[नौ बजे रात का समय। कूफ़ा की जामा मसजिद। मुसलिम, मुख्तार, सुलेमान और हानी बैठे हुए हैं। कुछ आदमी द्वार पर बैठे हुए हैं।]
सुले०– अब तक लोग नहीं आए?
हानी– अब जाने की कम उम्मीद है।
मुस०– आज जियाद का लौटना सितम हो गया। उसने लोगों को वादों के सब्ज बाग दिखाए होंगे।
सुले०– इसी को तो सियामत का आईन कहते हैं।
मुस०– इन जालिमों ने सियासत को ईमान से बिल्कुल जुदा कर दिया है। दूसरे खलीफ़ों ने इन दोनों को मिलाया था। सियासत को दग़ा से पाक कर दिया था।
मुख०– हजरत मुसलिम, अब आप अपनी तकरीर शुरू कीजिए, शायद लोग जमा हो जायें।
[मुसलिम मिंबर पर चढ़कर भाषण देते हैं]
‘‘शुक्र है उस पाक खुदा का, जिसने हमें आज दीन इस्लाम के लिए एक ऐसे बुजुर्ग को खलीफ़ा चुनने का मौका दिया है, जो इस्लाम का सच्चा दोस्त…।’’
[बहुत से आदमी मसजिद में घुस पड़ते हैं।]
पहला– बस हज़रत मुसलिम, जबान बंद कीजिए।
दूसरा– जनाब, आप चुपके से मदीने की राह लें। यजीद हमारे खलीफ़ा हैं और यजीद हमारा इमाम है।
सुले०– मुझे मालूम है कि जियाद ने आज तुम्हारी पीठ पर खूब हाथ फेरे हैं, और हरी-हरी घास दिखाई है, पर याद रखो, घास के नीचे जाल बिछा हुआ है।
[बाहर से ईंट और पत्थर की वर्षा होने लगती है।]
एक आ०– मारो-मारो, यह कौम का दुश्मन है।
सुले०– जालिमी, यह खुदा का घर है। इसकी हुरमत का तो खयाल रखो।
दू० आ०– खुदा का घर नहीं; इस्लाम के दुश्मनों का अड्डा है।
तीसरा– मारो-मारो, अभी तक इसकी जबान बंद नहीं हुई।
[सुलेमान जख्मी होकर गिर पड़ते हैं। मुसलिम बाहर आकर कहते हैं।]
‘‘ऐ बदनसीब कौम, अगर तू इतनी जल्दी रसूल की नसीहतों को भूल सकती है और तुझमें नेक और बद की तमीज नहीं रही, अगर तू इतनी जल्द जुल्म और जिल्लत को भूल सकती है, तो तू दुनिया में कभी सुर्खरू न होगी।’’
एक आ०– इस्लाम का दुश्मन है।
दूसरा– नहीं-नहीं, हजरत हुसैन के चचेरे भाई हैं। इनकी तौहीन मत करो।
तीसरा– इन्हें पकड़कर शहर की किसी अंधेरी गली में छोड़ दो। हम इनके खून से हाथ न रंगेगे।
[कई आदमी मुसलिम पर टूट पड़ते हैं और उन्हें खींचते हुए ले जाते हैं, और साथ ही परदा भी बदलता है।]
मुस०– (दिल में) जालिमों ने कहां लाकर छोड़ दिया। कुछ नहीं सूझता। रास्ता नहीं मालूम। कहां जाऊं? कोई आदमी नज़र नहीं आता कि उससे रास्ता पूछूं।
[हानी आता हुआ दिखाई देता है।]
मुस०– ऐ खुदा के नेक बंदे, मुझे यहां से निकलने का रास्ता बता दो।
हानी– हज़रत मुसलिम! क्या अभी आप यहीं खड़े हैं?
मुस०– आप हैं, हानी? रसूल पाक की कसम, इस वक्त तन में जान पड़ गई। मुझे तो कई आदमियों ने पकड़ लिया, और यहां छोड़कर चल दिए।
हानी– वे मेरे ही आदमी थे। मैंने वहां की हालत देखी, तो आपको वहां से हटा देना मुनासिब समझा। मैंने उन्हें तो ताकीद की थी कि आपको मेरे घर पहुंचा दें।
मुस०– पहले आपके आदमी होंगे, अब नहीं हैं। जियाद की तकरीर ने उन पर भी असर किया है।
हानी– खैर, कोई मुजायका नहीं, मेरा मकान करीब है; आइए। हम सियासत के मैदान में जियाद से नीचा खा गए। उसने यह खबर मशहूर कर दी कि हुसैन आ रहे हैं। इस हीले से लोग जमा हो गए, और उसे उनको फ़रेब देने का मौका मिल गया।
मुस०– मुझे तो अब चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता है।
हानी– जियाद की तकरीर ने सूरत बदल दी। जिन आदमियों ने हजरत के पास खत भेजने पर जोर दिया था, वे भी फ़रेब में आ गए।
[सुलेमान और मुख्तार आते हैं। सुलेमान के सिर पर पट्टी बंधी हुई है।]
मुख०– शुक्र है, आप खैरियत से पहुंच गए। जियाद के आदमी आपको तलाश करते फिरते हैं।
मुस०– हानी, ऐसी हालत में यहां रहकर मैं आपको खतरे में नहीं डालना चाहता। मुझे रुखसत कीजिए। रात को किसी मसजिद में पड़ा रहूंगा।
हानी– मुआज अल्लाह, यह आप क्या फ़रमाते हैं! यह आपका घर है। मैं और मेरा सब कुछ हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार है।
[शरीक का प्रवेश]
शरीक– अस्सलाम अलेक या हजरत मुसलिम है। मैं भी हुसैन के गुलामों में हूं।
हानी– हज़रत मुसलिम, आपने शरीफ का नाम सुना होगा। आप हज़रत अली के पुराने खादिम हैं, और उनकी शान में कई कसीदे लिख चुके हैं।
मुस०– (शरीक से गले मिलकर) ऐसा कौन बदनसीब होगा, जिससे आपका कलाम न देखा गया हो।
शरीक मैं हज़रत का खादिम और नबी का गुलाम हूं। बसरेवालों की फ़रियाद लेकर यजीद के पास गया था। वहां मालूम हुआ कि आप मक्का से रवाना हो गए हैं। मैं जियाद के साथ ही इधर चल पड़ा कि शायद आपकी कुछ खिदमत कर सकूं। यजीद ने अब सख्ती की जगह नरमी और रियायत से काम लेना शुरू किया है और, आज जियाद की तकरीर का असर देखकर मुझे यकीन हो गया है कि यहां के लोग हज़रत हुसैन से जरूर दगा कर जायेंगे। हमें भी फरेब का जवाब फरेब से ही देना लाजिम है।
मुस०– क्योंकर?
शरीक– इसकी आसान तरकीब है। मैं जियाद को अपनी बीमारी की खबर दूंगा। वह यहां मेरी मिजाज-पुरसी करने जरूर आवेगा, आप उसे कत्ल कर दीजिए।
मुस०– अल्लाहताला से फरमाया है कि मुसलमान को मुसलमान का खून करना जायज नहीं।
शरीक– अगर अल्लाहताला ने यह भी तो फरमाया है कि बेदीन को अमन देना साँप को पालना है।
मुस०– पर मेरी इंसानियत इसकी इजाजत नहीं देती।
शरीक– बेदीन को क़त्ल करना ऐन सवाब है। जिहाद में इंसानियत को दखल नहीं, हक का रास्ता डाकुओं और लुटेरों से खाली नहीं है। और उनका ख़ौफ है, तो इस रास्ते पर कदम ही न रखना चाहिए। आप इस मामले को सोचिए।
[बाहर से आदमियों का एक गिरोह हानी का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस जाता है।]
एक आ०– इन्हीं ने हुसैन को खत लिखा था। पकड़ लो इन्हें।
मुस०– (सामने आकर) यहां से चले जाओ।
दू० आ०– यही हजरत मुसलिम हैं। इन्हें गिरफ्तार कर लो।
मुस०– हां, मैं ही मुसलिम हूं। मैं ही तुम्हारा खतावार हूं। अगर चाहते हो, तो मुझे कत्ल करो। (कमर से तलवार फेंककर) यह लो, अब तुम्हें मुझसे कोई खौफ़ नहीं है। अगर तुम्हारा खलीफ़ा मेरे खून से खुश हो, तो उसे खुश करो। मगर खुदा के लिये हुसैन को लिख दो कि आप यहां न आएं। उन्हें खिलाफत की हवस नहीं है। उनकी मंशा सिर्फ आपकी हिमायत करना था। वह आप पर अपनी जान निसार करना चाहते थे।
उनके पास फ़ौज नहीं थी, हथियार नहीं थे, महज आपके लिए अपनी बात दे देने का जोश था, इसीलिए उन्होंने अपने गोशे को छोड़ना मंजूर किया। अब आपको उनकी जरूरत नहीं है, तो उन्हें मना कर दीजिए कि यहां मत आओ। उन्हें बुलाकर शहीद कर देने से आपको नदामत और अफसोस के सिवा और कुछ हाथ न आएगा। उनकी जान लेनी मुश्किल नही; यहीं की कैफ़ियत देखकर वह इस सदमे से खुद भी मर जायेंगे। वह इसे आपका कसूर नहीं, अपना कसूर समझेंगे कि वही उम्मत, जो मेरे नाना पर जान देती थी, अगर आज मेरे खून की प्यासी हो रही है, तो यह मेरी खता है। यह गम उनका काम तमाम कर देगा। आपका और आपके अमीर का मंशा खुद-व-खुद पूरा हो जायेगा। बोलो, मंजूर है? उन्हें लिख दूं कि आपने जिनकी हिमायत के लिये शहीद होना कबूल किया था, वह अब आपको शहीद करने की फिक्र में है। आर इधर रुख न कीजिए।
[कोई नहीं बोलता]
खामोशी नीम रज़ा है। आप कहते हैं कि यह कैफ़ियत उन्हें लिख दी जाये।
कई आवाजें– नहीं, नहीं इसकी जरूरत नहीं।
मुस०– तो क्या आप यहीं उनकी लाश को अपनी आंखों के सामने तड़पती देखना चाहती है?
एक आ०– मुआजअल्लाह, हम हजरत हुसैन के कातिल न होगे।
मुस०– ऐसा न कहिए, वरना रसूल को जन्नत में भी तकलीफ होगी। आप अपनी खरज के गुलाम हैं, दौलत के गुलाम हैं। रसूल ने आपको हमेशा सब्र और संतोष की हिदायत की। आप जानते हैं, वह खुद सादगी से जिंदगी बसर करते थे। आपको पहले खलीफ़ा का हाल मालूम है, हजरत फ़ारूक के हालात से भी आप वाक़िफ हैं। अफसोस! आप उस रसूल को भूल गए, जो तवहीद के बाद इस्लाम का सबसे पाक वसूल हैं, वरना आप वसीकों और जागीरों के जाल में फंस जाते। आपने एक पल के लिये भी ख़याल नहीं किया कि वे जागीरें और वसीके किसके घर से आएंगे। दूसरों से, जो कई पुश्तों से जबरन रुपए वसूल करके आपको वसीके दिए जायेंगे। आपको खुश करने के लिये दूसरों को तबाह करने का बहाना हाथ आ जायेगा। आप अपने भाइयों के हक छीनकर अपनी हवस की प्यास बुझाना चाहते हैं। दीन-परवरी नहीं है, यह भाई-बंदी नहीं है, उसका कुछ और ही नाम है।
कई आवाजें– नहीं-नहीं, हम हराम का माल नहीं चाहते।
मुस०– मैं यजीद का दुश्मन नहीं हूं। मैं जियाद का दुश्मन नहीं हूं; मैं इस्लाम का दोस्त हूं। जो आदमी इस्लाम को पैरों से कुचलता है, चाहे वह यजीद हो, जियाद हो, या खुद हुसैन हो। उसका दुश्मन हूं। जो शख्स कुरान की और रसूल की तौहीन करता है, वह मेरा दुश्मन है।
कई आ०– हम भी उसके दुश्मन हैं। वह मुसलमान नहीं, काफ़िर है।
मुस०– बेशक, और कोई मुसलमान– अगर वह मुसलमान हैं, काफ़िर को खलीफ़ा न तस्लीम करेगा, चाहे वह उसका दामन हीरे व जवाहिर से भर दे।
कई आ०– बेशक, बेशक।
मुस०– उससे एक सच्चा दीनदार आदमी कहीं अच्छा खलीफ़ा होगा, चाहे वह चिंथड़े ही पहने हुए हो।
कई आ०– बेशक, बेशक
मुस०– तो अब आप तसलीम करते हैं कि खलीफा उसे होना चाहिए, जो इस्लाम का सच्चा पैरा हो, वह नहीं, जो एक का घर लूटकर दूसरे का दिल भरता हो।
कई आ०– बेशक, बेशक।
मुस०– किसी मुसलमान के लिये इसमें बड़ी शरम की बात नहीं हो सकती कि वह किसी को महज दौलत या हुकूमत की बदौलत अपना इमाम समझे। इमाम के लिये सबसे बड़े शर्त क्या है? इस्लाम का सच्चा पैरो होना। इस्लाम की दौलत को हमेशा हक़ीर समझा है। वह इस्लाम की मौत का दिन होगा, जब यह दौलत के सामने सिर झुकाएगा। खुदा हमको और आपको वह दिन देखने के लिए जिंदा न रखे। हमारा दुनिया से मिट जाना इससे कहीं अच्छा है। तुम्हारा फर्ज है कि बैयत लेने से पहले तहकीक कर लो, जिसे तुम खलीफ़ा बना रहे हो, वह रसूल की हिदायतों पर अमल करता है या नहीं। तहक़ीक करो, वह शराब तो नहीं पीता।
कई आ०– क्या तहक़ीक़ करना तुम्हारा काम है। जांच करों कि तुम्हारा खलीफ़ा जिनाकार तो नहीं?
कई आ०– क्या यजीद जिनाकार है?
मूस०– यह जांच करना तुम्हारा काम है। दर्याफ्त करो कि वह नमाज पढ़ता है, रोजे रखता है, आलिमों की इज्जत करता है, खजाने को बेजा इस्तेमाल तो नहीं करता? अगर इन बातों के लिए जांच किए बगैर तुम महज जागीरों और वसीकों की उम्मीद पर किसी की बैयत कबूल करते हो, तुम तो कयामत के रोज खुदा के सामने शर्मिंदा होंगे। जब वह पूछेगा कि तुमने इंतखाब के हक का क्यों बेजा इस्तेमाल किया, जो तुम कैसे क्या जवाब दोगे? जब रसूल तुम्हारा दामन पकड़कर पूछेंगे कि तुमने उसकी अमानत को, जो मैंने तुम्हें दी थी, क्यों मिटा दिया उन्हें कौन-सा मुंह दिखाओगे?
कई आ०– हमें जियाद ने धोखा दिया। हम यजीद की बैयत से इनकार करते है।
मुस०– पहले खूब जांच लो। मैं किसी पर इलजाम नहीं लगाता। कौन खड़ा हो कर कह सकता है कि यजीद इन बुराइयों से पाक है।
कई आ०– हम जांच कर चुके।
मुस०– तो तुम्हें किसकी बैयत मंजूर है?
शोर– हुसैन की! रसूल के नवासे की।
मुस०– उनके बारे में तुमने उन बातों की जांच कर ली? तुम्हें यकीन है कि हुसैन उस बुराइयों से पाक है?
कई आ०– हमने जांच कर ली। हुसैन में कोई बुराई नहीं। हम हुसैन को अपना खलीफा तस्लीम करते है। जियाद ने हमें गुमराह कर दिया था।
एक आदमी– पहले जियाद को कत्ल कर दो।
दु० आ०– बेशक, उसी ने गुमराह किया था।
मुस०– नहीं तुम्हें रसूल का वास्ता है। मोमिन पर मोमिन का खून हराम है।
[सब आदमी वहीं बैठ जाते हैं, और मुसलिम के हाथों पर हुसैन की बैयत करते हैं।]