हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ
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भाग -1
उस उदास शाम भी मैं जीवन की शून्यता और दर्द से स्वयं को उभारने की कोशिश में जुटा हुआ था कि किसी ने आवाज लगायी..
" सा'ब , खुरमा ताजा है, लेंगे ? "
" ले आओं भाई दस का " -मैंने कहा।
ठेलेवाले की पुकार सुनकर उस दिन न जाने क्यों मैं स्वयं को रोक नहीं पाया था। यह जानते हुये कि बाहर का सामान न खाने की सख्त हिदायत मिली है। वैसे, मन को चाहे कितना भी तपा लो फिर भी मेले-पर्व पर ये इच्छाएँ हैं न, बेकाबू हो ही जाती हैं। सो, यह भूल गया कि पिछले सप्ताह भर कमरे में बिस्तर पर एकाकी पड़ा हुआ था। सिर को जरा देर सहलाने वाला भी कोई न था,तो जीवन के रहस्यों पर से पर्दा एक-एक करके हटने लगा था। वैसे , अभी तो ये बानगी है। आगे बड़ी चुनौतियों से टकराना है। अतः अपने दुर्बल तन-मन सावधान किये जा रहा हूँ।
खैर, खुरमा स्वादिष्ट था , परंतु अभी एक-दो टुकड़े खाया ही था कि मन बोझिल-सा होता चला गया । वह सीधे बनारस की उस गली में जा घुसा था , जहाँ से कोई तीन दशक पूर्व एक युवक रोजी-रोटी की तलाश में भटकते हुये मुजफ्फरपुर,कालिम्पोंग और फिर मीरजापुर आ बसा है। वहाँ उसका अपना घर था, अपना स्वप्न था, अपने लोग थें और पर्व- त्योहार भी..।
जीवन के उन मधुर स्मृतियों को वह अब भी भुला नहीं पाया है।
उसके बचपन का एक हिस्सा कोलकाता में तो दूसरा यहीं गुजरा था । दुर्गापूजा- दशहरे परिवार के पाँचों सदस्य इन तीन दिनों में पैदल ही बनारस शहर का मध्य हिस्सा घूम आया करते थें। तब माताजी के हाथ का बना यह खुरमा ही हम बच्चों के लिये अनमोल मिठाई हुआ करता था।
मैदा, चीनी और घी से बने इस खुरमा मिठाई, जिसे शक्कर पारा भी कहते है , को ऐसे विशेष अवसरों पर वे बनाती थीं। तब हमारे अभिभावकों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि बाजार से मिठाइयाँ मंगाई जा सके, फिर भी हम सभी बहुत खुश थें। प्रत्येक रविवार को पिता जी का अवकाश रहता था। अतः हम सभी राजघाट पुल तक घूमने जाया करते थें। माताजी सुबह ही खुरमा और लाई नमकीन बना कर डिब्बे में भर लेती थीं,ताकि पुल पर बैठ जब पापा-मम्मी वार्तालाप में व्यस्त रहे ,तो हम तीनों भाई-बहन उसे खाते हुये माँ गंगा को निहारते रहें। हम बच्चों को रेलगाड़ी दिखलाने थोड़ी देर के लिये पिताजी काशी रेलवे स्टेशन पर भी जाते थें। पुनः पैदल घर वापस लौटते समय पांव भले ही जवाब देने लगते थे, फिर भी हम उर्जा से लबरेज रहते थें। किसी तरह की फिजूलखर्ची न थी इसतरह के पिकनिक में भी पिताजी को जेब टटोलना पड़ता। लेकिन, खुशियाँ जिसे याद कर आज चार दशक बाद भी भी आँखें चमक उठती हैं। हमारी ये खुशियाँ बनावटी नहीं थी। हम तंगहाल भले थें , पर दीनहीन नहीं..।
श्रम से कोई पीछे नहीं हटता था। हम होंगे कामयाब यह उम्मीद हमारे अभिभावकों में कायम थी। सो,अगले दिन सुबह पिता जी और हम दोनों भाई पैदल विद्यालय की ओर निकल पड़ते थें। कतुआपुरा , विशेश्वरगंज से संकठादेवी मंदिर समीप तो न था। उसी मंदिर के सामने हमारा स्कूल था। परिवार के किसी भी सदस्य में आलस्य का नामोनिशान तक न था। सभी एक दूसरे की आवश्यकता को समझते थें। आपस में कोई बहाने हम नहीं किया करते थें। पिता जी तो पूरे सत्यवादी हरिश्चन्द्र ही थें।
