(समय– आधी रात। हुसैन और अब्बास मसजिद के सहन में बैठे हुए हैं।)
अब्बास– बड़ी ख़ैरियत हुई, वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था।
हुसैन– तुम लोगों की जतन बड़े मौक़े पर आई। मुझे गुमान न था कि ये सब मेरे साथ इतनी दगा करेंगे। मगर यह जो कुछ हुआ, आगे चलकर इससे भी ज्यादा होगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि हमें अब चैन से बैठना नसीब न होगा। मेरा भी वही हाल होनेवाला है, जो भैया इमाम हसन का हुआ।
अब्बास– खुदा न करे, खुदा न करे।
हुसैन– अब मदीने में हम लोगों का रहना कांटे पर पांव रखना है। भैया; शायद नबियों की औलाद शहीद होने ही के लिये पैदा होती है। शायद नबियों को भी होनहार की खबर नहीं होती, नहीं तो क्या नाना की मसनद पर वे लोग बैठते, जो इस्लाम के दुश्मन हैं, और जिन्होंने सिर्फ अपनी ग़रज पूरी करने के लिये इस्लाम का स्वांग भरा है। मैं रसूल ही से पूछता हूं कि वह मुझे क्या हुक्म देते हैं? मदीने ही में रहूं या कहीं और चला जाऊँ? (हज़रत मुहम्मद की कब्र पर आकर) ऐ खुदा, यह तेरे रसूल मुहम्मद की खाक है, और मैं उनकी बेटी का बेटा हूं। तू मेरे दिल का हाल जानता है। मैंने तेरी और तेरे रसूल की मर्जी पर हमेशा चलने की कोशिश की है। मुझ पर रहम कर और उस पाक नबी के नाते, जो इस कब्र में सोया हुआ है, मुझे हिदायत कर कि इस वक्त मैं क्या करूं?
(रोते हैं, और क़ब्र पर सिर रखकर बैठ जाते हैं। एक क्षण में चौंककर उठ बैठते हैं।)
अब्बास– भैया, अब यहां से चलो। घर के लोग घबरा रहे होंगे।
हुसैन– नहीं अब्बास, अब मैं लौटकर घर न जाऊंगा। अभी मैंने ख्वाब देखा कि नाना आए हैं, और मुझे छाती से लगाकर कहते है– ‘‘बहुत थोड़े दिनों में तू ऐसे आदमियों के हाथों शहीद होगा, जो अपने को मुसलमान कहते होंगे, और मुसलमान न होंगे। मैंने तेरी शहादत के लिये कर्बला का मैदान चुना है, उस वक्त तू प्यासा होगा, पर तेरे दुश्मन तुझे एक बूंद पानी न देंगे। तेरे लिये यहां बहुत ऊंचा रुतबा रखा गया है, पर वह रुतबा शहादत के बग़ैर हासिल नहीं हो सकता।’’ यह कहकर नाना गायब हो गए।
अब्बास– (रोकर) भैया, हाय भैया, यह ख्वाब या पेशीनगोई?
(मुहम्मद हंफ़िया का प्रवेश)
मुहम्मद– हुसैन, तुमने क्या फ़ैसला किया?
हुसैन– खुदा की मर्जी है कि मैं कत्ल किया जाऊं।
मुहम्मद– खुदा की मरजी खुदा ही जानता है। मेरी सलाह तो यह है कि तुम किसी दूसरे शहर चले जाओ, और वहां से अपने कासिदों को उस जवार में भेजो। अगर लोग तुम्हारी बैयत मंजूर कर लें, तो खुदा का शुक्र करना, वरना यों भी तुम्हारी आबरू क़ायम रहेगी। मुझे खौफ़ यही है कि कहीं तुम ऐसी जगह न जा फंसो, जहां कुछ लोग तुम्हारे दोस्त हों, और कुछ तुम्हारे दुश्मन। कोई चोट बगली घूंसों की तरह नहीं होती, कोई सांप इतना कातिल नहीं होता, जितना आस्तीन का, कोई कान इतना तेज नहीं होता, जितना दीवार का, और कोई दुश्मन इतना ख़ौफनाक नहीं होता, जितनी दग़ा। इससे हमेशा बचते रहना।
हुसैन– आप मुझे कहां जाने की सलाह देते हैं?
