(समय– रात। वलीद का दरबार। वलीद और मरवान बैठे हुए हैं।)
मरवान– अब तक नहीं आए! मैंने आपसे कहा न कि वह हरगिज नहीं आएंगे।
वलीद– आएंगे, और जरूर आएंगे। मुझे उनके कौल पर पूरा भरोसा है।
मरवान– कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि उन्हें अमीर की वफ़ात की खबर लग गई हो, और वह अपने साथियों को जमा करके हमसे जंग करने आ रहे हों।
(हुसैन का प्रथम वलीद सम्मान के भाव से खड़ा हो जाता है, और दरवाजे पर आकर हाथ मिलाता है। मरवान अपनी जगह पर बैठा रहता है।)
हुसैन– खुदा की तुम पर रहमत हो। (मरवान को बैठे देखकर) मेल फूट और प्रेम द्वेष से बहुत अच्छा है। मुझे क्यों याद किया हैं?
वलीद– इस तकलीफ के लिये माफ़ कीजिए, आपको यह सुनकर अफ़सोस होगा कि अमीर मुआबिया ने वफ़ात पाई।
मरवान– और खलीफ़ा यजीद ने हुक्म दिया है कि आपसे उनके नाम की बैयत ली जाये।
हुसैन– मेरे नजदीक यह मुनासिब नहीं है कि मुझ-जैसा आदमी छुपे-छुपे बैयत ले। यह न मेरे लिए मुनासिब है, और न यजीद के लिए काफी। बेहतर है, आप एक आम जलसा करें, और शहर के सब रईसों और आलिमों को बुलाकर यजीद की बैयत का सवाल पेश करें। मैं भी उन लोगों के साथ रहूंगा, और उस वक्त सबके पहले जवाब देने वाला मैं हूंगा।
वलीद– मुझे आपकी सलाह माकूल होता है। बेशक, आपके बैयत लेने से वह नतीजा न निकलेगा, जो यजीद की मंशा है। कोई कहेगा कि आपने बैयत ली, और कोई कहेगा कि नहीं। और, इसकी तसदीक करने में बहुत वक्त लगेगा। तो जलसा करूं?
मरवान– अमीर, मैं आपको खबरदार किए देता हूं कि इनकी बातों में न आइए। बग़ैर बैयत लिए इन्हें यहां से न जाने दीजिए, वरना इनसे उस वक्त तक बैयत न ले सकेंगे, जब तक खून की नदी न बहेगी। यह चिनगारी की तरह उड़कर सारी खिलाफ़त में आग लगा देंगे।
वलीद– मरवान, मैं तुमसे मिन्नत करता हूं, चुप रहो।
मरवान– हुसैन, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूं कि मैं आपका दुश्मन नहीं हूं। मेरी दोस्ताना सलाह यह है कि आप यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए ताकि आपको कोई नुकसान न पहुंचे। आपस का फ़साद मिट जाये और हजारों खुदा के बंदो की जानें बच जाएं। खलीफ़ा आपके बैयत की खबर सुनकर बेहद खुश होंगे, और आपके साथ ऐसे सलूक करेंगे कि खिलाफ़त में कोई आदमी आपकी बराबरी न कर सकेगा। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि आपकी जागीरें और वजीफ़े दोचंद करा दूंगा और आप मदीने में इज्जत के साथ रसूल के कदमों से लगे हुए दीन और दुनिया में सुर्खरू होकर जिंदगी बसर करेंगे।
हुसैन– बस करो मरवान, मैं तुम्हारी दोस्ताना सलाह सुनने के लिए नहीं आया हूं। तुमने कभी अपनी दोस्ती का सबूत नहीं दिया, और इस मौके पर तुम्हारी सलाह को दोस्ताना न समझकर दगा समझू, तो मेरा दिल और मेरा खुदा मुझसे नाखुश न होगा। आज इस्लाम इतना कमजोर हो गया है कि रसूल का बेटा यजीद को बैयत लेने के लिए मजबूर हो!
मरवान– उनकी बैयत से आपको क्या एतराज है!
हुसैन– इसलिए कि वह शराबी झूठा, दग़ाबाज, हरामकार और जालिम है। वह दीन के आलिमों की तौहीन करता है। जहां जाता है, एक गधे पर एक बंदर को आलिमों के कपड़े पहनकर साथ ले जाता है। मैं ऐसे आदमी की बैयत अख्तियार नहीं कर सकता।
मरवान– या अमीर, आप इनसे बैयत लेंगे या नहीं?
हुसैन– मेरी बैयत किसी के अख्तियार में नहीं है।
मरवान– कसम खुदा की, आप बैयत कबूल किए बिना नहीं जा सकते। मैं तुम्हें यहीं कत्ल कर डालूंगा। (तलवार खींचकर बढ़ता है)
हुसैन– (डपटकर) तू मुझे कत्ल करेगा, तुझमें इतनी हिम्मत नहीं है! दूर रह। एक कदम भी आगे रखा, तो तेरा नापाक सिर जमीन पर होगा।
(अब्बास ३० सशस्त्र आदमियों के साथ तलवार खींचे हुए घुस आते हैं।)
अब्बास– (मरवान की तरफ झपटकर) मलऊन, यह ले; तेरे लिए दोज़ख का दरवाजा खुला हुआ है।
हुसैन– (मरवान के सामने खड़े होकर) अब्बास, तलवार म्यान में करो। मेरी लड़ाई मरवान से नहीं, यजीद से है। मैं खुश हूं कि यह अपने आका का ऐसा वफ़ादार ख़ादिम है।
अब्बास– इस मरदूद की इतनी हिम्मत कि आपके मुबारक जिस्म पर हाथ उठाए! क़सम खुदा की, इसका खून पी जाऊंगा।
हुसैन– मेरे देखते ही नहीं, मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।
वलीद– (हुसैन से) मैं सख्त नादिम हूं कि मेरे सामने आपकी तौहीन हुई। खुदा इसका अंजाम मुझे दे।
हुसैन– वलीद, मेरी तक़दीर में अभी बड़ी-बड़ी सख्तियां झेलनी बदी हैं। यह उस माके की तमहीद है, जो पेश आने वाला है। हम और तुम शायद फिर न मिलें इसलिए रुखसत। मैं तुम्हारी मुरौवत और भलमनसी को कभी न भूलूंगा। मेरी तुमसे सिर्फ इतनी अर्ज है कि मेरे यहां से जाने में जरा भी रोकटोक न करना।
(दोनों गले मिलकर विदा होते हैं। अब्बास और तीसों आदमी बाहर चले जाते हैं।)
मरवान– वलीद, तुम्हारी बदौलत मुझे यह जिल्लत हुई।
वलीद– तुम नाशुक्र हो। मेरी बदौलत तुम्हारी जान बच गई, वरना तुम्हारी लाश फर्श पर तड़पती नज़र आती।
मरवान– तुमने यजीद की खिलाफत यजीद से छीनकर हुसैन को दे दी। तुमने आबूसिफ़ियान की औलाद होकर उसके खानदान से दुश्मनी की। तुम खुदा की दरगाह में उस क़त्ल और खून के जिम्मेदार होगे, जो आज को ग़फलत या नरमी का नतीजा होगा।
(मरवान चला जाता है)
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D