हाँ, उनमें एक अवगुण था, वे क्रोधित शीघ्र हो जाते थें। अतः रात जब वे ट्यूशन पढ़ा कर लौटते थें , तो माता जी का पूरा प्रयास रहता था कि उनकी इच्छाओं का पूरा सम्मान हो। वे नमकीन सेव लेकर आते थें। यह उन्हें सबसे प्रिय था। भोजन की थाली में यही नमकीन सेव उनके लिये चटनी और आचार-पापड़ था। हम तीनों को भी उसमें से थोड़ा-थोड़ा हिस्सा मिलता था। ठंड के दिनों में बिस्तरे पर रजाई से मुँह ढक कर लेटे- लेटे ही हम बच्चे इस नमकीन सेव को देरतक ठुंगते रहते थें।
मुहल्ले-टोले में ऐसा कोई परिवार नहीं था, जो हर सप्ताह सपरिवार पिकनिक मनाता हो। गरीब मास्टर साहब के इस खुशहाल परिवार को देख धनिक पड़ोसियों को तनिक ईष्या भी होती थी। हम तीनों बच्चों को स्वच्छ,सुंदर और बढ़िया वस्त्र पहने देख , वे समझ नहीं पाते थें कि इसके लिये पैसा कहाँ से आता था , पर वे नहीं जानते थें कि हमारे वस्त्रों की धुलाई और रख रखाव पर कितना ध्यान दिया जाता था। धूप में सारे कपड़े उलटा कर ही फैलाये जाते थें , इसलिये उसका रंग नहीं उड़ता था। विद्यालय से घर आते ही हमारे यूनिफॉर्म खूंटी पर टंग जाते थें। जूता रैक में होता था।
त्योहार मनाने के लिये पैसे की व्यवस्था कुछ महीने पहले से ही हमारे अभिभावक करने लगते थें। खर्च में कटौती करने के लिये हर रात्रि वे डायरी पर प्रतिदिन खरीदी गयी सामग्रियों का विवरण लिखते थें, ताकि आय- व्यय का संतुलन बना रहे। दस पैसे के सामान को भी जोड़ा जाता था। एक दीपावली पर्व पर तो माता जी ने घर में संग्रहित लगभग सौ उपन्यास एक पुस्तक की दुकान पर बेच दिया। ये सभी उस समय के अच्छे लेखकों के उपन्यास थें। लेकिन, हम बच्चों की खुशियाँ बड़ी थी उससे। मुझे याद है कि एक होली पर उन्होंने अपनी कई महंगी नयी साड़ियाँ बेच दी थीं, जिसका उन्हें तनिक भी दुख नहीं हुआ। इस तरह से धन के अभाव में हमारा परिवार किसी भी पर्व को मनाने से वंचित न रहा।
रामलीला, नक्टैया और दुर्गापूजा देखने और घूमने का लुत्फ़ हमसभी ने खूब उठाया है। वैसे तो रामलीला देखने हम दादी के साथ जाया करते थें । हमारे माता-पिता से छिप-छिपा कर दादी अपनी ममता हम दोनों भाइयों पर लुटाया करती थीं । लाटभैरव की नक्टैया में शामिल लाग और विमान हमारे घर के समीप से देर रात गुजरता था। इसे देखने के लिये स्थान चयन की जिम्मेदारी दादी की हुआ करती थी। दारानगर और चेतगंज की नक्टैया हम देखते थें।
हम बच्चों के लिये मुखौटे , तीर-धनुष और तलवार-गदा खरीद कर पिताजी लाया करते थें। इन्हें धारण कर हम भी राम- लक्ष्मण जैसा संवाद करते थें। मुकुट और तीर की सजावट मैं स्वयं करता था। छत पर जा बंदरों को तीर-धनुष दिखला हम भगाया करते थें। हम बच्चों को इसतरह से खेलते देख पापा- मम्मी को अत्यधिक सुख मिलता था। मुझे याद है कि बाजार में हम तीनों ही बच्चे किसी सामग्री को लेने के लिये अपने अभिभावकों से कभी भी जिद्द नहीं करते थें। जैसे हम समय से पहले ही बुद्धिमान हो गये थें और घर की आर्थिक स्थिति का ज्ञान हो गया था।
हमें बालू में भूनी हुई मूंगफली, रेवड़ी-चिउड़ा भी खाने को मिलती थी। इन्हीं खाद्य सामग्रियों के लिये हम बच्चे नक्टैया की बेसब्री से प्रतीक्षा करते थें। यूँ समझें कि यही हम बच्चों का मेवा था।
हम तीनों को खुश देख कर हमारे अभिभावकों को अत्यंत संतोष मिलता था। उन्हें प्रतीक्षा थी कि उनका श्रम कब मुस्कुराएगा। वे ईश्वर से प्रार्थना करते थें कि धन की कुछ और व्यवस्था इन बच्चों के लिये हो जाती ,तो बढ़िया मिठाइयाँ भी आ गयी होंती... ।(क्रमशः)
-व्याकुल पथिक
जीवनकी पाठशाला से