[प्रातःकाल। शाम का लश्कर। हुर और साद घोड़ों पर सवार फ़ौज का मुआयना कर रहे हैं।]
हुर– अभी तर जियाद ने आपके खत का जबान नहीं दिया?
साद-उसके इंतजार में रात-भर आंखें नहीं लगीं। जब किसी की आहट मिलती थी, तो गुमान होता था कि कासिद है। मुझे तो यकीन है कि अमीर जियाद मेरी तजबीब मंजूर कर लेंगे।
हुर– काश ऐसा होता! अगर जंग की नौबत आई, तो फौज़ के कितने ही सिपाही लड़ने से इनकार कर देगे।
[सामने से शिमर घोड़ा दौड़ाता हुआ आता है।]
साद– लो, कासिद भी आ गया। खुदा करे, अच्छी खबर लाया हो। अरे, यह तो शिमर है।
हुर– हां, शिमर ही है। खुदा खैर करे, जब यह खुद जियाद के पास गया था, तो मुझे आपकी तजबीब के मंजूर होने से बहुत शक है।
शिमर– (करीब आकर) अस्सलामअलेक। मैं कल एक जरूरत से मकान चला गया। अमीर जियाद को खबर हो गई। उसने मुझे बुलाया और आपको यह खत दिया।
[खत साद को देता है। साद खत पढ़कर जेब में रख लेता है, और एक लंबी सांस लेता है।]
साद– शिमर, मैंने समझा था, तुम सुलह की खबर लाते होंगे।
शिमर– आपकी समझ की गलती थी। आपको मालूम है कि अमीर जियाद एक बार फैसला करके फिर उसे नहीं बदलते। अब आपकी क्या मंशा है?
साद– मजबूर हुक्म की तामील करूंगा।
शिमर– तो मैं, फौजों को तैयार होने का हुक्म देता हूं?
साद– जैसा मुनासिब समझा।
[शिमर फौज़ की तरफ़ चला जाता है।]
हुर– खुदा सब कुछ करें, इंसान का बातिन स्याह न बनाए।
साद– यह सब इन्हीं हजरत की कारगुजारी है। जियाद मेरी तरफ़ से कभी इतने बदनुमान न थे।
हुर– मुझे तो फ़र्जन्दें रसूल से लड़ने के खयाल ही से दहशत होती है।
साद– हुर, तुम सच कहते हो। मुझे यकीन है कि उनसे जो लड़ेगा, उसकी जगह जहन्नुम में है। मगर मजबूर हूं, ‘रै’ की परवा न करूं, तो भी घर की तरफ़ से बेफ़िक्र तो नहीं हो सकता। अफ़सोस, मैं हविस के हाथों तबाह हुआ। काश मेरा दिल इतना मजबूत होता कि ‘रै’ की निजामत पर लट्टू न हो जाता, तो आज मैं फ़र्जन्दें रसूल के मुकाबले पर न खड़ा होता। हुर, क्या इस जंग के बाद किसी तरह मगफ़िरत हो सकती?
हुर– फ़र्जन्दे-रसूल के खून का दाग़ कैसे धुलेगा?
