर छोड़ कर मौसी के यहां चला गया था। सो, एक वर्ष की पढ़ाई फिर चौपट हो गई थी। दुर्भाग्य से मेरा परीक्षा केंद्र भी विशेश्वरगंज से काफी दूर चौकाघाट पड़ गया था। इतना दूर पैदल चल के जाता और आता था। जिस दिन सुबह शाम दोनों पाली में परीक्षा होती थीं, पांव जबाब देने लगता था। बस मन को दिलासा दिये जाता था कि थोड़ी दूर तो और चलना है। वापस लौटूंगा ,तो दादी जरुर पैर के तलुओं में तेल लगा देगी और सिर पर भी ठंडे तेल से मालिश करेगी। इससे भी कहीं अधिक दादी तो मुझे वापस लौटने पर कुछ खाने को भी देती थी। विधवा पेंशन का पैसा जो उन्हें मिलता था , वह सारा मेरे पर ही तो वे खर्च कर देती थीं। कैसी विडंबना थी मेरे परिवार में भी जिसके घर में अपना विद्यालय चल रहा ही। उस घर की मुखिया को विधवा पेंशन का सहारा लेना पड़ता था, अपने खर्च के लिये। अच्छी तरह से याद है मुझे कि जब घर में स्कूल खुला, तो उनसे उनका कमरा, जो आगे की ओर था, यह कह कर खाली करवाया गया था कि सुबह- शाम की चाय दो जून की रोटी और वर्ष में दो साड़ी मिल जाया करेगी। बाल- बच्चों को दो पैसे की आमदनी होगी , यह सोच कर दादी मान गयी। सो, पिछले कमरे में एक छोटी सी अलमारी में उनका सारा सामान रख दिया गया था। जब मैं इंटर में था, तो घर के चार सदस्य पापा-मम्मी और मेरे भाई- बहन एक परिवार का हिस्सा थें और हम दादी-पोते गैर थें। हम दोनों ही स्वाभिमानी थें, इसलिये जो मिला उसी में गुजारा कर लिये। किसी रिश्तेदार के समक्ष हाथ नहीं फैलाया हम दोनों ने। हां , कभी कभी मां (नानी) को याद कर मेरा मन भर उठता था कि वे होती तो क्या इस तरह से आधा पेट भोजन कर बाग-बगीचे मंदिर में बैठ पढ़ना पड़ता। वहां, तो कोलकाता में जरा सा बुखार भी आ जाता था, तो चौधरी( बाबा- मां का आपस में सम्बोधन) डाक्टर को बुलाओ ,का शोर मां मचाने लगती थीं। वह दिन मुझे याद है कि वे पूरी रात मेरे सिर पर पानी की पट्टी रखती रहीं। वही, स्नेह फिर मुझे इंटर की पढाई के दौरार दादी से मिला। फर्क बस इतना रहा कि कोलकाता में सम्पन्नता थी। लेकिन, यहां दादी अपने उसी विधवा पेंशन से मेरी खुशी के लिये उस अवस्था में क्या - क्या नहीं करती थीं। नमकीन, पेठा, मिठाई जो भी बन पड़ता था, वे करती थीं। वैसा स्नेह बनारस में भला किससे फिर मिला। दादी के कारण हो तो मैं इंटर में एक पुस्तक से पढ़ कर भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ। हां, हाईस्कूल में जहां गणित में सौ में से 98 अंक मिले थें, वहीं इंटर में यह घट कर 80 हो गया था। छोटे भाई को द्वितीय श्रेणी से ही संतोष करना पड़ा। मुजफ्फरपुर में था, तो गरीबी के बावजूद मौसी जी ने मां की तरह मुझे स्नेह दिया। लेकिन, एक अच्छे विद्यार्थी की पढ़ाई से नाता यूं टूट जाये, तो इस दर्द का उपचार वक्त के सिवाय और किसके पास है। कहां- कहां नहीं भटका फिर । बिन दादी के अपना कमरा ही डरावना सा लग तब मुझे। मीरजापुर में यह जो मेरी पहचान बनी है न, पत्रकारिता के प्रति मेरे समर्पण, निष्पक्षता और ईमानदारी के कारण है। दूसरे जिले के एक सांध्यकालीन
समाचार पत्र को मैंने किस तरह से तप कर चलाया, यह सिर्फ मेरे वे ही पाठक जानते हैं,जिन्होंने देर रात तक अखबार बांटते हुये मुझे संघर्ष करते हुये देखा है,तभी वे मुझसे स्नेह करते हैं। नहीं तो पत्रकारों को अब कौन अपने पास बैठाता है।वही , स्नेह तो ब्लॉग लेखन में भी मुझे मिल रहा है। पर यतीम समझ अब कोई स्नेह न करे, मुझे एकांत में ही रहने दें। जहां न कर्म का बंधन है, न ही स्नेह का रिश्ता।