मुहम्मद– मेरे ख़याल में मक्का से बेहतर कोई जगह नहीं है। अगर क़ौम ने तुम्हारी बैयत मंजूर की, तो पूछना ही क्या? वर्ना पहाड़ियों की घाटियां तुम्हारे लिये क़िलों का काम देंगी, और थोडे-से मददगारों के साथ तुम आजादी से जिंदगी बसर करोगे। खुदा चाहेगा, तो लोग बहुत जल्द यजीद के बेजार होकर तुम्हारी पनाह में आएंगे।
हुसैन– अजीजों को यहां छोड़ दूं?
मुहम्मद– हरगिज नहीं। सबको अपने साथ ले जाओ।
हुसैन– यहां की हालत से मुझे जल्द-जल्द इत्तिला देते रहिएगा।
मुहम्मद– इसका इतमीनान रखो।
(मुहम्म्द हुसैन से गले मिलकर जाते हैं।)
अब्बास– भैया, अब तो घर चलिए, क्या सारी रात जागते रहिएगा?
हुसैन– अब्बास, मैं पहले ही कह चुका कि लौटकर घर न जाऊंगा।
अब्बास– अगर आपकी इजाज़त हो, तो मैं भी कुछ अर्ज करूं: आप मुझे अपना सच्चा दोस्त समझते हैं या नहीं?
हुसैन– खुदा पाक की क़सम, तुमसे ज्यादा सच्चा दोस्त दुनिया में नहीं है।
अब्बास– क्यों न आप इस वक्त यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए? खुदा कारसाज है, मुमकिन है, थोड़े दिनों में यजीद खुद ही मर जाये, तो आपको खिलाफत आप-ही-आप मिल जायेगी। जिस तरह आपने मुआबिया के जमाने में सब्र किया, उसी तरह यजीद को भी सब्र के साथ काट दीजिए। यह भी मुमकिन है कि थोड़े ही दिनों में यजीद से तंग लोग बगावत कर बैठे, और आपके लिये मौका निकल आए। सब्र सारी मुश्किलों को आसन कर देता है।
हुसैन– अब्बास, यह क्या कहते हो? अगर मैं खौफ़ से यजीद को बैयत क़बूल कर लूं, तो इस्लाम का मुझसे बड़ा दुश्मन और कोई न होगा। मैं रसूल को, वालिद को, भैया हसन को क्या मुंह दिखाऊंगी! अब्बाजान ने शहीद होना कबूल किया, पर मुआबिया की बैयत न मंजूर की। भैया ने भी मुआबिया की बैयत को हराम समझा, तो मैं क्यों खानदान में दाग़ लगाऊं? इज्जत की मौत बेइज्जती की जिंदगी से कहीं अच्छी है।
अब्बास– (विस्मित होकर) खुदा की कसम, यह हुसैन की आवाज नहीं रसूल की आवाज़ है, और ये बातें हुसैन की नहीं, अली की हैं। भैया! आपको खुदा ने अक्ल दी है, मैं तो आपका खादिम हूं, मेरी बातें आपको नागवार हुई हों, तो माफ़ करना।
हुसैन– (अब्बास को छाती से लगाकर) अब्बास, मेरा खुदा मुझसे नाराज हो जाये, अगर मैं तुमसे जरा भी मलाल रखूं। तुमने मुझे जो सलाह दी, वह मेरी भलाई के लिये दी। इसमें मुझे जरा भी शक नहीं। मगर तुम इस मुग़ालते में हो कि यजीद के दिल की आग मेरे बैयत ही से ठंडी हो जायेगी, हालांकि यजीद ने मुझे कत्ल करने का यह हीला निकाला है। अगर वह जानता कि मैं बैयत ले लूंगा, तो वह कोई और तदबीर सोचता।
अब्बास– अगर उसकी यह नीयत है, तो कलाम पाक की कसम, मैं आपके पसीने की जगह अपना खून बहा दूंगा, और आपसे आगे बढ़कर इतनी तलवारें चलाऊंगा कि मेरे दोनों हाथ कटकर गिर जायें।
(जैनबू, शहरबानू और घर के अन्य लोग आते हैं।)
जैनब– अब्बास, बातें न करो। (हुसैन से) भैया, मैं आपके पैरों पड़ती हूं। आप यह इरादा तर्क कर दीजिए, और मदीने में रसूल की कब्र से लगे हुए जिंदगी बसर कीजिए, और अपनी गर्दन पर इस्लाम की तबाही का इल्जाम न लीजिए।
हुसैन– जैनब ऐसी बातों पर तुफ़ है। जब तक ज़मीन और आसमान कायम है, मैं यजीद की बैयत नहीं मंजूर कर सकता। क्या तुम समझती हो कि मैं गलती पर हूं?
