मेरा प्यार कह रहा है, मैं तुझे खुदा बना दूँ ***************************************** विडंबना यह है कि मन के सौंदर्य में नहीं बाह्य आकर्षक में अकसर ही पुरुष समाज खो जाता है। पत्नी की सरलता एवं वाणी की मधुरता से कहीं अधिक वह उसके रंगरूप को प्राथमिकता देता है ********************************************* मुझे देवता बनाकर, तेरी चाहतों ने पूजा , मेरा प्यार कह रहा है, मैं तुझे खुदा बना दूँ, तेरी ज़ुल्फ़ फिर सवारूँ तेरी माँग फिर सजा दूँ , मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूँ... मेरा तब का पसंदीदा गीत है यह , जब स्वप्नों के हिंडोले में मचलता और उड़ानें भरता था। हर जवां दिल की कुछ तो ख्वाहिशें होती हैं न .. सो, हरितालिका तीज ,जो अभी पिछले ही दिनोंं बीता है, सुहागिन स्त्रियों के सोलह श्रृंगार देख स्मृतियाँ पुनः एक बार बचपन से लेकर जवानी तक की अनेक यादों, वादों और बातों में अटकती-भटकती रहीं । हाँ, और भी कुछ याद हो आया कि अपने पुरुष साथी को सम्मान में ये स्त्रियाँ अकसर ही कुछ यूँ कह दिया करती हैं, " तुम तो मेरे भगवान हो ।" पर सच तो यह है कि पति परमेश्वर तो पुरुष तब ही बनता है, जब विधिवत विवाह हो जाए। अन्यथा दो दिलों का रिश्ता कच्चे धागे से भी नाजुक होता है । कल तक जो साथ जीने- मरने का कसम खाते थें, मनमीत कहलाते थें, यूँ अनजान हो जाते हैं कि जुबां पर नाम भी भला कहाँ याद रहता है उनके। एक पत्रकार के तौर पर मेरा अपना अनुभव यही है कि यौवन की दहलीज़ पर जब भी दो प्यार करने वाले पकड़े जाते हैं। गुल पिंजरे (जेल) में होता है, तो बुलबुल डोली चढ़ बाबुल को छोड़ साजन की हो लेती है। गृहस्थी बस गई, बच्चे हो गये , वह भी अपने परिवार की हो गई। उधर, बेचारे गुल की पहचान को इस भद्रजनों के समाज में दुष्कर्मी, अपहर्ता और भी न जाने किस- किस रुप में बदल दिया जाता । उसके इस दर्द को यह समाज भला क्या समझ पाएगा। उसे तो बस दण्ड देना आता है, कभी - कभी मृत्यु दण्ड तक। मैं इसलिये यह कह रहा हूँ कि ऐसे किसी संबंध में कोई देवता कह भी दें, तो प्रेम के उमंग में धोखा न खा जाएं आप। प्यारे यह दुनिया है , जैसा दिखती है, वैसा है बिल्कुल नहीं। यदि नहीं जानते हो तो राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर देख आओ न और उस राजू से पूछों कि दिल की हसरतों ने उसे किस रंगमंच पर ला खड़ा किया ..? जाने कहाँ गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में नज़रों को हम बिछाएंगे, चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुमको उम्र भर तुमको ना भूल पाएंगे .... उसके इस गीत में न जाने कितने दर्द छुपे हैं, न यह जमाना समझ सका , न ही वे मीत ! बस सब ताली पिटते रहें। तो तमाशबीनों में वे बुलबुल भी शामिल रहीं, जिन्हें देख कभी गुल खिलखिला उठता था। जिन्हें उस रंगमंच पर वह अपने टूटे दिल को छुपा तमाशा दिखा रहा था। एक था गुल और एक थी बुलबुल दोनो चमन में रहते थे ... ऐसी कहानियों को अकसर झूठ होनी ही है। प्रेम में वियोग से अधिक पीड़ा उस छल से होता है ,जिससे इंसान अनभिज्ञ रहता है। जिस वेदना से उभरना आसान तो नहीं होता है , एक सच्चे प्रेमी के लिये , जो उस तिरस्कार को सहता है । यह सब इतना सहज न होता है। इस दिल के आशियान में बस उनके ख्याल रह गये। तोड़ के दिल वो चल दिये, हम फिर अकेले रह गये ... यह जख्म जो उसके नाजुक दिल के लिये नासूर सा बना रहता है कि कल तक जो देवता था , आज मानव भी नहीं रहा वह। फिर भी समाज में सिर उठा कर चलना है, सो हर ग़म को सीने में छुपाये रखना है। कहीं किस्मत उसे फिर रास्ते का पत्थर न बना दे , यह भय उसके जीवन में बहार लाने ही नहीं देती। भले ही दिल की यह लाख पुकार होती रहे ... कोई होता जिसको अपना, हम अपना कह लेते यारों, पास नहीं तो दूर ही होता, लेकिन कोई मेरा अपना ... फिर भी इस छलावे से आहत गुल अब वह नादान आशिक तो नहीं रहता है न ... उसे पता है कि शाम कितनी भी मस्तानी क्यों न हो, काली रात का आना तय है। उसका वह कोमल मन कोरा कागज या खाली दर्पण भी कहाँ रह गया होता है। अनगिनत उपहासों से वह गुजरा