[यजीद का दराबर। मुआबिया बेड़ियां पहने हुए बैठे हुआ है। चार गुलाम नंगी तलवारें लिए उसके चारों तरफ़ खड़े हैं। यजीद के तख्त के करीब सरजून रूमी बैठा हुआ है।]
मुआ०– (दिल से) नबी की औलाद पर यह जुल्म! मुझी से तो इसका बदला लिया जायेगा। बाप का कर्ज़ बेटे ही की तो अदा करना पड़ता है! नगर मेरे खून से इस जुलम का दाग़ न मिटेगा। हर्गिज नहीं, इस खानदान का निशान मिट जायेगा। कोई फातिहा पढ़ने वाला भी न रहेगा। आह! नबी की औलाद पर यह जुल्म! जिनके क़दमों की खाक आंखों में लगानी चाहिए थी। तबाही के सामान हैं। ऐ रसूक पाक, मैं बेगुनाह हूं, (प्रकट) आप जानते हैं। मौलाना रूमी के वालिद का मुझे कब तक इंतजार करना पड़ेगा।?
रूमी– आते ही होंगे। जियाद से कुछ बातें हो रही हैं।
मुआ०– वालिद मुझसे चाहते हैं कि मैं इस मार्के में शरीक हो जाऊं, लेकिन अगर जालिमों के हाथ से अख़्तियार छीनने के लिये, हक़ की हिमायत के लिये यह पहलू अख़्तियार किया जाता, तब सबसे पहले मेरी तलवार म्यान से निकलती, सबसे पहले मैं जिहाद का झंड़ा उठाता, पर हक़ का खून करने के लिये मेरी तलवार कभी बाहर न निकलेगी, और मेरी जबान उस वक्त तक मलामत करती रहेगी, जब तक वह तालू से खींच न ली जाये। नबी की मसन्द पर (जिसने दुनिया को हिदायत का चिराग दिखलाया, जिसने इसलामी क़ौम की बुनियाद डाली) उस शख्स को बैठने का मजाज नहीं है, जो दीन को पैरों चले कुचलता हो, जो इंसानियत के नाम को दाग़ लगाता हो, चाहे वह मेरा बाप ही क्यों न हो। इस्लाम का खलीफ़ा होना चाहिए, जिस पर इंसानियत को गरूर हो, जो दीनदार हो, हक़परस्त हो, बेदार हो, बेलौस हो, दूसरों के लिये नमूना हो, जो ताकत से नहीं, फ़ौज से नहीं, अपने कमान से, अपने सिफ़ात से दूसरों पर अपना वक़ार जमाए।
[यजीद, जुहाक़, जियाद, शरीक, शम्स, आदि आते हैं।]
यजीद– आप लोग देखिए, यह मेरा सपूट बेटा है, जो अपने बाप को कुत्ते से भी ज्यादा नापाक समझता है। मेरी फूलों की सेज में यहीं एक कांटा है, मेरा नियामतों के थाल में यही एक मक्खी है। आप लोग इसे समझाएं, इसे क़याल करें, इसीलिए मैंने इसे यहां बुलाया है। इसको समझाए कि खलीफ़ा के लिये दीनदारी से ज्यादा मुल्कदारी की जरूरत है। दीन मुल्लाओं के लिये है, बादशाहों के लिये नहीं। दीनदारी और मुल्कदारी दो अलग-अलग चीजें हैं, और एक ही जात में दोनों का मेल मुमकिन नहीं।
मुआ०– अगर हुकूमत करने के लिये दीन और हक़ का खून करना जरूरी है, तो मैं गद्दारी करने को उससे बेहतर समझता हूं। मुल्कदारी की मंशा इंसाफ और सच्चाई की हिफ़ाजत करना है, उसका खून करना नहीं।
