नौकरानी
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समीप के देवी मंदिर में कोलाहल मचा हुआ था। मुहल्ले की सुहागिन महिलाएँ पौ फटते ही पूजा का थाल सजाये घरों से निकल पड़ी थीं। उनके पीछे- पीछे बच्चे भी दौड़ पड़े थे।
उधर,आकाँक्षा इन सबसे से अंजान सिर झुकाए नित्य की तरह घर के बाहर गली में मार्निंग वॉक कर रही थी । वह भूल चुकी थी कि तीज-त्योहार भी कुछ होता है। फ़िर ऐसे पर्व पर स्त्रीयोचित श्रृँगार कर दर्शन-पूजन उसके लिए बेमानी है । कौन-सी खुशी मिली है उसे , अपने इस निर्रथक जीवन से। स्त्री होकर भी वह पत्नीत्व, मातृत्व एवं गृहिणीत्व से वंचित है। सो, जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे मन को बाँधने केलिए कुछ बुदबुदाती रहती है। मानों ईश्वर से मोक्ष की प्रार्थना करती हो। तभी सज-धज कर मंदिर को निकली माधुरी से उसकी नज़र टकराती है।
" अरे आकाँक्षा ! तू दिनोदिन इतनी दुर्बल क्यों होती जा रही है। बीमार थी क्या रे ! और मंदिर नहीं जाना है तुझे ? पता है न आज शीतलाष्टमी है। "
- एकसाथ इतने सारे सवाल कर माधुरी ने अंजाने में ही सही , उसके कभी न भरने वाले ज़ख्म पर नश्तर रख दिया था ।
वह फ़िर से अपने सुनहरे अतीत और उपेक्षित वर्तमान में डूब जाती है। हाँ,वह माँ-बाप की 'आकाँक्षा' ही तो थी । वे उसे ऐसा गुणी और संस्कारवान लड़की बनाना चाहते थे ,जो मायके और ससुराल दोनों का मान बढ़ाए, इसीलिए भाइयों की लाडली चीनी गुड़िया से ऊपर उठकर उसने स्वयं को सर्वगुणसंपन्न युवती बना लिया था। किंतु नियति का तमाशा भी विचित्र होता है। अतः उसके हाथ पीला करने का स्वप्न संजोए पहले पिता और फ़िर उनके ग़म में माँ भी साथ छोड़ गयी। भाइयों ने अपना घर बसा लिया ,पर वह कुँवारी ही रह गयी।
रिश्ते तो कई आए थे, लेकिन भाभी दाँव खेल गयी। वही तो एक थी घर में जो झाड़ू-पोंछा से लेकर उनके बच्चों को स्कूल पहुँचाने तक का सारा काम करती थी। चीनी गुड़िया से रोबोट बन गयी थी आकाँक्षा, तब रिश्तों के पीछे छिपे स्वार्थ को वह कहाँ पढ़ पायी थी। दो जून की रोटी और दो जोड़े कपड़े में उसने स्वयं को सीमित कर लिया था। विवाह-भोज आदि विशेष अवसरों पर जब परिवार के सभी सदस्य घर के बाहर होते , तो वह अकेले ही बंगले की रखवाली किया करती। एक अकेली स्त्री इतने बड़े मकान में किस तरह से रहेगी , इसकी तनिक भी चिंता उसके भाई- भाभियों को नहीं थी। यह जानकर भी अंजान बनी आकाँक्षा , बच्चों ने बुआ जी कहा नहीं कि अपनी सारी ममता उनपर लुटा दिया करती थी । ये तीनों बच्चे ही उसकी अपनी दुनिया थी।
आज वे ही बच्चे बड़े हो गये हैं तो उने उनके व्यवहार में यकायक कितना परिवर्तन आ गया है ! किसी कार्य केलिए वे उससे अनुरोध नहीं वरन् आदेश दिया करते हैं। कल ही सोनू ने उसकी भावनाओं की अनदेखी कर कितने रूखे अंदाज़ में मटन बनाने को कहा था , जबकि उसने मांसाहार त्याग दिया है। वह अपनी माँ से भी कह सकता था। बुआ क्या उसकी नौकरानी है ?
यह सोचते हुये नम हो चुकी आँखों को एक बार पुनः अपने दुपट्टे से साफ़ करती है वह..।
इस परिवार की खुशी केलिए उसने क्या नहीं किया। आँखें खुलते ही पहले बच्चों केलिए फ़िर भाइयों केलिए ब्रेकफॉस्ट और टिफिन की व्यवस्था की जिम्मेदारी उसी की थी और दिन चढ़ते ही भाभियों के इशारे पर किचन में नाचती रहती।
आकाँक्षा को आज भी याद है कि तृप्त उसे कितना पसंद करता था, किंतु घर की इज्ज़त केलिए भाग कर उसने अंतर्जातीय विवाह नहीं किया। वह भाभियों की चालबाज़ी को सहती रही। अपने मन को उनके बच्चों के साथ बाँध लिया था। जीवन के तिक्त और मधुर क्षणों को एक समान कर लिया था।
जब भी उसकी सहेलियाँ मायके आती । वे उसे अपने सुखमय वैवाहिक जीवन के वर्णन के साथ ही उसके भाई-भाभियों की चतुराई से सावधान करना नहीं भूलती थीं, किंतु आकाँक्षा उनके समक्ष कभी दार्शनिकों -सा बात करने लगती, तो कभी विदूषकों-सा रंग बदल अपने ग़म को छिपा लेती थी।
लेकिन, आज सखी मालती का इस उम्र में भी निखरा हुआ रूप और कल सोनू का कठोर व्यवहार देख वह टूट चुकी थी। उसकी आँखें छलछला उठीं । हर दुःख को अपने भीतर समेट लेने वाली आकाँक्षा अब अपने मन को बिल्कुल नहीं बांध पा रही थी। उसका विकल हृदय सवाल कर रहा था - " बताओ आकाँक्षा , इस परिवार में बहन, ननद अथवा बुआ जैसा सम्मान क्या सचमुच तुम्हें मिल रहा है ? यहाँ तुम्हारी अपनी भी कोई खुशी है? तुम्हारे श्रम बिंदु क्या कभी इस घर में मुसकाये हैं ? बोलो आकाँक्षा बोलो इस मरघट में क्या कहीं तुम्हारा भी ख़ुद का कोई रेशमी महल है ? क्या तुम्हारी कोई आकाँक्षा नहीं है ? क्या तुम अपने ही घर में एक नौकरानी नहीं हो ? "
" बस- बस , अब कुछ न बोलो निर्दयी ! " -चींख उठी थी आकाँक्षा।
जिस घर में उसने जीवन के पचास वर्ष गुजारे, वह अपना नहीं है । यहाँ खून के रिश्ते में कितना स्वार्थ छिपा है, इस सत्य को वह और नहीं नकार सकती थी । उसे यह बोध हो गया था कि उसके दुर्बल शरीर पर जिस दिन बुढ़ापे का जंग चढ़ जाएगा , दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकी जाएगी। यहाँ निखालिस ख़ालिस कुछ भी नहीं है। अपनो का यह रिश्ता भी नहीं। वह तो स़िर्फ एक सेविका है सेविका !!
" काश ! मैं तुम्हारी बात मान लेती तृप्त , तो आज मैं गृहस्वामी होती, अर्धांगिनी होती और जननी भी होती..।"
- जीवन रस से अतृप्त रह गयी आकाँक्षा फूट-फूट कर रो पड़ी थी ।
- व्याकुल पथिक