[प्रातःकाल का समय। जियाद का दरबार। मुसलिम को कई आदमी मुश्क कसे लाते हैं]
मुस०– मेरा उस पर सलाम है, जो हिदायत पर चलता है, आकबत से डरता है, और सच्चे बादशाह की बंदगी करता है।
चोबदार– मुसलिम! अमीर को सलाम करो।
मुस०– चुप रह। अमीर, मेरा मालिक, मेरा इमाम हुसैन है।
जियाद– तुमने कूफ़ा में आकर कानू के मुताबिक कायम की हुई बादशाहत को उखाड़ने की कोशिश की, बागियों को भड़काया और रियासत में निफ़ाक पैदा किया?
मुस०– कूफ़ा-कानून के मुताबिक न कोई सल्तनत कायम थी, न है। मैं उस शख्श का कासिद हूं, जो चुनाव के कानून से, विरासत के कानून से और लियाकत से अमीर है। कूफ़ावालों ने खुद उसे अमीर बनाया। अगर तुमने लोगों के साथ इंसाफ किया होता, तो बेशक, तुम्हारा हुक्म जायज था। रियाया की मर्जी और सब हकों को मिटा देती है। मगर तुमने लोगों पर वे जुल्म किए कि कैसर ने भी न किए थे। बेगुनाहों को सजाएं दीं, जुरमानें के हीले से उनकी दौलत लूटी, अमन रखने के हीले से उनके सरदारों को कत्ल किया। ऐसे जालिम हाकिम को, चाहे वह किसी हक के बिना पर हुकूमत करता हो, हुकूमत करने का कोई हक नहीं रहता, क्योंकि हैवानी ताकत कोई हक़ नहीं है। ऐसी हुकूमत को मिटाना हर सच्चे आदमी का फर्ज़ हैं और जो इस फ़र्ज से खौफ़ या लालच के कारण मुंह मोड़ता है, वह इंसान और खुदा दोनों ही की निगाहों में गुनाहगार है। मैंने अपने मकदूर-भर रियाया के तेरे पंजे से छुड़ाने की कोशिश की और मौका पाऊंगा, तो फिर करूंगा।
जियाद– वल्लाह, तू फिर इसका मौका न पाएगा। तूने बग़ावत की है। बगावत की सजा कत्ल है। और दूसरे बागियों की इबरत के लिये मैं तुझे इस तरह कत्ल कराऊंगा, जैसे अब तक न किया गया होगा।
मुस०– बेशक। यह लियाकत तुझी में है।
जियाद– इस गुस्ताख को ले जाओ, और सबसे ऊंची छत पर क़त्ल करो।
मुस०– साद, तुमको मालूम है कि तुम मेरे कराबतमंद हो?
साद– मालूम है।
मुस०– मैं तुमसे कुछ वसीयत करना चाहता हूं।
साद– शौक से करो।
मुस०– मैंने यहां कई आदमियों से कर्ज लेकर अपनी जरूरतों पर खर्च किए थे। इस कागज़ पर उनके नाम और रकमें दर्ज हैं। तुम मेरा घोड़ा और मेरे हथियार बेचकर यह कर्ज अदा कर देना, वरना हिसाब के दिन मुझे इन आदमियों से शर्मिदा होना होगा।
साद– इसका इतमीनान रखिए।
मुस०– मेरी लाश को दफ़न करा देना।
साद– यह मेरे इमकान में नहीं है।
[जल्लाद आकर मुसलिम को ले जाता है।]
अश०– था अमीर, मुसलिम क़त्ल हुए अब बगावत का कोई अंदेशा नहीं। अब आप हानी की जानबख्शी कीजिए।
जियाद– कलाम पाक की क़सम, अगर मेरी नजात भी होती हो, तो हानी को नहीं छोड़ सकता।
अश०– लोग बिगड़ खड़े हों, तो?
जियाद– जब कौम के सरदार मेरे तरफ़दार हैं, तो रियाय की तरफ से कोई अंदेशा नहीं। (जल्लाद को बुलाकर) तूने मुसलिम को कत्ल किया?
जल्लाद– अमीर के हुक्म की तामील हो गई। खुदावंद किसी को इतनी दिलेरी से जान देते नहीं देखा। पहले नमाज पढ़ा, तब मुझसे मुस्कराकर कहा– ‘तू अपना काम कर’।
जियाद– तूने उसे नमाज क्यों पढ़ने दिया? किसके हुक्म से?
जल्लाद– गरीबपरवर, आखिर नमाज के रोकने का अजाब जल्लादों के लिए भी भारी है। जिस्म को सिर से अलग कर देना इतना बड़ा गुनाह नहीं है जितना किसी को खुदा की इबादत से रोकना।
जियाद– चुप रह नामाकूल। तू क्या जानता है, किसको क्या सज़ा देनी चाहिए। ग़ैरतमंदों के लिये रूहानी ज़िल्लत क़त्ल से कहीं ज्यादा तकलीफ देती है। खैर, अब हानी को ले जा और चौराहे पर कत्ल कर डाल।
एक आ०– खुदावंत, यह खिदमत मुझे सुपुर्द हो।
जियाद– तू कौन है।
आ०– हानी का गुलाम हूं। मुझ पर उसने इतने जुल्म किए है कि मैं उनके खून का प्यासा हो गया हूं। आपकी निगाह हो जाये, तो मेरी पुरानी आरजू पूरी हो। मैं इस तरह क़त्ल करूंगा कि देखने वाले आंखें बंद कर लेंगे।
जियाद– कलाम पाक की कसम, तेरा सवाल जरूर पूरा करूंगा।
[गुलाम हानी को पकड़े हुए ले जाता है। कई सिपाही तलवारें लिए साथ-साथ जाते हैं।]
गुलाम– (हानी से) मेरे प्यारे आका मैंने जिंदगी भर आपका नमक खाया, कितनी ही खताएं कीं, पर आपने कभी कड़ी निगाहों से नहीं देखा। अब आपके जिस्म पर किसी बेहर्द कातिल का हाथ पड़े, वह मैं नहीं देख सकता। मैं इस हालात में भी आपकी खिदमत करना चाहता हूं। मैं आपकी रूह को इस जिस्म की कैद से इस तरह आजाद करूंगा कि जरा भी तकलीफ न हो। खुदा आपको जन्नत दे, और खता माफ करे।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D