हमारी छोटी-छोटी खुशियाँ( भाग- 3 )
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सच कहूँ तो पहले अभाव में भी खुशियाँ थीं और अब इस इक्कीसवीं सदी में सबकुछ होकर भी खुशियों का अभाव है।
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पिछले कुछ महीनों में स्वास्थ्य तेजी से गिरा है, फिर भी ठीक पौने चार बजे ब्रह्ममुहूर्त में शैय्या त्याग देता हूँ । आश्रम में रहने का एक बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने वहाँ जो अनुशासित जीवन व्यतीत किया है , वह सदैव के लिए मेरी दिनचर्या बन गया है । इस शरीर का क्या है- माटी का पुतला बोले न बोले, तो निर्बल काया का शोक क्यों करूँ ?
अतः आलस्य त्याग प्रातःभ्रमण करता हूँ, स्वास्थ्य के लिये ही नहीं , मानसिक शांति भी इससे मिलती है। आश्रम में था तो गुरुदेव कहते थें कि साधु और साधक दोनों को श्रम अवश्य करना चाहिए।
आश्रम के समीप अखाड़े का जो कुआँ था, यदि हम अपने स्नान के लिये दो बाल्टी जल उसमें से लेते थें , तो इतना ही पानी वहाँ स्थित पानी टंकी में डालना होता था । इस नियम का पालन सभी करते थें ।
किसी वस्तु का स्वयं उपभोग करने के साथ ही हम औरों का भी कल्याण करें, यह संदेश इसमें निहित था। खैर, वे दिन अब लौट के नहीं आएँगे , परंतु उनकी सुखद स्मृतियाँ सदैव मार्गदर्शन करती रहेंगी ।
आज सुबह के सन्नाटे को चीरते हुए , सिखों की टोली शब्दकीर्तन करते हुये सड़क पर दिख गयी । जिसमें शामिल पुरुष,महिला और बच्चे ढोल- मंजीरा बजाते हुये गुरुद्वारे की ओर जा रहे थें । कार्तिक माह प्रारम्भ जो हो गया है ।अतः गंगाघाटों पर भी स्नानार्थियों की संख्या काफी बढ़ी हुई दिखी ।
ऐसा खुशनुमा वातावरण मुझे सदैव लुभाता है । काशी में था तो कमंडल हाथ में लिये घर से सीधे पंचगंगा घाट पहुँच जाया करता था ।
वे भी क्या खुशियों भरे दिन थें,यह सोच ही रहा था कि कालिम्पोंग का वह दृश्य याद हो आया, जब गोरखालैंड को लेकर हिंसक आंदोलन चल रहा था । इसके बावजूद भी उस ठंड , कोहरे और दहशत भरे वातावरण में इसी तरह सुबह सिखों की टोली बेखौफ निकला करती थी । तब मैं भी रजाई त्याग बाहर निकल बारजे पर आ जाता था । वे सभी पहाड़ी ढलान और चढ़ाई से होते हुये गुरुद्वारे को जाते थें । मैंने सोचा कि यह कितनी बहादुर कौम है , न तो कोई भय न ही किसी तरह की शिथिलता , मुझमें भी इनकी तरह स्फूर्ति एवं उत्साह होना चाहिए । इसी सकारात्मक सोच का परिणाम रहा कि वहाँ मैं प्रातःभ्रमण पर निकलने लगा। पहाड़ी क्षेत्र में सुबह-शाम भ्रमण का अपना ही आनंद है ।
वहाँ वह मेरी पहली दीपावली थी ,जब मैं न घर पर था, न मौसी के यहाँ और न ही ननिहाल में । छोटे नाना जी के घर से हमेशा की तरह टिफिन बाक्स आ गया था , पर इतने प्रमुख पर्व के दिन ऐसे कैसे अकेले चुपचाप भोजन कर लूँ । सो, मन उदास हो गया था और कुछ भी न खाते बना था । देर शाम अश्रु बूंदों को आँखों में ही समेटे उनकी दुकान से आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाते हुये अपने कमरे पर जा पहुँचा था कि तभी पड़ोसी अधेड़ दम्पति अभिभावक की भूमिका में सामने आ , स्नेह की बरसात करने लगें । उन्होंने अपने साथ मुझे भोजन कराया। उनका अपनत्व देख मेरी आँखें पुनः नम हो गयी थी, पर यह खुशियों भरे आँसू थें ।
उस दीपावली पर उनका यह निश्छल प्रेम ही मेरी सबसे बड़ी खुशी बनी और आज भी जब अंकल-आंटी की याद आती है ,आँखें बरसने लगती हैं और मन कालिम्पोंग के उसी कमरे पर पहुँच जाता है, जहाँ बारजे पर खड़े हो हम रात्रि में खूब बातें किया करते थें ।
