(संध्या का समय। सूर्यास्त हो चुका है। कूफ़ा का शहर– कोई सारवान ऊँट का गल्ला लिए दाखिल हो रहे है।)
पहला– यार गलियों से चलना, नहीं तो किसी सिपाही की नज़र पड़ जाये, तो महीनों बेगार झेलनी पड़े।
दूसरा– हाँ-हाँ, वे बला के मूजी है। कुछ लादने को नहीं होता, तो यों ही बैठ जाते हैं, और दस-बीस कोस का चक्कर लौट आते हैं। ऐसा अंधेर पहले कभी न होता था। मजूरी तो भाड़ में गई, ऊपर से लात और गालियां खाओ।
तीसरा– यह सब महज पैसे आँटने के हथकंडे हैं। न-जाने कहां के कुत्ते आ के सिपाहियों में दाखिल हो गए। छोटे-बड़े एक ही रंग में रंगे हुए है।
चौथा– अमीर के पास फरियाद लेकर जाओ, तो उल्टे और बौछार पड़ती है। अजीब मुसीबत का सामना है। हज़रत हुसैन जब तक न आएंगे, हमारे सिर से ये बला न टलेगी।
[मुसलिम पीछे से आते हैं।]
मुस०– क्यों यारों, इस शहर में कोई खुदा का बंदा ऐसा है, जिसके यहां मुसाफिरों के ठहरने को जगह मिल जाये?
पहला– यहां के रईसों की कुछ न पूछो। कहने को दो-चार बड़े आदमी हैं, मगर किसी के यहां पूरी मजूरी नहीं मिलती। हां, जरा गालियां कम देते हैं।
मुस०– सारे शहर में एक भी सच्चा मुसलमान नहीं है?
दूसरा– जनाब, यहां कोई शहर के काजी तो हैं नहीं, हां, मुख्तार की निस्बत सुनते हैं कि बड़े दीनदार आदमी है। हैसियत तो ऐसी नहीं, मगर खुदा ने हिम्मत दी है। कोई गरीब चला जाये, तो भूखा न लौटेगा।
तीसरा– सुना है, उनकी जागीर जब्त कर ली गई है।
मुस०– यह क्यों?
तीसरा– इसीलिये कि उन्होंने अब तक याजीद की बैयत नहीं ली।
मुस०– तुममें से मुझे कोई उनके घर तक पहुंचा सकता है?
चौथा– जनाब, यह ऊँटनियों के दुहने का वक्त है; हमें फुरसत नहीं, सीधे चले जाइए, आगे लाल मसजिद मिलेगी, वहीं उनका मकान है।
मुस०– खुद तुम पर रहमत करे। अब चला जाऊंगा।
[परदा बदलता है। मसजिद के क़रीब मुख्तार का मकान]
मुस०– (एक बुड्ढे से) यही मुख्तार का मकान हैं न?
बुड्डा– जी हां, ग़रीब ही का नाम मुख्तार है। आइए, कहां से तशरीफ़ ला रहे हैं?
मुस०– मक्के शरीफ़ से।
मुख०– (मुसलिम के गले से लिपटकर) मुआफ कीजिएगा। बुढ़ापे की बीनाई शराबी की तोबा की तरह कमजोर होता है। आज बड़ा मुबारक दिन है। बारे हज़रत ने हमारी फ़रियाद सुन ली। खैरियत से हैं न?
मुस०– (घोड़े से उतरकर) जी हां, सब खुदा का फ़जल है।
मुख०– खुदा जानता है, आपको देखकर आँखें शाद हो गई। हज़रत का इरादा कब तक आने का है?
मुस०– (खत निकालकर मुख्तार को देते हैं) इसमें उन्होंने सब कुछ मुफ़स्सल लिख दिया है।
मुस०– (खत को छाती और आंखों से लगाकर पढ़ता है) खुशनसीब कि हज़रत के कदमों से यह शहर पाक होगा। मेरी बैयत हाजिर है, और मेरे दोस्तों की तरफ से भी कोऊ अंदेशा नहीं।
[गुलाम को बुलाता है।]
गुलाम– जनाब ने क्यों याद फरमाया?
मुख०– देखो, इसी वक्त हारिस, हज्जाम सुलेमान, शिमर, क़ीस, शैस और हानी के मकान पर जाओ और मेरा यह रुक्का दिखाकर जवाब लाओ।
गुलाम– रुक्का लेकर चला जाता है।
[गुलाम रुक्का लेकर चला जाता है।]
पहले मुझे ऐसा मालूम होता था कि हज़रद का कोई क़ासिद आएगा, तो मैं शायद दीवान हो जाऊंगा, पर इस वक्त आपको सामने देखकर भी खामोश बैठा हुआ हूं। किसी शायर ने सच कहा है– ‘जो मजा इन्तजार में देखा, वह नहीं वस्लेयार में देखा।’ जन्नत का खयाल कितना दिलफ़रेब है, पर शायद उसमें दाख़िल होने पर इतनी खुशी न रहे। आइए, नमाज़ अदा कर लें। इसके बाद कुछ आराम फ़रमा लीजिए। फिर दम मारने की फुरसत न मिलेगी।
दोनों मकान के अंदर चले जाते हैं। परदा बदलता है।
(मुसलिम और मुख्तार बैठे हुए हैं।)
मुस०– कितने आदमी बैयत लेने के लिये तैयार हैं?