यजीद– आप लोग सुनते हैं इसकी बातें। यह मुझे मुल्कदारी का सबक सिखा रहा है। इसके सिर से अभी सौदा नहीं उतरा। इसे फिर वहीं ले जाओ। ऐसे आदमी को आजाद रखना खतरनाक है, चाहे वह तख्त का वारिस ही क्यों न हो। बाज हालतें ऐसी होती हैं, जब इंसान को अपने ही से बचाना जरूरी होता है। दीवाने के न रोके, तो वह अपना गोश्त काट खाता है। (गुलाम मुआबिया को ले जाता है) जियाद, अब तुम अपनी दास्तान कहो, जब तक तुम मुझे इसका यकीन न दिला दोगे कि तुम कूफ़ा से अपनी जान से खौफ़ से नहीं, मेरे फायदे के ख्याल से आए हो, मैं तुम्हें मुआफ़ न करूंगा। ऐसे नाजुक मौके पर जब शहर में बग़ावत का हंगामा गर्म हो सल्तनत के हर एक मुलाजिम– चाहे वह सूबे का आमिल हो या शाही महल का दरबान– यही फर्ज है कि वह अपनी जगह पर आखिर तक खड़ा रहे, चाहे उसका जिस्म तीरों से छलनी क्यों न हो जाये।
जियाद– या खलीफ़ा, मैं अपने फ़र्ज से वाकिफ हूं, पर मैं यह अर्ज करने के लिये हाजिर हुआ हूं कि इस वक्त रियाया पर सख्ती करने से हालत और भी नाजुक हो जायेगी। जब सल्तनत को किसी दूसरे मुद्दई का खौफ हो, तो बादशाह को रियाया के साथ नरमी के बर्ताव करके उसे अपना दोस्त बना लेना मुनासिब है। बिगड़ी हुई रियाया तिनके की तरह है, जो एक चिनगारी से जल उठती है। मेरी अर्ज है कि हमें इस वक्त रियाया का दिल, अपने हाथ से कर लेना चाहिए, उसकी गरदनें एहसानों से दवा देनी चाहिए, ताकि वह सिर न उठा सके।
यजीद– मेरी फौज़ बागियों का सिर कुचलने के लिये काफी है।
रूमी– नाजुक मौके पर अगर कोई चीज सल्तनत को बचा सकती है, तो वह सख्ती है। शायद और किसी हालत में सख्ती की इतनी ज्यादा जरूरत नहीं होती।
जुहाक– बादशाह की रियाया उसकी ज़ौजा की तरह है। ज़ौजा पर हम निसार होते हैं, उसके तलबे सहलाते हैं, उसकी बलाएं लेते हैं, लेकिन जब उसे किसी रकीब से मुखातिब होते देखते हैं, तो उस वक्त उसकी बलाएं नहीं लेते। हमारी तलवार म्यान से निकल आती है, और या तो रकीब की गर्दन पर गिरती है या बीवी की गर्दन पर, या दोनों की गरदनों पर।
रूमी– बेशक, कूफ़ा को कुचल दो, कूफ़ा को कोफ्त कर दो।
यजीद– कूफ़ा को कोफ्त में डाल दो। यहां से जाते-ही-जाते फौजी कानून जारी कर दो। एक हजार आदमियों को तैयार रखो। जो आदमी जरा भी गर्म हो, उसे फौरन कत्ल कर दो। सरदारों को एकबारगी गिरफ्तार कर लो, यहां तक कि कोई शायर शेर न पढ़ने पाए, मसजिदों में खुतबे न होने पाएं, मक्तबों में कोई लड़का न जाने पाए। रईसों को खूब जलील करो। जिल्लत सबसे बड़ी सज़ा है।
[एक कासिद आता है]
शम्स– कहां से आते हो?
कासिद– खलीफ़ा को मेरा सलाम हो, मुझे मक्का के अमीर ने आपकी खिदमत में यह अर्ज करने को भेजा हैं कि हुसैन का चचेरा भाई मुसलिम कूफ़ा की तरफ़ रवाना हो गया है।
यजीद– कोई खत भी लाया है?
कासिद– आंमिल ने खत इसलिये नहीं दिया कि कहीं मुझे दुश्मन गिरफ्तार न कर लें।
यजीद– जियाद, तुम इसी वक्त कूफ़ा चले जाओ। तुम्हें मेरे सबसे तेज घोड़े को ले जाने का अख्तियार है। अगर मेरा काबू होता, तो तुम्हें हवा के घोड़े पर सवार करता।
जियाद– खलीफ़ा पर मेरी जान निसार हो, मुझे इस पर मुहिम पर जाने से मुआफ रखिए। जुहाफ या शम्स को तैनात फरमाएं।
यजीद– इसके मानी यह है कि मैं अपनी एक आंख फोड़ लूं।
रूमी– आखिर तुम क्या चाहते हो?
