ऐसे थें मेरे शिक्षक ..
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विद्वतजनों से भरा सभाकक्ष , मंच पर बैठे शिक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारी एवं सम्मानित होने वाले वे दर्जन भर शिक्षक जो स्नातकोत्तर महाविद्यालय से लेकर प्राइमरी पाठशालाओं से जुड़े हैं मौजूद थें।
सभाकक्ष में प्रवेश करते ही मंच से संचालक ने मुझे देखते ही जैसे ही यह कहा कि जनपद के सबसे ईमानदार पत्रकार का वे स्वागत करते हैं , ऐसा लगा कि अपना जीवन सफल हुआ। यही मेरी कमाई है,जीवन भर की।
खैर, इस कार्यक्रम के दौरान मौजूद शिक्षा अधिकारी और शिक्षक दोनों ही एक दूसरे को आईना दिखाने का शालीनता के साथ प्रयास कर रहे थें ।
मुझे भी अपने गुरुजनों का स्मरण हो आया। कहा तो यही गया है कि प्रथम गुरु माता- पिता होते हैं। लेकिन, कोलकाता स्थित ननिहाल में जब लगभग चार वर्ष का था और वहाँ के पहचान वाले अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में पढ़ने गया, तो जहाँ तक मुझे याद है कि मेरी मौसी मुझे अंग्रेजी की कविता रटाया करती थीं। बड़ी सी पुस्तक थी और जिस पर एक महिला और बच्चे का चित्र बना था। उस कविता के बोल -
" Sing, sing, sing. Can Mother sing? Mother Can sing. Mother sing to Pat, Pat sing to Mother.."
सम्भवतः ऐसा ही कुछ रहा । कोलकाता में हिन्दी को महत्व कम मिलता था। आप बंगाली बोले या फिर अंग्रेजी । अतः मौसी जी मेरी अंग्रेजी शिक्षा को लेकर गंभीर थीं। मैं नटखट था । सबका दुलारा था। माँ- बाबा के आँखों का तारा था तो वे (मौसी ) भी कम नहीं थीं। उनकी भृकुटि तनते ही चुपचाप उनके सामने खड़ा हो कविता रटने में ही अपनी भलाई समझता था। इस तरह वे मेरी प्रथम शिक्षिका थीं। लेकिन दुर्भाग्य से एक दिन पापा- मम्मी का कोलकाता आगमन हुआ । साथ में छोटा भाई भी आया था। मेरे टिफिन बाक्स में अंगूर, काजू बर्फी एवं अन्य महंगे खाद्य सामग्री देख पापा ने हम दोनों भाइयों के मध्य असमानता का प्रश्न उठाया । माँ- बाबा ( नाना- नानी) और मौसी ने उन्हें काफी समझाया कि बच्चे का जीवन चौपट न करें , है तो यह आपका ही पुत्र । लेकिन , अपने स्वाभिमान के प्रश्न पर पापा मुझे जबर्दस्ती वाराणसी ले आये। वहाँ , मेरा दाखिला कक्षा 1 की जगह सीधे कक्षा 2 में करा दिया गया। मेरे पापा उसी विद्यालय में ऊँची कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाते थें। उन्हें वेतन कम मिलता था, लेकिन प्रयास अभिभावकों का यह रहा कि बाहर से देखने में किसी को ऐसा न लगे कि हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति दयनीय है।
उनकी समस्या यह रही कि टिफिन बाक्स में अब मेरे क्या दिया जाए। फल और मिठाई तो खरीदने में मेरे पिता जी असमर्थ थें। अतः विकल्प में टमाटर संग नमक रख दिया जाता था, साथ में एक रोटी या पराठा भी।
विद्यालय में जब लंच का समय होता था , तो टिफिन बाक्स को देख मायूस हो जाता था। लेकिन,मेरे कक्षाध्यापक की पारखी नज़रें सब-कुछ समझ जाती थीं और वे मुझे यह कह फुसलाया करते थें - " लाल- लाल है पके टमाटर ,खाकर देखो कितने अच्छे..।"
वे मुझे यूँ मनाते थें कि यदि टमाटर खाया करोगे, तो लाल-लाल हो जाओगे। गोल मटोल तो तब मैं था ही। मेरे स्वास्थ्य के प्रति अभिभावक से लेकर गुरुजन भी चिन्तित थें कि कोलकाता के इतने नामी विद्यालय में पढ़ने वाला यह बालक बदली हुई परिस्थितियों में स्वयं को कैसे ढाल पाएगा। यह मेरे क्लास टीचर की महानता ही थी कि वे भावनात्मक रूप से मुझसे जुड़ गये थें। आज भी शिक्षक दिवस पर उन्हें याद कर आँखें नम हो जाती हैं।
