रुठी लक्ष्मी नहीं छीन सकी तब हमारी खुशियाँ यदि हमारे पास संस्कार, शिक्षा और अपनों के प्रति समर्पण है ,तो अभावग्रस्त जीवन भी खुशियों से महक उठता है। सो, इसी कारण धन की चाहे कितनी भी कमी क्यों न रही हो , फिर भी परिवार के हम सभी सदस्य काफी खुशहाल थें , उन दिनों। मैं अपने बचपन के उन कुछ वर्षों को कभी नहीं भुला पाया हूं ,जब नौ- दस वर्ष का था। कोलकाता के वैभव युक्त और लाड प्यार भरे जीवन की कुछ स्मृति ही शेष थी। कक्षा दो से 6 तक (पुनःकोलकाता जाने के पूर्व तक) उसी विद्यालय में पढ़ा हूं, जिसमें पिता जी पढ़ाते थें। हम तीन भाई- बहन को लेकर पांच सदस्यों का परिवार था। पिता जी की आय बहुत सीमित थी। फिर भी हम सभी अमूमन रविवार को राजघाट पुल तक यूं ही घुमने जाया करते थें, वहां से समीप स्थित रेलवे स्टेशन पर जाते थें। यह हम लोगोंं का एक छोटा सा पिकनिक टूर हुआ करता था, उन अभावग्रस्त दिनों में। रिक्शे से वहां जाने के लिये पैसा नहीं रहता था, तो क्या हुआ। हम सभी पूरे रास्ते वार्तालाप करते हुये पैदल ही घर से कब राजघाट मालवीय पुल पर पहुंच जाते थें पता ही नहीं चलता था। वहीं पुल के किनारे चबूतरे पर बैठ हम जलपान किया करते थें। बाहर किसी प्रतिष्ठान पर जाकर जलपान करने के लिये भी हम सभी के पास पैसा तो बिल्कुल ही नहीं था। ऐसे में मम्मी सुबह उठ कर नमकीन और खुरमा बना लिया करती थींं। हम बच्चों के लिये वहीं मालपुआ से कम नहीं होता था। हम तीनों भाई-बहन कभी भी बाजार में कुछ अच्छी सामग्री देख अपने अभिभावक से यह नहीं कहते थें कि पापा हमें भी दिलवा दें न । जबकि इससे पहले कोलकाता में था, तो बाबा- मां और मौसी जी के सामने कितने नखड़े करता था। नया थर्मस लेने के लिये पुराने वाटर बोतल का ढक्कन ही वहां तो मैं अकसर ही गायब कर देता था। लेकिन, बनारस में उम्र से अधिक समझदार जो हो गया था। हम सभी 25 दिसंबर (बड़ा दिन) को सारनाथ जाते थें। कितनी लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी ,इस एक दिन की। भोर में ही उठकर मम्मी पूड़ी- सब्जी आदि बना लिया करती थीं। हम बच्चे दिनभर सारनाथ क्षेत्र में पड़ने वाले सभी स्थानों पर जाया करते थें । इनमें दो तो भगावन बुद्ध का मंदिर ही था,धमेख स्पूत, सम्राट अशोक के समय का चमकता स्तम्भ, सिंह और म्यूजियम में रखा उसका क्षतिग्रस्त चक्र आदि ढे़रों सामग्री हम सभी देखते थें। कुछ दूर पर एक खंडहरनुमा ऊंचा स्थान था। जिसे सीता जी की रसोई के नाम से पुकारा जाता था। दादी कहती थी कि सीता जी के हाथ से बना भोजन करने बुद्ध भगवान अपने मंदिर से आया करते थें। हम बच्चों को भी दादी की बातों का विश्वास था। बाद में जब बड़े हुयें और इतिहास की पुस्तकें पढ़ीं, दादी से झगड़ा भी कर बैठें कि आप झूठ बोलती हैं। याद तो यह भी है कि दादी अपने समीप हम बच्चों को खटिया पर बैठा कितनी ही कहानियां सुनाया करती थीं। दिन ढलते ढलते हम सभी चढ़ाई पर स्थित सारंगनाथ मंदिर जाते थें। वहां तालाब में खिले कमल को मैं निहारना नहीं भुलता था। वापसी के लिये सारनाथ स्थित रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ हम राजघाट स्थित काशी रेलवे स्टेशन उतरते थें, क्यों कि रिक्शा करने के लिये पैसा जो नहीं बचा होता था पापा के पास, वहां से फिर हम सब पैदल ही धीरे-धीरे चलते हुये घर आ पहुंचते थें। ऐसा करने से हम सभी बुरी तरह से थक तो जाते थें, फिर भी बहुत