यहाँ अपने होटल पर उम्मीद है कि इस बार मेरे मित्र टिफिन पहुँचा जाएँगे , अन्यथा तो पहले ब्रेड , बिस्किट और मिठाइयों के सहारे ही होली, दीपावली एवं दशहरा काट लेता था ।
परंतु बचपन में मेरी दीपावली ऐसी तो न थी । अरे हाँ , याद आया कि बनारस में हम तीनों भाई- बहन अपने माता-पिता के साथ कितने उल्लासपूर्ण वातावरण में यह दीपोत्सव पर्व मनाते थें। करवाचौथ पर्व के पूर्व ही मम्मी सफाई अभियान में लग जाती थीं । वे पापा के सहयोग से पूरे मकान में वे चूना किया करती थीं । अलकतरा ( तारकोल) से खिड़की- दरवाजा रंगा जाता था । कोलकाता से आये कागज के रंगबिरंगे फूल और रिबन से कमरों की सजावट होती थी । साथ ही घर के बाहर दूसरी मंजिल की खिड़कियों पर इलेक्ट्रॉनिक झालर लटकाए जाते थें । ऐसी सजावट देख हमारे पड़ोसी चकित से रह जाते थें कि इस गरीब मास्टर का घर किस तरह से इतना स्वच्छ ,सुंदर और सजा हुआ है, परंतु उन्हें यह नहीं पता था कि जो रिबन और झालर आदि थें, उसे मम्मी कितना सहेज कर एक बक्से में रखा करती थीं । वर्षों उसी से काम चलता रहा । वे बड़े घर की बेटी होने का अपना कर्तव्य निभाती थीं ।
हम बच्चों के लिये ढेर सारी मिठाइयाँ दीपावली पर ही घर में बनती थीं । आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि कुछ भी महंगी खाद्य सामग्री बाहर से खरीदी जा सके । अतः बेसन और बेगार से लड्डू और मगदल हमारे अभिभावक तैयार करते थें । इसके लिये पैसे की व्यवस्था पिछले कुछ माह से किसी तरह विभिन्न खर्चों में कटौती कर की जाती थी, परंतु दीपावली पर घर में हर तरह का व्यंजन बनता था । जिसमें कचौड़ी, सांगरी की सब्जी, कांजी वड़ा, दही वड़ा और सूरन का अचार अवश्य शामिल होता था। वैसे ,कुछ वर्षों पश्चात पिता जी मिठाइयों के कई डिब्बे लेकर आने लगे थें । दरअसल , वे जिनके यहाँ ट्यूशन पढ़ाने जाते थें, वे सभी काफी सम्पन्न शिष्य थें । अतः ये अपने मास्टर साहब को इस त्योहार पर मिठाइयाँ कैसे न देतें । पर हम धनी के समक्ष न दीन बने और न ही धनाभाव में किसी ने रुदन किया ।
हमारे माता-पिता हर वर्ष मिट्टी के गणेश -लक्ष्मी , ग्वालिन , दीपक , रूई ,चीनी के खिलौने और लाई-चिउड़ा आदि पहले से ही ले आया करते थें । घर में एक लकड़ी का छोटा सा मंदिर था। पापा प्रत्येक दीपावली पर चमकदार कवर पेपर लेकर आते थें और मम्मी बड़े ही प्रफुल्लित मन से उसे लकड़ी के मंदिर पर चिपकाया करती थीं। इसी में गणेश- लक्ष्मी और गोबर गणेश को बैठा कर पूजन होता था । वहीं पर रंगोली बना उसके इर्दगिर्द दीपकधारी ग्वालिन और कुछ मिट्टी के खिलौने रखा जाता था। दीपकों से पूरे घर को जगमगाने के पश्चात पिता जी जो सीमित संख्या में रौशनी, अनार, जलेबी, फुलझड़ी और सांप लेकर आते थें, उसका आनंद हम सभी एक साथ छत पर लेते थें । उन दिनों घर में मिट्टी के घंट के नीचे दीपक रख काजल पारने की परम्परा भी थी। अगले दिन भोर में टूटे हुये सूप को पिटती हुई दादी की यह आवाज " ईश्वर पैठे, द्ररिद्रता भागे" सुनाई पड़ती थी।
बात कोलकाता की करूँ ,तो यहाँ मैंने अपने बाबा-माँ संग खूब मस्तीभरी दीपावली मनायी थी। खिलौने तो पूछे ही न बाबा मुझे और कारखाने से किसी व्यक्ति को साथ ले टोकरी भर पक्की मिट्टी के खिलौने ले आते थें। दुकानों पर जिस भी खिलौने की ओर मेरी ऊँगली उठी नहीं कि वह उस टोकरी में होता था । उस आखिरी दीपावली मैंने माँ के साथ बारजे में रौशनी भी जलायी और बम भी फोड़े,यद्यपि मिष्ठान दुकान पर भी मैंने काफी समय दिया और पारिश्रमिक के रुप में छोटे नाना जी ने मुझे एचएमटी की खूबसूरत कलाई घड़ी दी थी। यह वर्ष 1982 की बात है। यह मेरे जीवन का सबसे खुशनुमा उत्सव पर्व था।तब मुझे क्या पता था कि अगले दो माह पश्चात ही माँ की छाया से मैं वचिंत होने जा रहा हूँ। मैंने तो उस दीपावली के दिन घर- दुकान एक कर माँ को खूब परेशान किया था , पर वे मुझे लाड़ और दुलार की थपकियाँ दिया करती थीं। मेरे जीवन में दीपावली की वह साँझ फिर कभी नहीं आयी।
