[समय ८ बजे रात। हुसैन एक कुर्सी पर मैदान में बैठे हुए हैं। उनके दोस्त और अजीज सब फ़र्श पर बैठे हुए हैं। शमा जल रही है।]
हुसैन– शुक्र है, खुदाए-पाक का, जिसने हमें ईमान की रोशनी अता की, ताकि हम नेक को क़बूल करें, और बद से बचें। मेरे सामने इस वक्त मेरे बेटे और भतीजे, भाई और भांजे, दोस्त और रफी़क सब जमा हैं। मैं सबके लिए खुदा से दुआ करता हूँ। मुझे इसका फख्र है कि उसने मुझे ऐसे सआदतमंद अजीज और ऐसे जाँ निसार दोस्त अता किए। अपनी दोस्ती का हक़ पूरी तरह अदा कर दिया, आपने साबित कर दिया कि हक़ के सामने आप जान और माल की कोई हक़ीकत नहीं समझते। इस्लाम की तारीख में आपका नाम हमेशा रोशन रहेगा। मेरा दिल खयाल से पाश-पाश हुआ जाता है कि कल मेरे बायस वे लोग, जिन्हें जिंदा हिम्मत चाहिए, जिनका हक है जिंदा रहना, जिनको अभी जिंदगी में बहुत करना बाकी है, शहीद हो जायेंगे। मुझे सच्ची खुशी होगी, अगर तुम लोग मेरे दिल का बोझ हल्का कर दोगे। मैं बड़ी खुशी के हरएक को इजाजत देता हूं कि उसका जहां जी चाहे, चला जाये। मेरा किसी पर कोई हक़ नहीं है। नहीं मैं तुमसे इल्तमास करता हूं इसे क़बूल करो। तुमसे किसी को दुश्मनी नहीं हुई है, जहां जाओगे, लोग तुम्हारी इज्जत करेंगे। तुम जिंदा शहीद हो जाओगे, जो मरकर शहादत का दर्जा पाने से इज्जत की बात नहीं। दुश्मन को सिर्फ मेरे खून की प्यास है, मैं ही उसके रास्ते का पत्थर हूं। अगर हक़ और इंसाफ को सिर्फ मेरे खून से आसूदगी हो जाये, तो उसके लिए और खून क्यों बहाया जाये? साद से एक शव की मुहलत मांगने में यही मेरा खयाल था। यह देखो में यह शमा ठंडी किए देता हूं, जिसमें किसी को हिजाब न हो।
[सब लोग रोने लगते हैं, और कोई अपनी जगह से नहीं हिलता।]
अब्बास– या हजरत, अगर आप हमें मारकर भगाएं, तो भी हम नहीं जा सकते। खुदा वह दिन न दिखाए कि हम आपसे जुदा हों। आपकी सफलता के साए में पल-भर अब हम सोच ही नहीं सकते कि आपके बगैर हम क्या करेंगे, कैसे रहेंगे।
अली अकबर– अब्बाजन, यह आप क्या फरमाते हैं? हम आपके कदमों पर निसार होने के लिये आए हैं। आपको यहां तनहा छोड़कर जाना तो क्या, महज उसके खयाल से रूह को नफ़रत होती है।
हबीब– खुदा की कसम, आपको उस वक्त तक नहीं छोड़ सकते, जब तक दुश्मनों के सीने में अपनी तेज बर्छिया न चुभा लें। अगर मेरे पास तलवार भी न होती, तो मैं आपकी हिमायत पत्थरों से करता।
अब्दुल्लाह कलवी– अगर मुझे इसका यकीन हो जाये कि मैं आपकी हिमायत में जिंदा जलाया जाऊंगा और फिर जिंदा होकर जलाया जाऊंगा, और यह अमल सत्तर बार होता रहेगा, तो भी मैं आपसे जुदा नहीं हो सकता। आपके कदमों पर निसार होने से जो रुतबा हासिल होगा, वह ऐसी-ऐसी बेशुमार जिंदगियों से भी नहीं हासिल हो सकता।
जहीर– हज़रत आपने जबाने-मुबारक से ये बातें निकालकर मेरी जितनी दिलशिकनी की है, उसका काफी इजहार नहीं कर सकता। अगर हमारे दिल दुनिया की हविस से मगलूब भी हो जायें, तो हमारे किसी दूसरी तरफ जाने से गुरेज करेंगे। क्या आप हमें दुनिया में रूहस्याह और बेगै़रत बनाकर जिंदा रखना चाहते हैं?
अली असगर– आप तो मुझे शरीक किए बगै़र कभी कोई चीज न खाते थे, क्या जन्नत के मजे अकेले उठाइएगा? शमा जलवा दीजिए, हमें इस तरीकी में आप नज़र नहीं आते।
हुसैन– आह! काश रसूले-पाक आज जिंदा होते और देखते कि उनकी औलाद उनकी उम्मत हक़ पर कितने शौक से फिदा होती है। खुदा से मेरी यही इल्तजा है कि इस्लाम में हक पर शहीद होने वालों की कभी-कमी न रहे। असगर, बेटा जाओ, तुम्हारे बाप की जान तुम पर फिदा हो, हम-तुम-साथ जन्नत के मेवे खायेंगे। दोस्तों, आओ, नमाज पढ लें। शायद यह हमारी आखिरी नमाज हो।
[सब लोग नमाज पढ़ने लगते हैं।]
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D