ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझ पे दिल कुर्बान ------ सवाल यह है कि तिरंगे की आन बान और शान की सुरक्षा के लिये हमने क्या किया ------ एक बार बिदाई दे माँ घुरे आशी। आमी हाँसी- हाँसी पोरबो फाँसी, देखबे भारतवासी । ------- अमर क्रांति दूत खुदीराम बोस की शहादत से जुड़ा यह गीत, मैंने
राष्ट्रीय पर्व पर कोलकाता में अपने विद्यालय में तब सुना था,जब मैं कक्षा 6 का छात्र था। मात्र 19 वर्ष की अवस्था में खुदीराम आजादी के दस्तावेज पर सुनहरे अक्षरों में अपना हस्ताक्षर बना बढ़ गये , उस मंजिल की ओर जिसके समक्ष यदि अमृत कलश भी मिल जाए,तो बेमानी है। बंगाल का हर शख्स इस बालक के चरणों में नतमस्तक दिखा था मुझे उस दिन। इस दुनिया की यही सच्चाई है कि समर्पित भाव से किया गया हमारा एक कार्य ही हमारी पहचान को बनाने अथवा बिगड़ने के लिये पर्याप्त है। कितने ही लोग तो रोजना खुदकुशी करते हैं। इन दिनों सामूहिक आत्महत्या की खबरें भी सुर्खियों में हैं । इन कर्महीन, अवसादग्रस्त , अंधविश्वासी लोगोंं के जीने - मरने से क्या फर्क पड़ता है, समाज एवं राष्ट्र को। परिजन भी तो शोक मनाने के बाद इन्हें भुला देते हैं। सवाल बड़ा यह है कि इस धरती पर मानव तन लेकर आये तो, पर क्या छोड़ कर गये और क्या लेकर गये। इस तरह से मृत्यु को प्राप्त लोगों की तस्वीर भी उन्हीं के घरों में लगा मैं कम ही देखता हूं। शायद ऐसा करने से लोग इस लिये झिझकते हैं कि कहींं कोई टोक न दे, पूछ न ले कि भाई साहब आपके फलां...ने क्यों आत्महत्या कर ली। परंतु खुदीराम बोस की तस्वीर जहां भी दिखेगी पश्चिम बंगाल में , यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि उन्होंने फांसी के फंदे को सहर्ष क्यों अपनाया । जो लोग मानवता की रक्षा, राष्ट्र की स्वतंत्रता और समाज की समरसता के लिये तपते हैं ,लड़ते हैं और कटते हैं। उनका बलिदान कभी व्यर्थ नहीं होता। तभी मेरा वह बाल मन खुदीराम बोस एवं उस बांग्ला गीत को नहीं भूल पाया आज भी, जबकि मेरी अवस्था करीब पचास वर्ष होने को है। आज भी कोलकाता स्थित विद्यालय का प्रांगण और मंच याद है। अब की तरह ढ़ेरों रंगारंग कार्यक्रम वहां स्कूल में नहीं होते थें तब , वरन् अमर बलिदानियों के जीवन और संघर्ष पर प्रकाश डालने के लिये नाटक मंचन होता था। दुर्भाग्य से अब ऐसे राष्ट्रीय पर्व पर
देश प्रेम के नाम पर नौटंकी होने लगी है। जो जितना बड़ा मक्कार और गद्दार है , वह उतना बड़ा जनसेवक बन बैठा है। हम नहीं पहचान पा रहे हैं कि इन सफेदपोश में से कौन गांधी और शास्त्री है। सत्ता पाते ही इनका चाल, चलन, चरित्र एवं चिंतन सब कुछ बदल जा रहा है। इनकी सोच , इनकी पहचान और इनकी नियत बदल जाती है। ये कृत्रित प्रकाश कर समाज को गुमराह भी कर लेते हैं। पर याद रखें कहीं किसी कोने में ईमानदारी का एक दीपक भी जल जाएगा, तो ऐसे बनावटी लोग टिक नहीं पाएंगे उसके समक्ष। क्यों कि दीपक त्याग का प्रतीक है। दीये की बाती स्वयं जलती है, तब हमें प्रकाश मिलता है। इसीलिये तो सूरज के बाद दीपक का ही नाम आता है। अतः मित्रों हमें अपने अपने आसपास और जहां तक हमारी नजरें जा सके, वहां तक भी, पूरी ईमानदारी के साथ ऐसे दीपक को तलाशते रहना है। और यह जिम्मेदारी सबसे अधिक हम प्रबुद्धजनों की है। साहित्यकार की है, पत्रकार की है, चिन्तक की है और समाज सुधारक की है। क्यों कि हमारे पास ही वह विचार है, वह चिंतन है और वह लेखनी है, जो भटके हुये समाज को सही राह दिखला सके। उसके ईमान को जुगाड़ तंत्र के हाथों बंधक बनने से बचा सके। देखें न क्या होता है अब ऐसे राष्ट्रीय पर्व पर , जब भव्य मंच पर ऐसे माननीयों के हाथों अपने प्यारे तिरंगे की डोर सौंप दी जाती है, जिनका जरायम की दुनिया में कभी ऊंची पहचान रही हो। वे मृत्यु को छाती से लगाये जरुर रहते थें, लेकिन धन कमाने के लिये , औरों को मौत की नींद सुलाने के लिये। अब उसी धन से और जुगाड़ तंत्र के सहयोग से माननीय बन बैठें है। धनबल, जातिबल और बाहुबल का यह मकड़जाल आम आदमी को कहां ले जा रहा है। जरा विचार करें बंधुओं। मैं एक पत्रकार हूं, इसीलिये कह रहा हूं कि हम भी इन्हीं नकाबपोश समाजसेवियों के पीछे भाग रहे हैं। उनके चरणों में नतमस्तक है हमारी लेखनी। फिर तिरंगे की आन बान और शान की सुरक्षा के लिये हमने क्या किया, यह कभी तो खुदीराम जैसा कोई क्रांतिवीर स्वप्न में आकर हमसे निश्चित ही पूछेगा कि उनमें से कितनों को फांसी का फंदा चूमना पड़ा और कितनों ने गोली खाई थी, देश की आजादी के लये । वहीं तुम झूठन खाने के लिये ऐसे भ्रष्ट सफेदपोश लोगों का चरण वंदन कर रहे हो, जिनके अपराध के संदर्भ में तुम्हें बखूबी जानकारी है । क्या अंतरात्मा धिक्कारेगी नहीं तुम्हें। इनका साथ पाने के लिये, इनके पापयुक्त धन में गोता लगाने के लिये । हम जैसे पत्रकारों की बात करे, जो इनसे विज्ञापन पाने के लिये इन्हें समाज सेवक बता रहे हो, लिख रहे हो , छाप रहे हो, आम आदमी के बीच अपना उपहास करवा रहे हो। धिक्कार है हमारी लेखनी पर , हमारी बौद्धिक शक्ति पर और हमारे मानव तन पर भी। सो, उचित यही है कि इसी बदबूदार नाली में पड़े रहो, सड़ते रहो और मृत्यु को प्राप्त हो जाओ। क्यों कि तुम्हें इतने बड़े समाज में वह व्यक्ति तो दिखाई ही नहीं पड़ता , जो समर्पित भाव से अपना कर्म कर रहा है। उसकी खोज में तो निकलना ही नहीं है हमें। कारण वह शख्स जो स्वयं भूखा-नंगा हो, वह हमें क्या भौतिक सुख देगा ? पर मित्रों यह न भूलें कि वह हमें पहचान देगा, सम्मान देगा और स्वाभिमान देगा। वह हमें आत्मबल देगा। वहीं हमारी असली पाठशाला है। जिसके बारे में हमें इस गुमराह समाज को बताना है, उसे जगाना है और सत्य का मार्ग दिखलाना है। ऐसे बलिदानी लोगोंं की जीवनी जब भी हम पढ़ेंगे हमें अपना त्याग तुक्ष्य नजर आएंगा। हताशा- निराशा का बादल छंटेगा एवं प्रकाश नजर आएगा। घर छोड़ कर जब निकला था पेट की भूख शांत करने के लिये तो यूं ही मैं पत्रकारिता में आया था , ढ़ाई दशक पहले। जो रंगमंच मुझे सौंपा गया। जिसके लिये मैं कहींं से योग्य नहीं था। शिक्षा की कोई बड़ी डिग्री मेरे पास नहीं थी। फिर भी मैंने ईमानदारी से अपने कर्मपथ पर चलते हुये अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। हां, यहां ठीक से दो जून की रोटी तो कभी नहीं मिली मुझे , लेकिन सम्मान मिला, पहचान मिली और जब आंखें बंद करूंगा , तो मेरे मुखमंडल पर एक मुस्कान आपकों मिलेगी , भले ही करीब दो दशक से बीमार ही रहता हूं। यह आत्मबल है मेरा, जिसे मैंने इसी पत्रकारिता से पाया है। पर अभी बहुत कुछ लिखना है ,अपने राष्ट्र और समाज के लिये। जिसे पूर्ण करने के पश्चात ही मुझे यह कहने का अधिकार है कि " खुश रहना देश के प्यारो अब हम तो सफर चलते है।"