जियाद– मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि इस मौके पर रियाया के साथ मुलायमियत का बर्ताव किया जाये, सरदार को जागीरें दी जायें, उनके वजीफे बढ़ाए जायें, यतीमों और बेवाओं की परवरिश का इंतजाम किया गया। मैंने कूफ़ावालों की खसलत का गौर से मुताला किया है, वे हयादार नहीं है, दिलेर नहीं है, दीनदार नहीं हैं। चंद खास आदमियों को छोड़कर, सब-के-सब लोभी और खुदगर्ज है। बात पर अड़ना नहीं जानते, शान पर मरना नहीं जानते, थोड़े से फायदे के लिये भाई-भाई का गला काटने पर आमादा हो जाते हैं। कुत्तों को भगाने के लिये लाठी से ज्यादा आसान हड्डी का एक टुकड़ा होता है। सब-के-सब उस पर टूट पड़ते हैं और एक दूसरे की भंभोड़ खाते हैं। खलीफ़ा का खजाना दस-बीस हजार दीनारों के निकल जाने से खाली न हो जायेगा, पर एक कौम हमारे हाथ आ जायेगी। सख्ती कमजोर के हक में वही काम करती है, जो ऐंठन तिनके के साथ। हम ऐंठन के बदले हवा के झोके से तिनकों को बिखेर सकते हैं, फौज से फ़ौज कुचली जा सकती है, एक कौम नहीं।
रूमी– मैं तो हमेशा सख्ती का हामी रहा, और रहूंगा।
शरीक– कामिल हकीम वह हैं, जो मरीज के मिजाज के मुताबिक दवा में तबदीली करता रहे। आपने उस हकीम का किस्सा नहीं सुना, जो हमेशा फ़स्द खोलने की तजवीज किया करता था। एक बार एक दीवाने का फ़स्द खोलने गया। दीवाने ने हकीम की गर्दन इतने जोर से दबाई की हकीम साहब की जूबान बाहर निकल आई। मुल्कदारी के आईने मौंके और जरूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं।
यजीद– जियाद, मैं इस मुआमले में तुम्हें मुख्तार बनाता हूं। मुझे भी कुछ-कुछ आदेश हो रहा है कि कहीं हुसैन के बाद कूफ़ावालों को लुभा न लें। तुम जो मुनासिब समझो, करो। लेकिन याद रखो, अगर कूफ़ा गया, तो तुम्हारी जान उसके साथ जायेगी। यह शर्त मंजूर है।
जियाद– मंजूर है।
यजीद– हुर को ताकीद कर दो कि बहुत नमाज न पढ़े, और मुसलिम को इस तरह तलाश करे, जैसे कोई बखील अपनी खोई मुर्गी को तलाश करता है। तुम्हारी नरमी कमजोरों की नरमी नहीं होनी चाहिए, जिसे खुशामद कहते हैं। उसमें हुकूमत की शान कायम रखनी चाहिए। बस, जाओ।
[जियाद शरीक और कासिद चले जाते हैं।]
जुहाक– नरगिस को बुलाओ, ज़रा ग़म ग़लत करे। (गुलाब के हाथ से शराब का प्याला लेकर) यह मेरी फ़तह का जाम है।
रूमी– मुबारक हो, (दिल में) जियाद तुम्हें डूबा देगा, तब नरमी का मज़ा मालूम होगा।
(नरगिस जुहाक की पीठ पर बैठी हुई आती है।)
यजीद– शाबाश नरगिस, शाबाश, क्या खूब खच्चर है। इसकी कोई तशवीह। (उपमा) देना शम्स।
शम्स– मुर्ग के सिर पर ताज है।
रूमी– लीद पर मक्खी बैठी हुई है।
नरगिस– (गर्दन पर से कूदकर) लाहौल-विला-कूवत।
यजीद– वल्लाह, इस तशबीह से दिल खुश हो गया। नरगिस, बस इसी बात पर एक मस्ताना ग़जल सुनाओ। खुदा तुम्हारे दीवानों को तुम पर निसार करे।
नरगिस गाती है–
शबे-वस्ल वह रूठ जाना किसी का,
वह रूठे को अपने मनाना किसी का।
कोई दिल को देखे न तिरछी नज़र से,
खता कर न जाए निशाना किसी का।
अभी थाम लोगे तुम अपने जिगर को,
सुनो, तो सुनाएं फसाना किसी का।
जरा देख ले चल के, सैयाद, तू भी
कि उठता है अब आब-दाना किसी का।
वह कुछ सोचकर हो लिए उसके पीछे,
जनाजा हुआ जब रवाना किसी का।
बुरा वक्त जिस वक्त आता है ‘बिस्मिल’,
नहीं साथ देता जमाना किसी का।
[परदा गिरता है]