जैनब– नहीं भैया, आप ग़लती पर नहीं है। अल्लाहताला अपने रसूल के बेटे को गलत रास्ते पर नहीं ले जा सकता, अगर आप जानते हैं कि ज़माने का रंग बदला हुआ है। ऐसा न हो, लोग आपके खिलाफ़ उठ खड़े हों।
हुसैन– बहन, इंसान सारी दुनिया के ताने बर्दाश्त कर सकता है, पर अपने ईमान का नहीं। अगर तुम्हारा यह ख़याल है कि मेरी बैयत न लेने से इस्लाम में तफ़र्खा पड़ जायेगा, तो यह समझ लो कि इत्तिफ़ाक कितनी ही अच्छी चीज़ हो, लेकिन रास्ती उससे कहीं अच्छी है। रास्ती को छोड़कर मेल को कायम रखना वैसा ही है, जैसा जान निकल जाने के बाद जिस्म क़ायम रखना। रास्ती क़ौम की जान है, उसे छोड़कर कोई क़ौम बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकती। इस बारे में मैं अपनी राय कायम कर चुका, अब तुम लोग मुझे रुखसत करो। जिस तरह मेरी बैयत से इस्लाम का बक़ार मिल जायेगा, उसी तरह मेरी शहादत से उसका बक़ार कायम रहेगा। मैं इस्लाम की हुरमत पर निसार हो जाऊंगा।
शहरबानू– (रोकर) क्या आप हमें अपने कदमों से जुदा करना चाहते हैं?
अली अकबर– अब्बाजान, अगर शहीद ही होना है, तो हम भी वह दर्जा क्यों न हासिल करें?
मुस्लिम– या अमीर, हम आपके क़दमों पर निसार होना ही अपनी जिंदगी का हासिल समझते हैं। आप न ले जायेंगे, तो हम जबरन आपके साथ चलेंगे।
अली असगर– अब्बा, मैं आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ता था। आप यहां छोड़ देंगे, तो मैं नमाज कैसे पढ़ूंगा?
जैनब– भैया, क्या कोई उम्मीद नहीं? क्या मदीने में रसूल के बेटे पर हाथ रखनेवाला, रसूल की बेटियों की हुरमत पर जान देनेवाला, हक़ पर सिर काटने वाला कोई नहीं है? इसी शहर से वह नूर फैला, जिससे सारा जहान रोशन हो गया। क्या वह हक़ की रोशनी इतनी जल्द गायब हो गई? आप यहीं से हिजाज़ और यमन की तरफ़ कासिदों को क्यों नहीं रवाऩा फ़रमाते?
हुसैन– अफ़सोस है जैनब, खुदा को कुछ और ही मंजूर है। मदीने में हमारे लिये अब अमन नहीं है। यहां अगर हम आजादी से खड़े हैं, तो यह वलीद की शराफत है; वरना यजीद की फ़ौजों में हमको घेर लिया होता। आज मुझे सुबह होते-होते यहां से निकल जाना चाहिए। यजीद को मेरे अजीजों से दुश्मनी नहीं, उसे खौफ़ सिर्फ़ मेरा है। तुम लोग मुझे यहां से रुखसत करो। मुझे यकीन है कि यजीद तुम लोग को तंग न करेगा। उसके दिल में चाहे न हो, मगर मुसलमान के दिल में ग़ैरत बाकी है। वह रसूल की बहू-बेटियों की आबरू लुटते देखेंगे, तो उनका खून जरूर गर्म हो जायेगा।
जैनब– भैया, यह हरगिज़ न होगा। हम भी आपके साथ चलेंगी। अगर इस्लाम का बेटा अपनी दिलेरी से इस्लाम का वकार कायम रखेगा, तो हम अपने सब्र से, जब्त से और बरदाश्त से उसकी शान निभाएंगे। हम पर जिहाद हराम है, लेकिन हम मौका पड़ने पर मरना जानती हैं। रसूल पाक की कसम, आप हमारी आँखों में आँसू न देखेंगे, हमारे लबों से फ़रियाद न सुनेंगे, और हमारे दिलों से आह न निकलेगी। आप हक़ पर जान देकर इस्लाम की आबरू रखना चाहते हैं, तो हम भी एक बेदीन और बदकार की हिमायत में रहकर इस्लाम के नाम पर दाग़ लगाना नहीं चाहती।
(सिपाहियों का एक दस्ता सड़क पर आता दिखाई पड़ता है)
हुसैन– अब्बास, यजीद के आदमी हैं। वलीद ने भी दगा दी। आह! हमारे हाथों में तलवार भी नहीं! ऐ खुदा मदद!
