[स्थान– काबा, मरदाना बैठक। हुसैन, जुबेर, अब्बास मुसलिम अली असगर आदि बैठे दिखाई देते हैं।]
हुसैन– यह पांचवी सफ़ारत है। एक हज़ार से ज्यादा खतूत आ चुके हैं। उन पर दस्तखत करने वालों की तादाद पन्द्रह हजार से कम नहीं है।
मुस०– और सभी बड़े-बड़े कबीलों के सरदार है। सुलेमान, हारिस, हज्जाज, शिमर, मुख्तार, हानी, ये मामूली आदमी नहीं हैं।
जुबेर– मैं तो अर्ज कर चुका कि मुसल्ल ईराक आपकी बैयत कबूल करने के लिये बेकरार है।
हुसैन– मुझे तो अभी तक उनकी बातों पर एतबार नहीं होता। खुदा जाने, क्यों मेरे दिल में उनकी तरफ से दग़ा का शुबहा घुसा हुआ है। मुझे हबीब की बातें नहीं भूलती, जो उसने चलते-चलते कही थी।
मुस०– गुस्ताखी तो है, पर आपका उन पर शक करना बेजा है। आखिर आप उनकी वफ़ादारी का और क्या सबूत चाहते हैं? वे कसमें खाते हैं, वादे करते हैं, साफ़ लिखते हैं कि आपकी मदद के लिये बीस हज़ार सूरमा तैयार बैठे हैं। अब और क्या चाहिए?
जुबेर– कम-से-कम मैं तो ऐसे सबूत पाकर पल की भी देर न करता।
अब्बास– मुझे तो इन कूफ़ियों पर उस वक्त भी एतबार न आएगा, अगर उनके बीसों हजार आदमी यहाँ आकर आपकी बैयत की कसम खा लें। अगर वह कुरान शरीफ़ हाथ में लेकर कसमें खायें, तो भी मैं उनसे दूर भागूं।
[तारिक आता है।]
तारिक– अस्सलाम अलेक या हुसैन।
हुसैन– खुदा तुम पर रहमत करे। कहां से आ रहे हो?
तारिक– कूफ़ा के मजमूलों ने अपनी फ़रियाद सुनाने के लिये आपकी खिदमत में भेजा है। आफ़ताब डूबते चला था, और आफ़ताब डूबते आया हूं, और आफ़ताब निकलने के पहले यहां से जाना है।
मुस०– हवा पर आए हो या तख्तए-सुलेमान पर? कसम है पाक रसूल की कि मैं उस घोड़े के लिये पांच हज़ार दीनार पेश करता हूं।
तारिक– हुजूर, घोड़ी नहीं, सांड़नी है, जो सफ़र में खाना और थकना नहीं जानती।
(हुसैन के हाथ में खत देता है)
हुसैन– (खत पढ़कर) आह, कितना दर्दभरा खत है। जालिमों ने दिल निकालकर रख दिया है। यह कितना गजब का जुमला है कि अगर आप न आएंगे, तो हम आक़वत में आपसे इंसाफ़ का दावा करेंगे। आह! उन्होंने नाना का वास्ता दिया है। मैं नाना के नाम पर अपनी जान को यों फ़िदा कर सकता हूं, जैसे कोई हरीस अपना ईमान फ़िदा कर देता है। इतना जुल्म! इतनी सख्ती! दिन-दहाड़े लूट! दिन-दहाड़े औरतों की बेआबरूई! जरा-जरा-सी बातों पर लोगों का कत्ल किया जाना! अब्बास, अब मुझे सब्र की ताब नहीं है। मैं अपनी बैयत के लिये हर्गिज न जाता, पर मुसीबतजदों की हिमायत के लिये न जाऊं, यह मेरी ग़ैरत गंवारा नहीं करती।
मुस०– या बिरादर, आप इसका कुछ ग़म न करें, मैं इसी कासिद के साथ जाऊंगा और वहां की कैफ़ियत की इत्तिला दूंगा। मेरा खत देखकर आप मुनासिब फ़ैसला कीजिएगा।
हुसैन– तब तक यजीद उन गरीबों पर खुदा जाने क्या-क्या सितम ढाए। उसका अजाब मेरी गर्दन पर होगा। सोचो, जब कयामत के दिन वे लोग फ़रियादी होंगे, तो मैं नाना को क्या मुंह दिखाऊंगा। जब वह मुझसे पूछेंगे कि तुझे जान इतनी प्यारी थी कि तूने मेरे बंदों पर जुल्म होते देख, और खामोश बैठा रहा, उस वक्त मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा। मुसलिम, मेरा जी चाहता है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं।