साद– हुर, मैं इतने रोजे रखूंगा कि मेरा जिस्म घुल जाये, इतनी नमाजें अदा करूंगा कि आज तक किसी ने न की होंगी। ‘रै’ को सारी आमदनी खैरात कर दूंगा। पियादा पा हज करूंगा। और रसूल पाक की क़ब्र पर बैठकर रोऊंगा, गुनहगारों की खताएं मुआफ करूंगा, और एक चीटीं को भी ईजा न पहुंचाऊंगा। हाय! जालिम शिमर सोचने का मौका भी नहीं देना चाहता। फौजें तैयार हो रही हैं। क़ीस, हज्जाज, शीश, अशअस अपने-अपने आदमियों को सफ़ों में खड़े करने लगे। वह लो, नक्कारे पर चोट भी पड़ गई।
हुर– मैं भी जाता हूं, अपने आदमियों को संभालूं।
[आहिस्ता-आहिस्ता जाता है।]
साद– ऐ खुदा! बहुत बेहतर होता कि तूने मुझे शिमर की तरह स्याह बातिन बनाया होता, या हानी और क़सीर का-सा दिल दिया होता कि अपने को ग़ैर पर कुर्बान कर देता। कमजोर इंसान भी जानता है कि मुझे क्या करना चाहिए, और क्या नहीं कर सकता। वह गुलाम से भी बदतर है, जिसका अपनी मर्जी पर कोई अधिकार नहीं। मेरे कबीलेवालों ने भी सफ़बंदी शुरू कर दी। मुझे भी अब जाकर अपनी जगह पर सबसे आगे चलना चाहिए और वही करना चाहिए, जो शिमर कराए, क्योंकि अब मैं फ़ौज़ का सरदार नहीं हूं, शिमर है।
[आहिस्ता-आहिस्ता जाकर फौ़ज के सामने खड़ा हो जाता है।]
शिमर– (उच्च स्वर से) ऐ खिलाफत को जिंदा रखने के लिए अपने तई कुरबान करने वाले। बहादुरों, खुदा का नाम लेकर कदम आगे बढ़ाओ, दुश्मन तुम्हारे सामने है। वह हमारे रसूल पाक का नवासा है, और उस रिश्ते से हम सब ताजीम से उसके आगे सिर झुकाते हैं। लेकिन जो आदमी हिंर्स का इतना बंदा है कि रसूल पाक के हुक्म का, जो उन्होंने खिलाफ़त को अब तक कायम रखने के लिए दिया था, पैरों-तले कुचलता है, और जो क़ौम की बैयत की परवा न करके अपने विरासत के हक़ के लिए खिलाफ़त को खाक में मिला देना चाहे, वह रसूल का नवासा होते हुए भी मुसलमान नहीं है। हमारी निगाहों में रसूल के हुक्म की इज्जत उसके नवासे की इज्जत से कहीं ज्यादा है। हमारा फर्ज है कि हमने जिस खलीफ़ा की बैयत क़बूल की है, उसे ऐसे हमलों, से बचाएं, जो हिर्स को पूरा करने के लिए दाद के नाम पर किए जाते हैं। चलो, फर्ज के मैदान में कदम बढ़ाओ।
[नश्कारे पर चौब पड़ती है, और पूरा लश्कर हुसैन के पड़ाव की तरफ बढ़ता है। साद आगे कदम बढ़ाता हुआ हुसैन के खेमे के क़रीब पहुंच जाता है।]
अब्बास– (हुसैन के खेमे से निकलकर) साद! यह दग़ा! हम तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे है, और तुम हमारे ऊपर हमला कर रहे हो? क्या यही आईने-जंग है?
साद– हज़रत, कलाम पाक की कसम, मैं दगा के इरादे से नहीं आया। (जियाद का खत अब्बास के हाथ में देकर) यह देखिए, और मेरे साथ इंसाफ कीजिए। मैं इस वक्त नाम के लिए फ़ौज का सरदार हूं, अख्तियार शिमर के हाथों में है।
अब्बास– (खत पढ़कर) आखिर तुम दुनिया की तरफ झुके। याद रखो, की दरगार में शिमर नहीं, तुम खतावार समझे जाओगे।
साद– या हजरत, यह जानता हूं पर जियाद के गुस्से का मुकाबला नहीं कर सकता। वह बिल्ला है, मैं चूहा हूं, वह बाज है, मैं कबूतर हूं। वह एक इशारे से मेरे खानदान का निशान मिटा सकता है। अपनी हिफ़ाजत की फिक्र ने मुझे मजबूर कर दिया है, मेरे दीन और ईमान को फ़ना कर दिया है।
अब्बास– खुलासा यह है कि तुम हमारा मुहासिरा करना चाहते हो। ठहरो, मैं जाकर भाई साहब को इत्तिला दे दूं।
[अब्बास हुसैन के खेमे की तरफ जाते हैं।]
शिमर– (साद के पास आकर) क्या अब कोई दूसरी चाल चलने की सोच रहे हैं?
साद– नहीं, हजरत हुसैन को हमारी आमद और मंशा की इत्तिला देने गए हैं।
शिमर– यह मौके को हमारे हाथों से छीनने का हीला है। शायद कबीलों से इमदाद तलब करने का क़स्द कर रहे हैं। एक दिन की देर भी उन्हें मौके का बादशाह बना सकती है।
[अब्बास खेमे से वापस आते हैं।]
अब्बास– मैंने हजरत हुसैन को तुम्हारा पैग़ाम दिया। हज़रत को इसका बेहद सदमा है कि उनकी कोई शर्त मंजूर नहीं की गई। सुलह की इससे ज्यादा कोशिश उनके इमकान में न थी। गो हम सब जंग के लिये तैयार है, लेकिन उन्होंने एक दिन की मुहलत मांगी है कि दुआ और नमाज में गुजारे। सुबह को हमें खुदा का जो हुक्म होगा, उसकी तामील करेंगे।
साद– इसका जवाब मैं अपनी फ़ौज के दूसरे सरदारों से मशविरा करके दूंगा।
[अब्बास अपने खेमों की तरफ़ जाते हैं, और हुर, हज्जाज, अशअस, कीस सब साद के पास आकर खड़े हो जाते हैं।]
साद– शिमर, तुम्हारी इस मामले में क्या सलाह है?
शिमर– यह उनकी हीलेबाजी है। आइंदा आप अमीर हैं, जो जी चाहे, करें।
साद– (दूसरे सरदारों से मुखातिब होकर) हजरत हुसैन ने एक दिन की मुहलत की दरख्वास्त की है, आप लोगों की क्या सलाह है?
शिमर– इसका आप लोग खयाल रखिएगा कि यह मुहलत आफ़त के मीजान को पलट सकती है।
हुर– मुहलत के मंजूर करने में पसोपेश का कोई मौका नहीं।
हज्जाज– हुसैन अगर काफ़िर होते, और मुहल्लत की दरख्वास्त करते, तो भी उसको कबूल करना लाजिम था।
क़ीस– बहुत मुमकिन है, वह कल तक आपस में सलाह करके यजीद की बैयत कबूल कर ले, तो नाहक खूरेजी क्यों हो।
शिमर– और अगर शाम तक बनी, असद और दूसरे कबीले उनकी मदद के लिए आ जायें, तो?
शीश– हजरत हुसैन ने अभी तक किसी कबीले से इमदाद नहीं तलब की है, वरना हम इतने इतमीनान से यहां न खड़े होते।
साद– बनी और असद ही नहीं, अगर ईराक के सारे कबीलें आ जायें, तब भी हम आज उन्हें जंग के लिए मजबूर नहीं कर सकते। यह इंसानियत के खिलाफ़ है। मेरा यही फैसला है। आइंदा आप लोगों को आख्तियार है।
[साद गुस्से में भरा हुआ वहां से चला जाता है।]
शिमर– क्या आप लोगों की यही मर्जी है कि आज जंग मुल्तवी की जाय?
हुर– यहां जितने असहाय मौजूद है, सब अपनी राएं दे चुके, अमीरे-लश्कर भी चला गया। ऐसी हालात में मुहलत के सिवा और हो ही क्या सकता है। अगर आप अपनी जिम्मेदारी पर जंग करना चाहते हैं, तो शौक से कीजिए।
[हुर, हज्जाज बगैरह भी चले जाते हैं।]
शिमर– (दिल में) कौन कहता है कि हुसैन के साथ दग़ा की गई? यहां सब-के-सब के दोस्त हैं। इस फौ़ज में रहने से कहीं यह बेहतर था कि सब के सब हुसैन की फौज में होते। तब भी उनकी इतनी मदद न कर सकते। मुझे जरा ताज्जुब न होगा, अगर कल सब लोग हथियार रखकर हुसैन के कदमों पर गिर पड़े। जियाद को इस मुहलत की भी इत्तिला तो दे ही दूं।
[साद का क़ासिद मुहलत का पैग़ाम लेकर हुसैन के लश्कर की तरफ जाता है। शिमर अपने खेमे की तरफ़ जाता है।]