अब्बास– कलाम पाक की क़सम, ये मरदूद आपके करीब न पाएंगे।
जैनब– भैया, तुम सामने से हट जाओ।
हुसैन– जैनब घबराओ मत, आज मैं दिखा दूंगा कि अली का बेटा कितनी दिलेरी से जान देता है।
(अब्बास बाहर निकल कर फ़ौज के सरदार से)
ऐ सरदार, किसकी बदनसीबी है कि तू उसके नज़दीक जा रहा है?
सरदार– या हज़रत, हमें शहर में गश्त लगाने का हुक्म हुआ है कि कहीं बाग़ी तो जमा नहीं हो रहे हैं।
हुसैन– अब देर करने का मौका नहीं है। चलूं, अम्माजान से रुखसत हो लूं। (फ़ातिमा की क़ब्र पर जाकर) ऐ मादरेजान, तेरा बदनसीब बेटा– जिसे तूने गोद में प्यार से खिलाया था, जिसे तूने सीने से दूध पिलाया था– आज तुझसे रुखसत हो रहा है, और फिर शायद उसे तेरी जियारत नसीब न हो (रोते हैं।)
(मदीने के सब नगरवासियों का प्रवेश)
सब०– ऐ अमीर, आप हमें कदमों से क्यों जुदा करते है? हम आपका दामन न छोड़ेंगे। आपके कदमों से लगे हुए गुरबत की खाक छानना इससे कहीं अच्छा है कि एक बदकार और जालिम खलीफ़ा सख्तियां झेले। आप नबी के खानदान के आफ़ताब हैं। उसकी रोशनी से दूर होकर हम अंधेरे में खौफ़नाक जानवरों से क्योंकर अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें हक़ और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें एक और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी नसीहतों का अमृत पिलाएगा? हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए।
(रोते है।)
हुसैन– मेरे प्यारे दोस्तों, मैं यहां से खुद नहीं जा रहा हूं। मुझे तकदीर लिए जा रही है। मुझे वह दर्दनाक नजारा देखने की ताब नहीं है कि मदीने की गलियां इस्लाम और रसूल के दोस्तों के खून से रंगी जायें। मैं प्यारे मदीने को उसे उस तबाही और खून से बचाना चाहता हूं। तुम्हें मेरी यही आखिरी सलाह है कि इस्लाम की हुरमत क़ायम रखना, माल और जर के लिये अपनी कौम और अपनी मिल्लत से बेवफाई न करना, खुदा के नज़दीक इससे बड़ा गुनाह नहीं है। शायद हमें फिर मदीने के दर्शन न हों, शायद हम फिर सूरतों को देख न सकें। हां, शायद फिर हमें बुजुगों की सूरत देखनी नसीब न हो, जो हमारे नाना के शरीक और हमदर्द रहें, जिनमें से कितनों ही ने मुझे गोद में खेलाया है। भाइयों, मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं है कि उस रंज और ग़म को जाहिर कर सकूं, जो मेरे सीने में दरिया की लहरों की तरह उठ रहा है। मदीने की तरह उठा रहा है। मदीने की खाक से जुदा होते हुए जिगर के टुकड़े हुए जाते हैं। आपसे जुदा होते आँखों में अँधेरा छा जाता है, मगर मजबूर हूं। खुदा की और रसूल की यह मंशा है कि इस्लाम का पौधा मेरे खून से सींचा जाये, रसूल की खेती रसूल की औलाद के खून से हरी हो, और मुझे उनके सामने सिर झुकाने के सिवा और कोई चारा नहीं।
नागरिक– या अमीर, हमें अपने क़दमों से जुदा न कीजिए। हाय अमीर, हाय रसूल के बेटे, हम किसका मुंह देखकर जिएंगे। हम क्योंकर सब्र करें, अगर आज न रोएं तो फिर किस दिन के लिये आंसुओं को उठा रखे? आज से ज्यादा मातम का और कौन दिन होगा?
हुसैन– (मुहम्मद की क़ब्र पर जाकर) ऐ रसूल-खुदा, रुखसत। आपका नवासा मुसीबत में गिरफ्तार है। उसका बेड़ा पार कीजिए।
सब लोग छोड़के पहले ही सिधारे;
मिलता नहीं आराम नवासे को तुम्हारे।
खादिम को कोई अमन की अब जा नहीं मिलती;
राहत कोई साहत मेरे मौला, नहीं मिलती।
दुख कौन-सा और कौन-सी ईज़ा नहीं मिलती;
है आप जहां, राय वह मुझको नहीं मिलती;
दुनिया में मुझे कोई नहीं और ठिकाना;
आज आखिरी रुखसत को गुलाम आया है नाना!
बच जाऊं जो, पास अपने बुला लीजिए नाना;
तुरबत में नवासे को छिपा लीजिए नाना!
(भाई की क़ब्र पर जाकर)
सुन लीजिए शब्बीर की रुखसत है बिरादर,
हज़रत को तो पहलू हुआ अम्मा का मयस्सर।
कब्र भी जुदा होंगी यहां अब तो हमारी;
दखें हमें ले जाये कहां खाक हमारी!
मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ एक चिउंटी की भी जान खतरे में पड़े। अपने अजीजों से, अपनी मस्तूरात से, अपने दोस्तों से यही सवाल है कि मेरे लिये जरा भी गम न करो, मैं वहीं जाता हूं, जहां खुदा की मर्जी लिए जाती है।
अब्बास– या हज़रत, ख़ुदा के लिये हमारे ऊपर यह सितम न कीजिए। हम जीते-जी आपसे जुदा न होंगे।
जैनब– भैया, मेरी जान तुम पर फिदा हो। अगर औरतों को तुमने छोड़ दिया, तो लौटकर उन्हें जीता न पाओगे। तुम्हारी तीनों फूल-सी बेटियां ग़म से मुरझाई जा रही है। शहरबानू का हाल देख ही रहे हो। तुम्हारे बगैर मदीना सूना हो जायेगा, और घर की दीवारें हमें फाड़ खायेंगी। हमारे ऊपर इस बदनामी का दाग़ न लगाओ कि मुसीबत में रसूल की बेटियों ने अपने सरदार से बेवफ़ाई की। तुम्हारे साथ के फ़ाके यहां के मीठे लुकमों से ज्यादा मीठे मालूम होंगे। जिस्म को तकलीफ़ होगी, पर दिल को तो इतमीनान रहेगा।
अली अक०– अब्बा, मैं इस मुसीबत का सारा मजा आपको अकेले न उठाने दूंगा। इसमें मेरा भी हिस्सा है। कौन हमारे नेत्रों की चमक देखेगा? किसे हम अपनी दिलेरी के ज़ौहर दिखाएंगे? नहीं, हम यह ग़म की दावत अकेले न खाने देंगे।
अली अस०– अब्बा, मुझे अपने आगे घोड़ों पर बिठाकर रास मेरे हाथों में दे दीजियेगा। मैं उसे ऐसा दौड़ाऊँगा कि हवा भी हमारी गर्द को न पहुंचेगी।
हुसैन– हाय, अगर मेरी तक़दीर की मंशा है कि मेरे जिगर के टुकड़े मेरी आंखों के सामने तड़पें, तो मेरा क्या बस है। अगर खुदा को यही मंजूर है कि मेरा बाग मेरी नज़रों के सामने उजाड़ा जाये, तो मेरा क्या चारा है। खुदा गवाह रहना कि इस्लाम की इज्जत पर रसूल की औलाद कितनी बेदरदी से कुरबान की जा रही है!