मुस०– मुझे तो इसका यक़ीन है कि सुलेमान– जैसा आदमी कभी दग़ा नहीं कर सकता।
जुबेर– हर्गिज़ नहीं।
मुस०– पर मैं यही मुनासिब समझता हूं कि पहले वहां जाकर अपनी इत्मीनान कर लूं।
मुस०– बच्चों को ग़ैव का इल्म होता है। इसका फैसला अली असगर पर छोड़ दिया जाये। क्यों बेटा, मैं भी मुसलिम के साथ जाऊं, या उनके खत का इंतजार करूं।
अली अस०– नहीं अब्बाजान, अभी मुसलिम चाचा ही को जाने दाजिए। आप चलेंगे, तो कई दिन तैयारियों में लग जायेंगे। ऐसा न हो, इतने दिनों में वे बेचारे निराश हो जायें।
अब्बास– बेटा, तेरी उम्र दराज हो। तूने खूब फैसला किया। खुदा तुझे बुरी नजर से बचाए।
हुसैन– अच्छी बात है, मुसलिम, तुम सबेरे रवाना हो जाओ। अपने साथ गुलाम लेते जाओ। रास्ते में शायद इनकी ज़रूरत पड़े। मैं कूफ़ावालों के नाम यह खत लिख देता हूं, उन्हें दिखा देना। इंशा अल्लाह, हम तुमसे जल्दी ही मिलेंगे। वहां बड़े एहतियात से काम लेना, अपने को छिपाए रखना, और किसी ऐसे आदमी के घर उतरना, जो सबसे एतबार के लायक हो। मेरे पास एक खत रोजाना भेजना।
मुस०– खुदा से दुआ कीजिए कि वह मेरी हिदायत करे। मैं बड़ी भारी जिम्मेदारी लेकर जा रहा हूं। सुबह की नमाज पढ़कर मैं रवाना हो जाऊंगा। तब तक तारिक की सांड़नी भी आराम कर लेगी।
[हुसैन खत लिखकर मुसलिम को देते हैं। मुसलिम दरवाजे की तरफ़ चलते हैं।]
हुसैन– (मुसलिम के साथ दरवाजे तक आकर) रात तो अंधेरी है।
मुस०– उम्मीद की रोशनी तो दिल में है।
हुसैन– (मुसलिम से बगलगीर होकर) अच्छा भैया, जाओ, मेरा दिल तुम्हारे साथ रहेगा। जो कुछ होने वाला है, जानता हूं। इसकी खबर मिल चुकी है। तकदीर से कोई चारा नहीं, नहीं जानता, यह तकदीर क्या है! अगर खुदा का हुक्म है, तो छुपकर, सूरत बदलकर, दग़ाबाजों की तरह क्यों आती है। खुदा क्या साफ़ और खुले एक अल्फाज़ में अपना हुक्म नहीं भेजता। अपने बेकस बच्चों का शिकार टट्टी की आड़ से क्यों करता है। जाओ, कहता हूं, पर जी चाहता है, न जाने दूं। काश, तुम कह देते कि मैं न जाऊंगा। मगर तक़दीर ने तुम्हारी जबान बन्द कर रखी है। अच्छा, रूखसत। उम्मीद है कि अल्लाह हम दोनों को एक साथ शहादत का दर्जा देगा।
[मुसलिम बाहर चला जाता है। हुसैन आंखें पोंछते हुए हरम में दाखिल होते हैं।]
जैनब– भैया, आज फिर कोई क़ासिद आया था क्या?
हुसैन– हां जैनब, आया था। यजीद कूफ़ावालों पर बड़ा जुल्म कर रहा है। मेरा वहां जाना लाजिमी है। अभी तक मैंने मुसलिम को वहां भेज दिया है, पर खुद भी बहुत जल्द आना चाहता हूं।
जैनब– आपके एकाएक क्यों अपनी राय बदल दी? कम-से-कम मुसलिम के खत के आने का इंतजार कीजिए। मैं तो आपको हरगिज न जाने दूंगी। आपको वह ख्याब याद है, जो आपने रसूल की कब्र पर देखा था?