मुख०– देखिए, सब अभी आ जाते हैं। अगर यजीद की जानिब से जुल्म और सख्ती इसी तरह होती रही, तो हमारे मददगारों की तादाद दिन-दिन बढ़ती जायेगी। लेकिन कहीं उसने दिलजोई शुरू कर दी, तो हमें इतनी आसानी से कामयाबी न होगी।
[सुलेमान का प्रवेश]
सुले०– अस्सामअलेक हज़रत मुसलिम, आपको देखकर आंखें रोशन हो गई; मेरे कबीले के सौ आदमी बैयत लेने की हाजिर हैं और सब-के-सब अपनी बात पर मिटने वाले आदमी हैं।
मुस०– आपको खुदा नजात दे। इस आदमियों से कहिए, कल जामा मसजिद में जमा हों। आपका खत पढ़कर भैया को बहुत रंज हुआ। उन्होंने तो फैसला लिया था कि रसूल के मजार पर बैठे हुए जिंदगी गुजार दें, पर आपके आखिरी खत ने उन्हें बेक़रार कर दिया। सायल की हिमायत से वह कभी नहीं मुंह मोड़ सकते।
[शैस, कीस, शिमर, साद और हज्जाज का प्रवेश]
शैस– अस्सामअलेक हज़रत, आपको देखकर जिगर ठंडा हो गया।
कीस– अस्सलामअलेक आपके क़दमों से हमारे वीरान घर आबाद हो गए।
हल्लाज– अस्सामअलेक, आपको देखकर हमारे मुर्दा तन में जान आ गई।
मुस०– (सबसे गले मिलकर) हज़रत इमाम ने मुझे यह खत देकर आपकी खिदमत में भेजा है।
[शिमर खत लेकर ऊंची आवाज से पढ़ता है, और सब लोग सिर झुकाए सुनते हैं।]
शैस– हमारे ज़हे नसीब, मैं तो अभी दस्तख्वान पर था। खबर पाते ही आपकी ज़ियारत करने दौड़ा।
हज्जाज– मैं तो अभी-अभी बसरे से लौटा हूं, दम भी न मारने पाया था कि आपके तशरीफ़ लाने की खबर पाई। मेरे कबीले के बहुत से आदमी बैयत लेने को बाहर खड़े हैं।
मुस०– उन्हें कल जामा मसजिद में बुलाइए।
शिमर– वह कौन-सा दिन होगा कि मलऊन यजीद के जुल्म से नज़ात होगी।
शैस– हज़रत हुसैन ने हम गरीबों की आवाज़ सुन ली। अब हमारे बुरे दिन न रहेंगे।
कीस– हमारी किस्मत के सितारे अब रोशन होंगे। मेरी दिली तमन्ना है कि जियाद का सिर अपने पैरों के नीचे देखूं।
शिमर– मैंने तो मिन्नत मानी है कि मलऊन जियाद के मुंह में कालिख लगाकर सारे शहर में फिराऊं।
कीस– मैं तो यजीद की नाक काटकर उसकी हथेली पर रख देना चाहता हूं।
[हानी, कसीर और अशअस का प्रवेश।]
हानी– या बिरादर हुसैन, आप पर, खुदा की रहमत हो।
कीस– अल्लाहताला आप पर साया रखे। हम सब आपकी राह देख रहे थे।
मुस०– भाई साहब ने मुझे यह खत देकर आपकी तसकीन के लिए भेजा है।
[हानी ख़त लेकर आंखों से लगाता है, और आंखों में ऐनक लगाकर पढ़ता है।]
शिमर– अब जियाद की खबर लूंगा।
कीस– मैं तो यजीद की आंखों में मिर्च डालकर उसका तड़पना देखूंगा।
मुस०– आप लोग भी कल अपने कबीलेवालों को जामा मसजिद में बुलाएं। कल तीन-चार हज़ार आदमी आ जाऐंगे?
शैस– खुदा झूठ न बुलवाए, तो इसके दसगुने हो जायेंगे।
हानी– नबी की औलाद की शान और ही है। वह हुस्न, वह इख़लाक, वह शराफत कहीं नज़र ही नहीं आती।
कीस– यजीद को देखो, खासा हब्शी मालूम होता है।
हज्जाम– जियाद तो खासा सारवान है।
मुस०– तो कल शाम को जामा मसजिद में आने की ठहरी।
शिमर– तो हम लोग चलकर अपने कबीलों को तैयार करें, ताकि जो लोग इस वक्त यहां न हों, वे भी आ जायें।
[सब लोग चले जाते हैं]
मुस०– (दिल में) ये सब कूफ़ा के नामी सरदार हैं। हमारी फतह जरूर होगी और एक बार तकदीर को जक उठानी पड़ेगी। बीस हजार आदमियों की बैयत मिल गई, तो फिर हुसैन को खिलाफ़त की मसनद पर बैठने से कौन रोक सकता है, जरूर बैठेंगे।