खुश थें। इसी सावन महीने में हम सभी मानस मंदिर और दुर्गा जी जाया करते थें। सावन माह में मानस मंदिर में राम और कृष्ण लीला पर बढ़िया झांकियां सजती हैं। मार्ग में हम सभी नीबूं लगा भुट्टा ( भूनी मकई) खाया करते थें। मौसम की नयी फसल है, इसलिए महंगा मिलता था भुट्टा। मानस मंदिर तक का सैर पिता जी के जेब पर भारी था। अतः इसके लिये अन्य बजट से भरपूर कटौती करनी ही पड़ती थी। फिर भी हम खुश थें। लक्ष्मी कुंड पर लगने वाले मेले में हम बच्चों को सिटी बजाने वाले मिट्टी के खिलौने मिलते थें। भले ही सस्ते हो, लेकिन उसमें भी प्यार छुपा रहता था । दुर्गा पूजा पर हम सभी पांचों लोग कहां- कहां नहीं सजावट देखने जाते थें। इसी दौरान हम किसी साधारण परंतु अच्छे प्रतिष्ठान पर मिठाई - समोसा भी खाते थें। और प्रसिद्ध नक्कटैया की लीला देखने का जो उल्लास था ,वह पूछे नहीं। उसी दिन तो हम बच्चों पहली बार रेवड़ी- चिवड़ा खाने को मिलता था साथ ही खिलौने में हनुमान जी का मुखौटा और तीर- धनुष भी। यदि होली- दीपावली पर मम्मी- पापा किस तरह से पैसे का जुगाड़ कर घर पर ही मिलकर मिठाइयां तैयार करते थें । हम बच्चे बस दूर बैठ उन्हें निहारते रहते थें। हमें चेतावनी दी गयी थी कि यदि भगवान जी को भोग लगे बिना खाया, तो पाप पड़ेगा। सो, हम तीनों हीं.भाई बहन मन को तसल्ली दिया करते थें कि दो - तीन दिन बाद ही तो दीपावली है। शाम को जैसे ही मम्मी गणेश लक्ष्मी का पूजन करेंगी , फिर तो खाने को मिलेगा ही न । करवाचौथ पर निर्मित चावल का लड्डू को बिना खाये मैं उस रात सोता ही नहीं था। पर मकरसंक्रांति की खिचड़ी मुझे बिल्कुल नहीं पसंद थी। हां , घर पर ही गुड़ से बने लाई के लड्डू छत से नीचे कमरे में जा कनस्तर से निकाल भरपेट खाता था। दादी और मम्मी के संबंध कभी मधुर नहीं रहें। दादी मानों हमारे परिवार की सदस्य ही नहीं थीं, फिर भी हम तीनों भाई बहन को रथयात्रा, मोतिया झील और भी न जाने कितने ही स्थानों की सैर कराया करती थीं। बारिस के मौसम में तो पूछे ही नहीं कितने ही प्रकार के कागज की छोटी-बड़ी नाव गली में बहते पानी में हम चलाते थें। भले ही डांट पड़ते रहती थी। परंतु कोलकाता से जब पुनः बनारस लौटा, तो घर पर अपना विद्यालय हो गया था। वर्षों बाद लक्ष्मी खुश होने को थीं, परंतु अचानक यूं ही सबकुछ बिखरता चला गया, अगले दो -तीन वर्षों में। सो, अब तो सचमुच मन तड़प रहा है यह कहने को- ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी शशि
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व्याकुल पथिक:
मानव जीवन की वेदनाओं को समेटी हुईंं मेरी रचनाएँ अनुभूतियों पर आधारित हैं। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है । यह दुःख ही जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है,सबको परखता है।अतः पथिक को जीवन की इस धूप-छाँव से क्या घबड़ाना, हँसते-हँसते सह लो सब ।
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व्याकुल पथिक:
मानव जीवन की वेदनाओं को समेटी हुईंं मेरी रचनाएँ अनुभूतियों पर आधारित हैं। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है । यह दुःख ही जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है,सबको परखता है।अतः पथिक को जीवन की इस धूप-छाँव से क्या घबड़ाना, हँसते-हँसते सह लो सब ।
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