होता है, जीवन के उस डगर पर , जहाँ राह न सूझ रही होती है। यह जो भटकाव है जीवन का , उसे ही दूर करता है दाम्पत्य जीवन। जहाँ , शीघ्र ही सब कुछ खोने का भय नहीं होता है। और यदि संग में स्नेह का बंधन है , तो फिर .. मोरा गोरा अंग लइ ले मोहे शाम रंग दइ दे , छुप जाऊँगी रात ही में मोहे पी का संग दइ दे .. ऐसे ही मधु गीतों की झंकार होती है जीवन में और यह तीज पर्व है न जो उसका माधुर्य भी तो यही है। पार्वती ने अपने प्रेम(तप) से विरक्त शिव को फिर से वही जन कल्याणकारी महादेव बना ही तो दिया न। शिव पुत्र देवताओं के कष्टों का हरण जो किया। निर्जला व्रत कितना कठिन होता है, इन सुहागिन स्त्रियों का .. अपने पति को परमेश्वर मान उसके दीर्घायु के लिये वे यह सब करती हैं । चुटकी भर सिंदूर की सलामती के लिये वे अर्द्धांगिनी होने का वह हर कर्तव्य पूरा करती हैं, इस दिन जहाँ तक उनका सामर्थ्य है। सुबह गंगा स्नान ,पुनः सायं स्नान के पश्चात शिव-पार्वती का विधिवत पूजन और अगले दिन सुबह फिर से गंगा स्नान। फिर भी मैंने इस दिन इन स्त्रियों को कभी भी यह कहते नहीं सुना कि वे अनावश्यक अपने शरीर को कष्ट दे रही हैं। भले ही उनका पति कितना भी दुष्ट प्रवृत्ति का क्योंं न हो, इस दिन वह न दानव है ना ही मानव, वह तो उनका परमेश्वर है। सचमुच नारी में ही वह सामर्थ्य है कि वह पुरुष को देवता बना सके... और इस दिन चाहे जैसे भी हो कुछ तो देवगुण (देवत्व) इन पति परमेश्वर में जागृत हो ही जाता है। वे व्रती पत्नियों के मनुहार में एक-दो दिन पहले से ही लगे रहते हैं। गुझिया बनाने की सामग्री लाते हैं। नयी साड़ी और अन्य श्रृंगार सामग्री खरीदने के लिये अपनी अर्धांगिनी को सम्पूर्ण अधिकार देते हैं। व्रत वाले दिन के पूर्व संध्या पर वे सूतफेनी एवं खजला मिठाई लेकर आते हैं। जब वाराणसी में था तो मलाई भी लाकर दिया जाता था। वहीं जिस दिन उन्हें व्रत का पारण होता है, सुबह पांच बजे से ही पति देव स्वयं मिष्ठान के प्रतिष्ठान पर जलेबा लेने के लिये डट जाते हैं। स्वयं अपने हाथों से जल ग्रहण करवाते हैं। यूँ कहें कि वे अर्द्धनारीश्वर हो जाते हैं । कोलकाता में था , तो बीमार माँ को बाबा के लाख मनाही के बावजूद व्रत करते देखा था। कच्ची मिट्टी के शंकर- पार्वती की मूर्ति का भव्य श्रृंगार , मण्डप आदि बनाने में तो मैं माहिर था ही, उस छोटी अवस्था में भी। अपने इलेक्ट्रिकल लाइट वाले शंकर -पार्वती और उस समय झिलमिलाते हुये सुनहरे रंग के बिजली से जलने वाले दीपक को भी लाकर रख देता था। इन कार्यों में मेरी रूचि देख माँ खुश हो कहा करती थी कि मुनिया बस तेरी शादी कर यह खानदानी अमानत ( नाक में पड़े हीरे के कील ) उसे सौंप दूं, मेरी सेवा करे न करे वह , पर तू तो जरूर करेगा न रे ... इससे अधिक और शब्द नहीं रहता मेरे लिये और लेखन कठिन हो जाता है। नियति को यह सब मंजूर नहीं था। अतः हम बिछुड़ गये ,बिखर गये ,फिर भी वह तीज पर्व याद है मुझे। कोई स्मृति दोष नहीं है यहाँ। जीवन का यह सत्य है कि यदि आप समाज में हैं, तो आपके सद्गुण आपकों " संत " तो बना सकता है , परंतु " देवता " बनने के लिये अर्धांगिनी का स्नेह प्राप्त करना होगा। यह पत्नी ही होती है कि थाली में भोजन का स्वाद पता चलता है । वस्त्र जो हम पहने हैं, स्वच्छ हैं कि नहीं..केश क्यों बढ़ा है.. खांसी क्यों आ रही है ? तमाम सवालों की झड़ी सी लगा कर रख देती हैं वे ? ? माँ थीं तो बाबा जैसे ही बाहर निकलते थें , दोनों के ही जुबां पर श्री गणेश जी का सम्बोधन होता था। यह हम सभी को संस्कार में मिला था। हाँ , मुझे ईश्वर में कोई रुचि नहीं रह गई, अतः मैंने इस शुभ शब्द का त्याग कर दिया। विडंबना यह है कि मन के सौंदर्य में नहीं बाह्य आकर्षक में अकसर ही पुरुष समाज खो जाता है। पत्नी की सरलता एवं वाणी की मधुरता से कहीं अधिक वह उसके रंगरूप को प्राथमिकता देता है। और बावली औरतें फिर भी अपने देवता के लिये अपना प्यार छलकाते रहती हैं... आजा पिया तोहे प्यार दूँ , गोरी बैयाँ तोपे वार दूँ। किसलिए तू इतना उदास,सुखें सुखें होंठ, अँखियों में प्यास। किसलिए किसलिए ? (शशि)/ अपनी
बात