हुसैन– हां, जैनब, खूब याद है, इसी वजह से मैं जाने की जल्दी कर रहा हूं। उस ख्वाब ने मेरी तक़दीर को मेरे सामने खोलकर रख दिया। तक़दीर से बचने की भी कोई तकबीर है? ख़ुदा का हुक्म भी टल सकता है। खिलाफ़त की तमन्ना को दिल से मिटा सकता हूं, पर ग़ैरत को तो नहीं मिटा सकता, बेकसों की इमदाद से तो मुंह नहीं मोड़ सकता।
शहर०– आप जो कुछ करते हैं, इसमें खुदा और तक़दीर को क्यों खींच लाते हैं। जब आपको मालूम है कि कूफ़ा में लोग आपके साथ दग़ा करेंगे, तो वहां जाइए ही क्यों? तकदीर आपको खींच तो न ले जाएगी? बेकसों की इमदाद जरूर आपका और आप ही का नहीं, हर एक इंसान का फर्ज है, लेकिन आपके कुन्बे की भी तो कोई खबर लेने वाला हो? इंसान पर दुनिया से पहले खानदान का हक होता है।
हुसैन– ज़रा इस खत को पढ़ लो तब कहो कि मैंने जो फैसला किया है, वह मुनासिब है या नहीं। (शहरबानू के हाथ के खत देकर) देखा! इससे क्या साबित होता है? लेकिन जितने आदमियों ने इस पर दस्तखत किए हैं, उसके आधे भी मेरे साथ हो जायेंगे, तो मैं यजीद का काफ़िया तंग कर दूंगा। इस्लाम की खिलाफ़त इतना आला रुतबा है कि उसकी कोशिश में जान दे देना भी जिल्लत नहीं। जब मेरे हाथों में एक स्याहकार बैदीन आदमी को सजा देने का मौक़ा आया है, तो उससे फ़ायदा न उठाना पहले सिरे की पस्तहिम्मती है। घर में आग लगते देखकर उसमें कूद पड़ना नादानी है, लेकिन पानी मिल रहा हो, तो उनसे आग को न बुझाना उनसे भी बड़ी नादानी है।
सकीना– मगर अब्बाजान, अब तो मुहर्रम का महीना आ रहा है। फूफ़ीजान की बहुत दिनों से आरजू थी कि इस महीने में यहां रहती।
हुसैन– तुम लोगों को ले जाने का मेरा इरादा नहीं है।
जैनब– भैया, ऐसा भी हो सकता है कि आप वहां जायें, और हम यहां रहें! खुदा जाने, कैसी पड़े, कैसी न पड़े।
सकीना– अब्बाजान दिल्लगी करते हैं, आप लोग सच समझ गई।
कुलसूम– और कोई चले, चाहे न चले, मैं तो ज़रूर ही जाऊंगी। मेरे दिल से लगी हुई है कि एक बार यजीद को खूब आड़े हाथों लेती।
सकीना– मैं अपनी फतह का कसीदा लिखने के लिए बेताब हूं।
शहर०– आप समझते हैं कि हमारे साथ रहने से आपको तरद्दुद होगा, पर मैं पूछती हूं, आपको वहां फंसाकर दुश्मनों ने इधर हमला कर दिया, तो हमारी हिफा़जत की फिक्र आपको चैन लेने देगी?
जैनब– असग़र हुड़क-हुड़ककर जान दे देगा।
सकीना– हम अपने ऊपर इस बदनामी का दाग़ नहीं लगा सकती कि रसूल के बेटे ने तो इस्लाम की हिमायत में जान दी, और बेटियां हरम में बैठी रहीं।
हुसैन– (स्वगत) शहरबानू ने मार्के की बात कही, अगर दुश्मनों ने हरम पर हमला कर दिया, तो हम वहां बैठे-बैठे क्या कर लेंगे? इन्हें यहां छोड़ देना अपने किले की दीवार में शिग़ाफ़ कर देने से कम खतरनाक नहीं। (प्रकट) नहीं, मैं तो लोगों पर जब्र नहीं करता, अगर चलना चाहती है, तो शौक़ से चलो।