और मुजफ्फरपुर की दीवाली को भला कैसे भुला सकता हूँ । मौसी जी इस दिन शाम साक्षात लक्ष्मी स्वरूपा बन मौसा जी के मोटरसाइकिल पार्ट्स की दुकान पर पूजन करने जाया करती थी। वहाँ मौजूद बाइक मिस्त्री शहजादे सारी तैयारी किये , उनकी ही राह तकता था।
तब मौसा जी की आर्थिक स्थिति बढ़िया नहीं थी, परंतु गृहलक्ष्मी के रूप में मौजूद मौसी जी ने कभी भी किसी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि धन का यह संकट कितना बड़ा है। वे कठोर से कठोर दुःखों में अविचलित रहीं।
मेहमानों के स्वागत -सत्कार में उन्होंने कभी कोई कमी नहीं आने दिया दी । उनकी यह व्यवहारकुशलता अपनों की चौकन्नी आँखों को भी धोखा दे देती थी। सबसे पहले उनके कमरे पर ही रिश्तेदार और जानपहचान वाले लोग आते थें , फिर वे उनकी तीनों जेठानियों के यहाँ जाते थें । यूँ कहें कि घर को स्वर्ग बनाने की कला है उनमें ।
रिश्तों को स्वार्थ की तराजू पर उन्होंने कभी नहीं तौला । मेरा ध्यान ऐसे अवसर पर वे अपनी इकलौती पुत्री से अधिक रखा करती थीं। उनके स्नेह की गंगाजल वैसे तो आज भी मुझपर छलकती है।
सच कहूँ तो पहले अभाव में भी खुशियाँ थीं और अब इस इक्कीसवीं सदी में सबकुछ होकर भी खुशियों का अभाव है । आप भी विचार करें कि क्या मैं असत्य कह रहा हूँ ।? हमने निज स्वार्थ का एक घेरा अपने चारों ओर बना रखा है, तो फिर बाह्यजगत की खुशियाँ उसमें कैसे प्रवेश करेंगी ? आज स्वर्ण का महत्व है, सत का नहीं ।
अब रहा मेरे लिये अब इस उत्सव के मायने, तो पिछले दिनों एकांतवास जैसी स्थिति में विकल हृदय को आश्रम की स्मृतियों ने एक नयी दिशा दी है। वहाँ जब था, तो गुरुदेव सदैव कहा करते थें कि जो पीछे छूट गया,उस पर पश्चाताप न करो और मन एकाग्र कर सतनाम का मौन जप किया करो । उनका कहना था कि साधु और साधक को सदैव आनंदमय स्थिति में रहना चाहिए। वह कहा गया है न-
सदा दिवाली संत की, आठों पहर आनंद।
कब मरि हो,कब पाई हो, पूर्ण परम आनंद ।।
अतः काशी स्थित गुरु के सानिध्य में जो भी दिन मैंने गुजारे थें। वे सभी पर्व ही तो थें । मैं वहाँ शोकमुक्त हो कर रहा । कोई अपना सगा-संबंधी साथ नहीं था । हम साधक थें और परमात्मा की कृपा हम पर बरसती थी । अतः आज भी जीवन के तिक्त और मधुर क्षणों से ऊपर उठ कर मैं उस अमृत को क्यों नहीं प्राप्त कर सकता ? किस अनजाने मोह से जूझ रहा हूँ । आश्रम की उन्हीं खुशियों को समेटने का प्रयास इस दीपावली पर्व पर मैं पुनः करूँगा।
मैंने इस अनजान शहर में अपने परिश्रम एवं ईमानदारी से जो भी पहचान बनायी है , उसका ही परिणाम है कि आज अनेक विशिष्टजन मुझे सम्मान देते हैं।
नियति ने मेरा स्वास्थ्य, मेरा परिवार मुझसे छीन ली है । अपने लगने वाले शुभचिंतक यूँ ही अचानक बदल गये । यह भी कह सकते हैं कि न माला गूंथी और फूल भी कुम्हला गया ।
ऐसे अनगिनत प्रश्न करने से अब क्या लाभ होना है । जीवन की इस शून्यता और दर्द से इतर यह समाज भी तो एक विशाल परिवार है । इस खुशी को मैं उदासी में क्यों बदलूँ ? मुझे तो वह दीपक जलाना है , जिसके संदर्भ में महाकवि गोपालदास ' नीरज' ने यूँ कहा है-
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए...।
- व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला )