[दोपहर का समय। हानी का मकान शरीक एक चारपाई पर पड़े हुए है। मुसलिम और हानी फ़र्श पर बैठे हैं।]
शरीक– जियाद अब आता ही होगा। मुसलिम, तलवार को तेज रखना।
हानी– मैं खुद उसे क़त्ल करता, पर जईफ़ी ने हाथों में कूबत बाकी नहीं रखी।
शरीक– इसमें पसोपेशे की मुतलक जरूरत नहीं। हक की हिमायत के लिये, इस्लाम की हिमायत के लिये, कौम की हिमायत के लिये, अगर खून का दरिया बहा दिया जाये, तो उसमें फरिश्ते वजू करें। औलिया की रूहें उसमें नहाएंगी। जो हाथ हक की हिमायत में न उठे, वह अंधी आँखों से, बुझे हुए चिराग से, दिन के चांद से भी ज्यादा बेकार है। इस्लाम की खिदमत को इससे बेहतर मौका आपको फिर न मिलेगा– शायद फिर कभी किसी को न मिलेगा। कूफ़ा और बसरा पर कब्जा करके यजीद की बड़ी-से-बड़ी फ़ौज का मुकाबला कर सकते हैं। यजीद की खिलाफ़त इस्लाम को दुनियादारी और इस्लाम की तरफ ले जायेगी और हुसैन की खिलाफ़त हक और सच्चाई की तरफ। क्या यह आपको मंजूर है कि यजीद के हाथों इस्लाम तबाह हो जाये।
[जियाद आता है, और मुसलिम बग़ल की कोठरी में छिप जाते हैं।]
जियाद– अस्सलामअलेक या शरीक, तुम्हारी हालत तो बहुत खराब नजर आती है।
हानी– कल से आँखें नहीं खोली। सारी रात कराहते गुजरी है।
शरीक– खुदा फरमाता है– हक के वास्ते जो तलवार उठाता है, उसके लिये जन्नत का दरवाजा खुला हुआ हुआ है।
जियाद– शरीक, शरीक! कैसी तबीयत है?
शरीक– शौक कहता था कि हां, हसरत यह कहती थी, नहीं; मैं इधर मुश्किल में था, कातिल उधर मुश्किल में था।
हानी– आँखें खोलो। अमीर तुम्हारी मुलाकात को आए हैं।
शरीक– सल्ब की कूबत, तड़पने की, तड़पता किस तरह; एक दिल में दूसरा खंजर कफ़े कातिल में था।
जियाद– क्या रात भी यहीं इनकी हालत थी?
हानी– जी हां, यों ही बकते रहे।
शरीक– गले पर छुरी क्यों नहीं फेर देते, हकीकत पर अपनी नजर करनेवाले।
जियाद– किसी हकीम को बुलाना चाहिए।
शरीक– कौन आया है, जियाद!
हुजूम-आरजू से बढ़ गई बेताबियां दिल की;
अरे ओ छिपानेवाले, यह हिजाबें जां सितां कब तक।
जियाद– तुम्हारे घरवालों को खबर दी जाये?
शरीक– मैं यहीं मरूंगा, मैं यहीं मरूंगा।
मेरी खुशी पर आसमां हंसता है, और हंसे न क्यों;
बैठा हूं जाके चैन से दोस्त की वज्में-नाज में।
जियाद– खुदा किसी गरीब को बेवतनी में मरीज न बनाए। हानी, मैंने सुना है, मुसलिम मक्के से यहां आए हैं। खलीफ़ा ने मुझे सख्त ताकीद की है कि उन्हें गिरफ्तार कर लूं। आप शहर के रईस हैं, उनका कुछ सुराग मिले, तो मुझे तो इत्तिला दीजिएगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है। आप समझ सकते हैं कि उनके आने से मुल्क में कितना शोर-शर पैदा होगा। कसम है कलाम-पाक की इस वक्त जो उनका सुराग लगा दे, उसका दामन जवाहारात से भर दूं। मैं इस फिक्र में जाता हूं। आप भी तलाश में रहिए।
[चला जाता है]
शरीक– हजरत मुसलिम, आप से आज जो गलती हुई है, उस पर आप मरते दम तक पछताएंगे और आपके बाद मुसलमान कौम इसका खमियाजा उठाएगी। तुम कयास नहीं कर सकते कि तुमने इस्लाम को आज कितना बड़ा नुकसान पहुंचाया है। शायद खुदा को यही मंजूर है कि रसूल का लगाया हुआ बाग यजीद के हाथों बरबाद हो जाये।
मुस०– शरीक, मैंने कभी दगा नहीं की, और मुझे यकीन है कि हजरत हुसैन मेरी इस हरकत को कभी पसंद न करते। इस्लाम का दरख्त हक के बीच से उगा है। दगा से उसकी आबपाशी करने में अंदेशा है कि कहीं दरख्त सूख न जाये। हक पर कायम रहते हुए अगर इस्लाम का नामोनिशान दुनिया से मिट जाय, तो भी इससे कहीं बेहतर है कि उसे जिंगा रहने के लिए दग़ा का सहारा लेना पड़े। (हानी से) भाई साहब को इत्तिला दे दूं कि यहां १८ हजार आदमियों ने आपकी बैयत कबूल कर ली है।
हानी– जरूर। मेरा गुलाम इस खिदमत के लिए हाजिर है।
मुस०– (दिल में) यह गैरमुमकिन है कि इतने आदमी बैयत लेकर फिर उसे तोड़ दें। कल मुझे चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता था। आज़ चारों तरफ रोशनी नज़र आती है। मेरी ही तहरीक हुसैन यहां आने के लिए राजी हुए। खुदा का शुक्र है कि मेरा दावा सही निकला, और मेरी उम्मीद पूरी हुई।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D