इसी विद्यालय में कक्षा पाँच में जब था ,तो दो अन्य रोचक प्रकरण मुझे अब भी बखूबी याद है। मेरा एक मित्र था । सम्पन्न घराने का था। मेरे कक्षाध्यापक उसे ट्यूशन भी पढ़ाते थें। एक दिन हम दोनों मित्रों में विवाद हो गया। जिस पर क्लास टीचर ने मुझे एक थप्पड़ जड़ दिया। पहली बार किसी शिक्षक ने मुझे दण्डित किया था। मैं बचपन से ही भावुक था। सो, आँखों से गंगा-जमुना बह निकलीं। ( अब भी जब मेरा हृदय यह कहता है - ' तुम निर्दोष हो ' , तो किसी के द्वारा दी गयी वेदना और तिरस्कार को मैं सहन नहीं कर पाता हूँ । )
यह देख अन्य शिक्षकों से रहा न गया । सभी मेरे समर्थन में आ डटे। ऊपरी मंजिल पर पढ़ा रहे पापा तक उन्होंने सूचना पहुँचा दी। परंतु पापा मौन रहे । उन्होंने ने मुझे समझाया - तुम्हारे क्लास टीचर उस लड़के को ट्यूशन पढ़ाते हैं। अतः तुम ही उनकी विवशता समझ लो। मुझे कोई आपत्ति नहीं थी । हम दोनों सहपाठी पुनः एक हो गयी। परंतु एक दिन अप्रत्याशित तरीक़े से मेरे क्लास टीचर ने मेरे प्रति स्नेह प्रदर्शन किया। मेरी आँखें तब एक बार पुनः भर आयी थीं। पर ये खुशी के आँसू थें।
इसी कक्षा में संयोग से मेरे पापा परीक्षक बन कर आये। पुस्तक कला में हमें कुछ सामग्रियों का निर्माण करना था। मैंने बड़े मनोयोग से झंडा , फाइल और रजिस्टर बनाया। लेकिन, पैसे का अभाव था । अतः इन्हें बनाने की सामग्री बढ़िया न खरीद सका। परिणाम यह रहा कि मेरे एक अन्य मित्र को पापा ने दो अंक अधिक दे दिया। वैसे, तो शेष सभी विषय में मैं उससे आगे ही था। कक्षा में प्रथम भी मैं ही हमेशा की तरह रहा । फिर भी यह बात मुझे चुभने लगी कि पापा ने स्वयं ही घटिया सामग्री जब लाकर दी थी , तो मेरा क्या क़सूर था। मेरा चेहरा उतरा देख मम्मी ने भी पापा से यही प्रश्न किया।
किन्तु उनका उत्तर रहा - यह तुम्हारा दुर्भाग्य है कि तुम गरीब पिता के पुत्र हो, पर परीक्षक होने के लिहाज़ से मैं गुणवत्ता को ही महत्व दूँगा। ऐसे मन उदास न किया करो।
पुनः कोलकाता में जब कक्षा 6 में मेरा दाख़िला हुआ , तो एक दिन हिन्दी पढ़ाने वाले हमारे अध्यापक ने एक छात्र से पूछ लिया किया कि वह असली सिंह है या नकली । वे क्षत्रिय थें। मुझे नहीं समझ में आया तब कि असली - नकली शेर क्या होता है। बाद में पता चला कि हमारे टीचर उस लड़के से यह जानना चाहते थें कि वह क्षत्रिय है अथवा कुर्मी । तब बाद में जाकर मैंने महसूस किया कि प्रबुद्ध जन भी किस तरह से जातिवादी होते हैं।
वैसे, वाराणसी में हाई स्कूल में मुझे कोचिंग क्षत्रिय अध्यापक ने ही पढ़ाया था। मैं उनका सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी था। मुझे हाईस्कूल यूपी बोर्ड की परीक्षा में जब गणित में 100 में से 98 अंक मिला , तो उन्होंने मुझसे कहा था - ' शशि , ईश्वर ने तुम्हें जीनियस भले ही न बनाया हो, फिर भी इतनी श्रम क्षमता दी है कि जिस क्षेत्र में भी तुम रहोगे, पहचान के मोहताज नहीं रहोगे। '
पारिवारिक कारणों से जब मैं स्नातक की डिग्री नहीं ले पाया और निठल्ले होने के कलंक को दूर करने के लिये आजीविका की खोज में भटक रहा था , तो एक दिन पुनः उनसे भेंट हो गयी।
जब उन्हें पता चला कि मैंने अपनी शिक्षा अधूरी ही छोड़ दी है,तो मुझसे अधिक पीड़ा उन्हें हुई थी। उन्होंने बस इतना ही कहा था कि तुम बड़े अधिकारी होते , परंतु नियति को कौन टाल सकता है।
वैसे, तो एक और सच्चे गुरु मुझे मिले थें। मैं उनके आश्रम में कुछ महीने रहा भी। उन्होंने मुझे माया,-मोह से उभारने का पर्याप्त प्रयत्न भी किया । परंतु फिर मैं मार्ग भटक गया ..।
बीते गुरू पूर्णिमा पर जब वेदना से भरा मेरा हृदय उन्हें पुकार रहा था , तो ऐसा लगा कि वे मुझसे अनेकों प्रश्न कर रहे हैं।
-व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला )