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पाँचवाँ दृश्य

12 फरवरी 2022

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(समय– आधी रात। हुसैन और अब्बास मसजिद के सहन में बैठे हुए हैं।)
अब्बास– बड़ी ख़ैरियत हुई, वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था।
हुसैन– तुम लोगों की जतन बड़े मौक़े पर आई। मुझे गुमान न था कि ये सब मेरे साथ इतनी दगा करेंगे। मगर यह जो कुछ हुआ, आगे चलकर इससे भी ज्यादा होगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि हमें अब चैन से बैठना नसीब न होगा। मेरा भी वही हाल होनेवाला है, जो भैया इमाम हसन का हुआ।
अब्बास– खुदा न करे, खुदा न करे।
हुसैन– अब मदीने में हम लोगों का रहना कांटे पर पांव रखना है। भैया; शायद नबियों की औलाद शहीद होने ही के लिये पैदा होती है। शायद नबियों को भी होनहार की खबर नहीं होती, नहीं तो क्या नाना की मसनद पर वे लोग बैठते, जो इस्लाम के दुश्मन हैं, और जिन्होंने सिर्फ अपनी ग़रज पूरी करने के लिये इस्लाम का स्वांग भरा है। मैं रसूल ही से पूछता हूं कि वह मुझे क्या हुक्म देते हैं? मदीने ही में रहूं या कहीं और चला जाऊँ? (हज़रत मुहम्मद की कब्र पर आकर) ऐ खुदा, यह तेरे रसूल मुहम्मद की खाक है, और मैं उनकी बेटी का बेटा हूं। तू मेरे दिल का हाल जानता है। मैंने तेरी और तेरे रसूल की मर्जी पर हमेशा चलने की कोशिश की है। मुझ पर रहम कर और उस पाक नबी के नाते, जो इस कब्र में सोया हुआ है, मुझे हिदायत कर कि इस वक्त मैं क्या करूं?
(रोते हैं, और क़ब्र पर सिर रखकर बैठ जाते हैं। एक क्षण में चौंककर उठ बैठते हैं।)
अब्बास– भैया, अब यहां से चलो। घर के लोग घबरा रहे होंगे।
हुसैन– नहीं अब्बास, अब मैं लौटकर घर न जाऊंगा। अभी मैंने ख्वाब देखा कि नाना आए हैं, और मुझे छाती से लगाकर कहते है– ‘‘बहुत थोड़े दिनों में तू ऐसे आदमियों के हाथों शहीद होगा, जो अपने को मुसलमान कहते होंगे, और मुसलमान न होंगे। मैंने तेरी शहादत के लिये कर्बला का मैदान चुना है, उस वक्त तू प्यासा होगा, पर तेरे दुश्मन तुझे एक बूंद पानी न देंगे। तेरे लिये यहां बहुत ऊंचा रुतबा रखा गया है, पर वह रुतबा शहादत के बग़ैर हासिल नहीं हो सकता।’’ यह कहकर नाना गायब हो गए।
अब्बास– (रोकर) भैया, हाय भैया, यह ख्वाब या पेशीनगोई?
(मुहम्मद हंफ़िया का प्रवेश)
मुहम्मद– हुसैन, तुमने क्या फ़ैसला किया?
हुसैन– खुदा की मर्जी है कि मैं कत्ल किया जाऊं।
मुहम्मद– खुदा की मरजी खुदा ही जानता है। मेरी सलाह तो यह है कि तुम किसी दूसरे शहर चले जाओ, और वहां से अपने कासिदों को उस जवार में भेजो। अगर लोग तुम्हारी बैयत मंजूर कर लें, तो खुदा का शुक्र करना, वरना यों भी तुम्हारी आबरू क़ायम रहेगी। मुझे खौफ़ यही है कि कहीं तुम ऐसी जगह न जा फंसो, जहां कुछ लोग तुम्हारे दोस्त हों, और कुछ तुम्हारे दुश्मन। कोई चोट बगली घूंसों की तरह नहीं होती, कोई सांप इतना कातिल नहीं होता, जितना आस्तीन का, कोई कान इतना तेज नहीं होता, जितना दीवार का, और कोई दुश्मन इतना ख़ौफनाक नहीं होता, जितनी दग़ा। इससे हमेशा बचते रहना।
हुसैन– आप मुझे कहां जाने की सलाह देते हैं?
मुहम्मद– मेरे ख़याल में मक्का से बेहतर कोई जगह नहीं है। अगर क़ौम ने तुम्हारी बैयत मंजूर की, तो पूछना ही क्या? वर्ना पहाड़ियों की घाटियां तुम्हारे लिये क़िलों का काम देंगी, और थोडे-से मददगारों के साथ तुम आजादी से जिंदगी बसर करोगे। खुदा चाहेगा, तो लोग बहुत जल्द यजीद के बेजार होकर तुम्हारी पनाह में आएंगे।
हुसैन– अजीजों को यहां छोड़ दूं?
मुहम्मद– हरगिज नहीं। सबको अपने साथ ले जाओ।
हुसैन– यहां की हालत से मुझे जल्द-जल्द इत्तिला देते रहिएगा।
मुहम्मद– इसका इतमीनान रखो।
(मुहम्म्द हुसैन से गले मिलकर जाते हैं।)
अब्बास– भैया, अब तो घर चलिए, क्या सारी रात जागते रहिएगा?
हुसैन– अब्बास, मैं पहले ही कह चुका कि लौटकर घर न जाऊंगा।
अब्बास– अगर आपकी इजाज़त हो, तो मैं भी कुछ अर्ज करूं: आप मुझे अपना सच्चा दोस्त समझते हैं या नहीं?
हुसैन– खुदा पाक की क़सम, तुमसे ज्यादा सच्चा दोस्त दुनिया में नहीं है।
अब्बास– क्यों न आप इस वक्त यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए? खुदा कारसाज है, मुमकिन है, थोड़े दिनों में यजीद खुद ही मर जाये, तो आपको खिलाफत आप-ही-आप मिल जायेगी। जिस तरह आपने मुआबिया के जमाने में सब्र किया, उसी तरह यजीद को भी सब्र के साथ काट दीजिए। यह भी मुमकिन है कि थोड़े ही दिनों में यजीद से तंग लोग बगावत कर बैठे, और आपके लिये मौका निकल आए। सब्र सारी मुश्किलों को आसन कर देता है।
हुसैन– अब्बास, यह क्या कहते हो? अगर मैं खौफ़ से यजीद को बैयत क़बूल कर लूं, तो इस्लाम का मुझसे बड़ा दुश्मन और कोई न होगा। मैं रसूल को, वालिद को, भैया हसन को क्या मुंह दिखाऊंगी! अब्बाजान ने शहीद होना कबूल किया, पर मुआबिया की बैयत न मंजूर की। भैया ने भी मुआबिया की बैयत को हराम समझा, तो मैं क्यों खानदान में दाग़ लगाऊं? इज्जत की मौत बेइज्जती की जिंदगी से कहीं अच्छी है।
अब्बास– (विस्मित होकर) खुदा की कसम, यह हुसैन की आवाज नहीं रसूल की आवाज़ है, और ये बातें हुसैन की नहीं, अली की हैं। भैया! आपको खुदा ने अक्ल दी है, मैं तो आपका खादिम हूं, मेरी बातें आपको नागवार हुई हों, तो माफ़ करना।
हुसैन– (अब्बास को छाती से लगाकर) अब्बास, मेरा खुदा मुझसे नाराज हो जाये, अगर मैं तुमसे जरा भी मलाल रखूं। तुमने मुझे जो सलाह दी, वह मेरी भलाई के लिये दी। इसमें मुझे जरा भी शक नहीं। मगर तुम इस मुग़ालते में हो कि यजीद के दिल की आग मेरे बैयत ही से ठंडी हो जायेगी, हालांकि यजीद ने मुझे कत्ल करने का यह हीला निकाला है। अगर वह जानता कि मैं बैयत ले लूंगा, तो वह कोई और तदबीर सोचता।
अब्बास– अगर उसकी यह नीयत है, तो कलाम पाक की कसम, मैं आपके पसीने की जगह अपना खून बहा दूंगा, और आपसे आगे बढ़कर इतनी तलवारें चलाऊंगा कि मेरे दोनों हाथ कटकर गिर जायें।
(जैनबू, शहरबानू और घर के अन्य लोग आते हैं।)
जैनब– अब्बास, बातें न करो। (हुसैन से) भैया, मैं आपके पैरों पड़ती हूं। आप यह इरादा तर्क कर दीजिए, और मदीने में रसूल की कब्र से लगे हुए जिंदगी बसर कीजिए, और अपनी गर्दन पर इस्लाम की तबाही का इल्जाम न लीजिए।
हुसैन– जैनब ऐसी बातों पर तुफ़ है। जब तक ज़मीन और आसमान कायम है, मैं यजीद की बैयत नहीं मंजूर कर सकता। क्या तुम समझती हो कि मैं गलती पर हूं?
जैनब– नहीं भैया, आप ग़लती पर नहीं है। अल्लाहताला अपने रसूल के बेटे को गलत रास्ते पर नहीं ले जा सकता, अगर आप जानते हैं कि ज़माने का रंग बदला हुआ है। ऐसा न हो, लोग आपके खिलाफ़ उठ खड़े हों।
हुसैन– बहन, इंसान सारी दुनिया के ताने बर्दाश्त कर सकता है, पर अपने ईमान का नहीं। अगर तुम्हारा यह ख़याल है कि मेरी बैयत न लेने से इस्लाम में तफ़र्खा पड़ जायेगा, तो यह समझ लो कि इत्तिफ़ाक कितनी ही अच्छी चीज़ हो, लेकिन रास्ती उससे कहीं अच्छी है। रास्ती को छोड़कर मेल को कायम रखना वैसा ही है, जैसा जान निकल जाने के बाद जिस्म क़ायम रखना। रास्ती क़ौम की जान है, उसे छोड़कर कोई क़ौम बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकती। इस बारे में मैं अपनी राय कायम कर चुका, अब तुम लोग मुझे रुखसत करो। जिस तरह मेरी बैयत से इस्लाम का बक़ार मिल जायेगा, उसी तरह मेरी शहादत से उसका बक़ार कायम रहेगा। मैं इस्लाम की हुरमत पर निसार हो जाऊंगा।
शहरबानू– (रोकर) क्या आप हमें अपने कदमों से जुदा करना चाहते हैं?
अली अकबर– अब्बाजान, अगर शहीद ही होना है, तो हम भी वह दर्जा क्यों न हासिल करें?
मुस्लिम– या अमीर, हम आपके क़दमों पर निसार होना ही अपनी जिंदगी का हासिल समझते हैं। आप न ले जायेंगे, तो हम जबरन आपके साथ चलेंगे।
अली असगर– अब्बा, मैं आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ता था। आप यहां छोड़ देंगे, तो मैं नमाज कैसे पढ़ूंगा?
जैनब– भैया, क्या कोई उम्मीद नहीं? क्या मदीने में रसूल के बेटे पर हाथ रखनेवाला, रसूल की बेटियों की हुरमत पर जान देनेवाला, हक़ पर सिर काटने वाला कोई नहीं है? इसी शहर से वह नूर फैला, जिससे सारा जहान रोशन हो गया। क्या वह हक़ की रोशनी इतनी जल्द गायब हो गई? आप यहीं से हिजाज़ और यमन की तरफ़ कासिदों को क्यों नहीं रवाऩा फ़रमाते?
हुसैन– अफ़सोस है जैनब, खुदा को कुछ और ही मंजूर है। मदीने में हमारे लिये अब अमन नहीं है। यहां अगर हम आजादी से खड़े हैं, तो यह वलीद की शराफत है; वरना यजीद की फ़ौजों में हमको घेर लिया होता। आज मुझे सुबह होते-होते यहां से निकल जाना चाहिए। यजीद को मेरे अजीजों से दुश्मनी नहीं, उसे खौफ़ सिर्फ़ मेरा है। तुम लोग मुझे यहां से रुखसत करो। मुझे यकीन है कि यजीद तुम लोग को तंग न करेगा। उसके दिल में चाहे न हो, मगर मुसलमान के दिल में ग़ैरत बाकी है। वह रसूल की बहू-बेटियों की आबरू लुटते देखेंगे, तो उनका खून जरूर गर्म हो जायेगा।
जैनब– भैया, यह हरगिज़ न होगा। हम भी आपके साथ चलेंगी। अगर इस्लाम का बेटा अपनी दिलेरी से इस्लाम का वकार कायम रखेगा, तो हम अपने सब्र से, जब्त से और बरदाश्त से उसकी शान निभाएंगे। हम पर जिहाद हराम है, लेकिन हम मौका पड़ने पर मरना जानती हैं। रसूल पाक की कसम, आप हमारी आँखों में आँसू न देखेंगे, हमारे लबों से फ़रियाद न सुनेंगे, और हमारे दिलों से आह न निकलेगी। आप हक़ पर जान देकर इस्लाम की आबरू रखना चाहते हैं, तो हम भी एक बेदीन और बदकार की हिमायत में रहकर इस्लाम के नाम पर दाग़ लगाना नहीं चाहती।
(सिपाहियों का एक दस्ता सड़क पर आता दिखाई पड़ता है)
हुसैन– अब्बास, यजीद के आदमी हैं। वलीद ने भी दगा दी। आह! हमारे हाथों में तलवार भी नहीं! ऐ खुदा मदद!
अब्बास– कलाम पाक की क़सम, ये मरदूद आपके करीब न पाएंगे।
जैनब– भैया, तुम सामने से हट जाओ।
हुसैन– जैनब घबराओ मत, आज मैं दिखा दूंगा कि अली का बेटा कितनी दिलेरी से जान देता है।
(अब्बास बाहर निकल कर फ़ौज के सरदार से)
ऐ सरदार, किसकी बदनसीबी है कि तू उसके नज़दीक जा रहा है?
सरदार– या हज़रत, हमें शहर में गश्त लगाने का हुक्म हुआ है कि कहीं बाग़ी तो जमा नहीं हो रहे हैं।
हुसैन– अब देर करने का मौका नहीं है। चलूं, अम्माजान से रुखसत हो लूं। (फ़ातिमा की क़ब्र पर जाकर) ऐ मादरेजान, तेरा बदनसीब बेटा– जिसे तूने गोद में प्यार से खिलाया था, जिसे तूने सीने से दूध पिलाया था– आज तुझसे रुखसत हो रहा है, और फिर शायद उसे तेरी जियारत नसीब न हो (रोते हैं।)
(मदीने के सब नगरवासियों का प्रवेश)
सब०– ऐ अमीर, आप हमें कदमों से क्यों जुदा करते है? हम आपका दामन न छोड़ेंगे। आपके कदमों से लगे हुए गुरबत की खाक छानना इससे कहीं अच्छा है कि एक बदकार और जालिम खलीफ़ा सख्तियां झेले। आप नबी के खानदान के आफ़ताब हैं। उसकी रोशनी से दूर होकर हम अंधेरे में खौफ़नाक जानवरों से क्योंकर अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें हक़ और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें एक और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी नसीहतों का अमृत पिलाएगा? हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए।
(रोते है।)
हुसैन– मेरे प्यारे दोस्तों, मैं यहां से खुद नहीं जा रहा हूं। मुझे तकदीर लिए जा रही है। मुझे वह दर्दनाक नजारा देखने की ताब नहीं है कि मदीने की गलियां इस्लाम और रसूल के दोस्तों के खून से रंगी जायें। मैं प्यारे मदीने को उसे उस तबाही और खून से बचाना चाहता हूं। तुम्हें मेरी यही आखिरी सलाह है कि इस्लाम की हुरमत क़ायम रखना, माल और जर के लिये अपनी कौम और अपनी मिल्लत से बेवफाई न करना, खुदा के नज़दीक इससे बड़ा गुनाह नहीं है। शायद हमें फिर मदीने के दर्शन न हों, शायद हम फिर सूरतों को देख न सकें। हां, शायद फिर हमें बुजुगों की सूरत देखनी नसीब न हो, जो हमारे नाना के शरीक और हमदर्द रहें, जिनमें से कितनों ही ने मुझे गोद में खेलाया है। भाइयों, मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं है कि उस रंज और ग़म को जाहिर कर सकूं, जो मेरे सीने में दरिया की लहरों की तरह उठ रहा है। मदीने की तरह उठा रहा है। मदीने की खाक से जुदा होते हुए जिगर के टुकड़े हुए जाते हैं। आपसे जुदा होते आँखों में अँधेरा छा जाता है, मगर मजबूर हूं। खुदा की और रसूल की यह मंशा है कि इस्लाम का पौधा मेरे खून से सींचा जाये, रसूल की खेती रसूल की औलाद के खून से हरी हो, और मुझे उनके सामने सिर झुकाने के सिवा और कोई चारा नहीं।
नागरिक– या अमीर, हमें अपने क़दमों से जुदा न कीजिए। हाय अमीर, हाय रसूल के बेटे, हम किसका मुंह देखकर जिएंगे। हम क्योंकर सब्र करें, अगर आज न रोएं तो फिर किस दिन के लिये आंसुओं को उठा रखे? आज से ज्यादा मातम का और कौन दिन होगा?
हुसैन– (मुहम्मद की क़ब्र पर जाकर) ऐ रसूल-खुदा, रुखसत। आपका नवासा मुसीबत में गिरफ्तार है। उसका बेड़ा पार कीजिए।

सब लोग छोड़के पहले ही सिधारे;
मिलता नहीं आराम नवासे को तुम्हारे।
खादिम को कोई अमन की अब जा नहीं मिलती;
राहत कोई साहत मेरे मौला, नहीं मिलती।
दुख कौन-सा और कौन-सी ईज़ा नहीं मिलती;
है आप जहां, राय वह मुझको नहीं मिलती;
दुनिया में मुझे कोई नहीं और ठिकाना;
आज आखिरी रुखसत को गुलाम आया है नाना!
बच जाऊं जो, पास अपने बुला लीजिए नाना;
तुरबत में नवासे को छिपा लीजिए नाना!

(भाई की क़ब्र पर जाकर)

सुन लीजिए शब्बीर की रुखसत है बिरादर,
हज़रत को तो पहलू हुआ अम्मा का मयस्सर।
कब्र भी जुदा होंगी यहां अब तो हमारी;
दखें हमें ले जाये कहां खाक हमारी!

मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ एक चिउंटी की भी जान खतरे में पड़े। अपने अजीजों से, अपनी मस्तूरात से, अपने दोस्तों से यही सवाल है कि मेरे लिये जरा भी गम न करो, मैं वहीं जाता हूं, जहां खुदा की मर्जी लिए जाती है।
अब्बास– या हज़रत, ख़ुदा के लिये हमारे ऊपर यह सितम न कीजिए। हम जीते-जी आपसे जुदा न होंगे।
जैनब– भैया, मेरी जान तुम पर फिदा हो। अगर औरतों को तुमने छोड़ दिया, तो लौटकर उन्हें जीता न पाओगे। तुम्हारी तीनों फूल-सी बेटियां ग़म से मुरझाई जा रही है। शहरबानू का हाल देख ही रहे हो। तुम्हारे बगैर मदीना सूना हो जायेगा, और घर की दीवारें हमें फाड़ खायेंगी। हमारे ऊपर इस बदनामी का दाग़ न लगाओ कि मुसीबत में रसूल की बेटियों ने अपने सरदार से बेवफ़ाई की। तुम्हारे साथ के फ़ाके यहां के मीठे लुकमों से ज्यादा मीठे मालूम होंगे। जिस्म को तकलीफ़ होगी, पर दिल को तो इतमीनान रहेगा।
अली अक०– अब्बा, मैं इस मुसीबत का सारा मजा आपको अकेले न उठाने दूंगा। इसमें मेरा भी हिस्सा है। कौन हमारे नेत्रों की चमक देखेगा? किसे हम अपनी दिलेरी के ज़ौहर दिखाएंगे? नहीं, हम यह ग़म की दावत अकेले न खाने देंगे।
अली अस०– अब्बा, मुझे अपने आगे घोड़ों पर बिठाकर रास मेरे हाथों में दे दीजियेगा। मैं उसे ऐसा दौड़ाऊँगा कि हवा भी हमारी गर्द को न पहुंचेगी।
हुसैन– हाय, अगर मेरी तक़दीर की मंशा है कि मेरे जिगर के टुकड़े मेरी आंखों के सामने तड़पें, तो मेरा क्या बस है। अगर खुदा को यही मंजूर है कि मेरा बाग मेरी नज़रों के सामने उजाड़ा जाये, तो मेरा क्या चारा है। खुदा गवाह रहना कि इस्लाम की इज्जत पर रसूल की औलाद कितनी बेदरदी से कुरबान की जा रही है! 

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रचनाएँ
कर्बला (नाटक)
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अमर कथा शिल्पी मुंशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांच विवरण का एक ऐतिहासिक नाटक है | इस मार्मिक नाटक में यह दिखाया गया है कि उस काल के मुसलिम शासकों ने किस प्रकार मानवता प्रेमी व असहायों व निर्बलों की सहायता करने वाले हुसैन को परेशान किया और अमानवीय यातनाएं दे देकर उसे कत्ल कर दिया। कर्बला के मैदान में लड़ा गया यह युद्ध इतिहास में अपना विशेष महत्त्व रखता है।जब भी मुहर्रम की बात होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है. आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी. इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे | प्रायः सभी जातियों के इतिहास में कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाएं होती हैं; जो साहित्यिक कल्पना को अनंत काल तक उत्तेजित करती रहती हैं। साहित्यिक समाज नित नये रूप में उनका उल्लेख किया करता है, छंदों में, गीतों में, निबंधों में, लोकोक्तियों में, व्याख्यानों में बारंबार उनकी आवृत्ति होती रहती है, फिर भी नये लेखकों के लिए गुंजाइश रहती है। मुसलमानों के इतिहास में कर्बला के संग्राम को भी वही स्थान प्राप्त है।
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भूमिका

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प्रायः सभी जातियों के इतिहास में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएँ होती हैं, जो साहित्यिक कल्पना को अनंत काल तक उत्तेजित करती रहती हैं। साहित्यिक-समाज नित नये रूप में उनका उल्लेख किया करता है, छंदों में, गीतो

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नाटक का कथानक

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हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति पैदा हुई कि ख़िलाफ़त का पद उनके चचेरे भाई और दामाद हज़रत अली को न मिलकर उमर फ़ारूक को मिला। हज़रत मुहम्मद ने स्वयं ही व्यवस्था की थी कि खल़ीफ़ा सर्व-सम

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नाटक के पात्र

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पुरुष हुसैन-हज़रत अली के बेटे और हज़रत मोहम्मद के नवासे । इन्हें फ़र्ज़न्दे-रसूल,शब्बीर,भी कहा गया है। अब्बास-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई । अली अकबर-हजरत हुसैन के बड़े बेटे । अली असगर-हजरत हुसैन के छ

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पहला अंक

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पहला दृश्य {समय-नौ बजे रात्रि। यजीद, जुहाक, शम्स और कई दरबारी बैठे हुए हैं। शराब की सुराही और प्याला रखा हुआ है।} यजीद– नगर में मेरी खिलाफ़त का ढिंढोरा पीट दिया गया? जुहाल– कोई गली, कूचा, नाका, सड़

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दूसरा दृश्य

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{ रात का समय– मदीने का गवर्नर वलीद अपने दरबार में बैठा हुआ है। } वलीद– (स्वागत) मरवान कितना खुदगरज आदमी है। मेरा मातहत होकर भी मुझ पर रोब जमाना चाहता है। उसकी मर्जी पर चलता, तो आज सारा मदीना मेरा दुश

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तीसरा दृश्य

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(रात का वक्त– हुसैन अब्बास मसजिद में बैठे बातें कर रहे हैं। एक दीपक जल रहा है।) हुसैन– मैं जब ख़याल करता हूं कि नाना मरहूम ने तनहा बड़े-बड़े सरकश बादशाहों को पस्त कर दिया, और इतनी शानदार खिलाफत कायम

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चौथा दृश्य

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(समय– रात। वलीद का दरबार। वलीद और मरवान बैठे हुए हैं।) मरवान– अब तक नहीं आए! मैंने आपसे कहा न कि वह हरगिज नहीं आएंगे। वलीद– आएंगे, और जरूर आएंगे। मुझे उनके कौल पर पूरा भरोसा है। मरवान– कहीं ऐसा तो

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पाँचवाँ दृश्य

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(समय– आधी रात। हुसैन और अब्बास मसजिद के सहन में बैठे हुए हैं।) अब्बास– बड़ी ख़ैरियत हुई, वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था। हुसैन– तुम लोगों की जतन बड़े मौक़े पर आई। मुझे गुमान न था कि

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छठा दृश्य

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(समय– संध्या। कूफ़ा शहर का एक मकान। अब्दुल्लाह, कमर, वहब बातें कर रहे हैं।) अब्दु०– बड़ा गजब हो रहा है। शामी फौज के सिपाही शहरवालों को पकड़-पकड़ जियाद के पास ले जा रहे हैं, और वहां जबरन उनसे बैयत ली

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सातवां दृश्य

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(अरब का एक गांव– एक विशाल मंदिर बना हुआ है, तालाब है, जिसके पक्के घाट बने हुए हैं, मनोहर बगीचा, मोर, हिरण, गाय आदि पशु-पक्षी इधर-उधर विचर रहे हैं। साहसराय और उनके बंधु तालाब के किनारे संध्या-हवन, ईश्व

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दूसरा अंक

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पहला दृश्य (हुसैन का क़ाफ़िला मक्का के निकट पहुंचता है। मक्का की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। लोग काबा की मसजिद द्वार पर स्वागत करने को खड़े हैं।) हुसैन– यह लो, मक्का शरीफ़ आ गया। यही वह पाक मुकाम है, ज

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दूसरा दृश्य

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यजीद का दरबार– यजीद, जुहाक़, मुआबिया, रूमी, हुर और अन्य सभासद् बैठे हुए हैं। दो वेश्याएँ शराब पिला रही हैं।) यजीद– तुममें से कोई बता सकता है, जन्नत कहां है? हुर– रसूल ने तो चौथे आसमान पर फ़रमाया। श

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तीसरा दृश्य

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[कूफ़ा की अदालत– क़ाजी और अमले बैठे हुए है। काज़ी के सिर पर अमामा है, बदन पर कबा, कमर में कमरबंद, सिपाही नीचे कुरते पहने हुए हैं। अदालत से कुछ दूर पर मसजिद है मुकद्दमें में पेश हो रहे हैं। कई आदमी एक

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चौथा दृश्य

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[स्थान– काबा, मरदाना बैठक। हुसैन, जुबेर, अब्बास मुसलिम अली असगर आदि बैठे दिखाई देते हैं।] हुसैन– यह पांचवी सफ़ारत है। एक हज़ार से ज्यादा खतूत आ चुके हैं। उन पर दस्तखत करने वालों की तादाद पन्द्रह हजार

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पांचवां दृश्य

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[यजीद का दराबर। मुआबिया बेड़ियां पहने हुए बैठे हुआ है। चार गुलाम नंगी तलवारें लिए उसके चारों तरफ़ खड़े हैं। यजीद के तख्त के करीब सरजून रूमी बैठा हुआ है।] मुआ०– (दिल से) नबी की औलाद पर यह जुल्म! मुझी

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छठा दृश्य

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(संध्या का समय। सूर्यास्त हो चुका है। कूफ़ा का शहर– कोई सारवान ऊँट का गल्ला लिए दाखिल हो रहे है।) पहला– यार गलियों से चलना, नहीं तो किसी सिपाही की नज़र पड़ जाये, तो महीनों बेगार झेलनी पड़े। दूसरा– ह

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सातवाँ दृश्य

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[कूफ़ा के चौक में कई दुकानदार बातें कर रहे हैं।] पहला– सुना, आज हज़रत हुसैन तशरीफ लेनेवाले हैं। दूसरा– हां, कल मुख्तार के मकान पर बड़ा जमघट था। मक्का से कोई साहब उनके आने की खबर लाए हैं। तीसरा– खुद

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आठवां दृश्य

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[नौ बजे रात का समय। कूफ़ा की जामा मसजिद। मुसलिम, मुख्तार, सुलेमान और हानी बैठे हुए हैं। कुछ आदमी द्वार पर बैठे हुए हैं।] सुले०– अब तक लोग नहीं आए? हानी– अब जाने की कम उम्मीद है। मुस०– आज जियाद का ल

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नवाँ दृश्य

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[दोपहर का समय। हानी का मकान शरीक एक चारपाई पर पड़े हुए है। मुसलिम और हानी फ़र्श पर बैठे हैं।] शरीक– जियाद अब आता ही होगा। मुसलिम, तलवार को तेज रखना। हानी– मैं खुद उसे क़त्ल करता, पर जईफ़ी ने हाथों म

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दसवाँ दृश्य

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[संध्या का समय। जियाद का दरबार] जियाद– तुम लोगों में ऐसा एक आदमी भी नहीं है, जो मुसलिम का सुराग़ लगा सके। मैं वादा करता हूं कि पांच हजार दीनार उसकी नज़र करूंगा। एक दर०– हुजूर, कहीं सुराग नहीं मिलता।

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ग्यारहवाँ दृश्य

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[१० बजे रात का समय। जियाद के महल के सामने सड़क पर सुलेमान, मुखतार और हानी चले आ रहे हैं।] सुले०– जियाद के बर्ताव में अब कितना फर्क नज़र आता है। मुख०– हां, वरना हमें मशविरा देने के लिये क्यों बुलाता।

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बारहवाँ दृश्य

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[९ बजे रात का समय। मुसलिम एक अंधेरी गली में खड़े हैं, थोड़ी दूर पर एक चिराग़ जल रहा है। तौआ अपने मकान के दरवाज़े पर बैठी हुई है।] मुस०– (स्वागत) उफ्! इतनी गरमी मालूम होती है कि बदन का खून आग हो गया।

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तेरहवां दृश्य

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[प्रातःकाल का समय। जियाद का दरबार। मुसलिम को कई आदमी मुश्क कसे लाते हैं] मुस०– मेरा उस पर सलाम है, जो हिदायत पर चलता है, आकबत से डरता है, और सच्चे बादशाह की बंदगी करता है। चोबदार– मुसलिम! अमीर को सल

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कर्बला (भाग-2)

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तीसरा अंक पहला दृश्य [दोपहर का समय। रेगिस्तान में हुसैन के काफ़िले का पड़ाव। बगूले उड़ रहे है। हुसैन असगर को गोद में लिए अपने खेमे के द्वार पर खड़े हैं।] हुसैन– (मन में) उफ्, यह गर्मी! निगाहें जलती

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दूसरा दृश्य

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[संध्या का समय। हुसैन का काफिला रेगिस्तान में चला जा रहा है।] अब्बास– अल्लाहोअकबर। वह कूफ़ा के दरख्त नज़र आने लगे। हबीद– अभी कूफ़ा दूर है। कोई दूसरा गांव होगा। अब्बास– रसूल पाक की कसम, फौज है। भालो

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तीसरा दृश्य

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[संध्या का समय– नसीमा बगीचे में बैठी आहिस्ता-आहिस्ता गा रही है।] दफ़न करने ले चले जब मेरे घर से मुझे, काश तुम भी झांक लेते रौज़ने घर से मुझे। सांस पूरी हो चुकी दुनिया से रुख्सत हो चुका, तुम अब आए

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चौथा दृश्य

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[आधी रात का समय। अब्बास हुसैन के खेमे के सामने खड़े पहरा दे रहे हैं। हुर आहिस्ता से आकर खेमे के करीब खड़ा हो जाता है।] हुर– (दिल में) खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा? किस मुंह से रसूल के सामने जाऊंगा? आह,

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पांचवां दृश्य

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[रात का समय। हुसैन अपने खेमे में सोए हुए हैं। वह चौंक पड़ते हैं, और लेटे हुए, चौकन्नी आंखों से, इधर-उधर ताकते हैं।] हुसैन– (दिल में) यहां तो कोई नजर नहीं आता। मैं हूं, शमा है, और मेरा धड़कता हुआ दिल

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छठा दृश्य

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[कर्बला का मैदान। एक तरफ केरात-नदीं लहरें मार रही है। हुसैन मैदान में खड़े हैं। अब्बास और अली अकबर भी उनके साथ हैं।] अली अकबर– दरिया के किनारे खेमे लगाए जाए, वहां ठंडी हवा आएगी। अब्बास– बड़ी फ़िजा क

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सातवां दृश्य

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[नसीमा अपने कमरे में अकेली बैठी हुई है– समय १२ बजे रात का।] नसीमा– (दिल में) वह अब तक नहीं आए। गुलाम को उन्हें साथ लाने के लिए भेजा, वह भी वहीं का हो रहा। खुदा करे, वह आते हों। दुनिया में रहते हुए हम

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चौथा अंक

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पहला दृश्य [प्रातःकाल का समय। जियाद फर्श पर बैठा हुआ सोच रहा है।] जियाद– (स्वगत) उस वफ़ादारी की क्या कीमत है, जो महज जबान तक महदूद रहें? कूफ़ा के सभी सरदार, जो मुसलिम बिन अकील से जंग करते वक्त बग़ले

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तीसरा दृश्य

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[केरात-नदी के किनारे साद का लश्कर पड़ा हुआ है। केरात से दो मील के फासले पर कर्बला के मैदान में हुसैन का लश्कर है। केरात और हुसैन के लश्कर के बीच में साद ने एक लश्कर को नदी के पानी को रोकने के लिये पहर

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चौथा दृश्य

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[हुसैन के हरम की औरतें बैठी हुई बातें कर रही हैं। शाम का वक्त।] सुगरा– अम्मा, बडी प्यास लगी है। अली असगर– पानी, बूआ पानी। हंफ़ा– कुर्बान गई, बेटे कितना पानी पियोगे? अभी लाई (मश्को को जाकर देखती है,

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पांचवां दृश्य

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[८ बजे रात का समय। जियाद की खास बैठक। शिमर और जियाद बातें कर रहे हैं।] जियाद– क्या कहते हो। मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि दरिया पर हुसैन का कोई आदमी न आने पाए। शिमर– बजा है। मगर मैं तो हुसैन के आदमिय

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छठा दृश्य

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[प्रातःकाल। शाम का लश्कर। हुर और साद घोड़ों पर सवार फ़ौज का मुआयना कर रहे हैं।] हुर– अभी तर जियाद ने आपके खत का जबान नहीं दिया? साद-उसके इंतजार में रात-भर आंखें नहीं लगीं। जब किसी की आहट मिलती थी, त

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सातवाँ दृश्य

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[समय ८ बजे रात। हुसैन एक कुर्सी पर मैदान में बैठे हुए हैं। उनके दोस्त और अजीज सब फ़र्श पर बैठे हुए हैं। शमा जल रही है।] हुसैन– शुक्र है, खुदाए-पाक का, जिसने हमें ईमान की रोशनी अता की, ताकि हम नेक को

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आठवाँ दृश्य

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[प्रातःकाल हुसैन के लश्कर में जंग की तैयारियां हो रही हैं।] अब्बास– खेमे एक दूसरे से मिला दिए गए, और उनके चारों तरफ खंदके खोद डाली गई, उनमें लकड़ियां भर दी गई। नक्कारा बजवा दूं? हुसैन– नहीं, अभी नही

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नवाँ दृश्य

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[कूफ़ा का वक्त। कूफ़ा का एक गांव। नसीमा खजूर के बाग में जमीन पर बैठी हुई गाती है।] गीत दबे हुओं को दबाती है ऐ जमीने-लहद, यह जानती है कि दम जिस्म नातवां में नहीं। क़फस में जी नहीं लगता है आह! फिर भ

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पहला दृश्य [समय ९ बजे दिन। दोनों फौ़जे लड़ाई के लिये तैयार हैं।] हुर– या हजरत, मुझे मैदान में जाने की इजाजत मिले। अब शहादत का शौक रोके नहीं रुकता। हुसैन– वाह, अभी आए हो और अभी चले जाओगे। यह मेहमानन

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दूसरा दृश्य

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[समर-भूमि। साद की तरफ़ से दो पहलवान आते हैं– यसार और सालिम।] यसार– (ललकारकर) कौन निकलता है, हुर का साथ देने के लिये। चला जाए, जिसे मौत का मजा चखना हो। हम वह है, जिनकी तलवार से क़ज़ा की रूह भी क़जा हो

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तीसरा दृश्य

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[दोपहर का समय। हजरत हुसैन अब्बास के साथ खेमे के दरवाजे पर खड़े मैदाने-जंग की तरफ ताक रहे हैं।] हुसैन– कैसे-कैसे जांबाज दोस्त रुखसत हो गए और होते जा रहे हैं। प्यास से कलेजे मुंह को आ रहे हैं, और ये जा

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[जैनब अपने खेमे में बैठी हुई है। शाम का वक्त] जैनब– (स्वगत) अब्बास और अली अकबर के सिवा अब भैया के कोई रकीफ़ बाकी नहीं रहे। सब लोग उन पर निसार हो गए। हाय, कासिम-सा जवान, मुसलिम के बेटे, अब्बास के भाई,

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पांचवां दृश्य

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[१२ बजे रात का समय। लड़ाई ज़रा देर के लिए बंद है। दुश्मन की फ़ौज ग़ाफिल है। दरिया का किनारा। अब्बास हाथों में मशक लिए दरिया के किनारे खड़े हैं।] अब्बास– (दिल में) हम दरिया से कितने करीब हैं। इतनी ही

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छठा दृश्य

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[दोपहर का समय। हुसैन अपने खेमे में खड़े है, जैनब, कुलसूम, सकीना, शहरबानू, सब उन्हें घेरे खड़े हैं।] हुसैन– जैनब, अब्बास के बाद अली अकबर दिल को तस्कीन देता था। अब किसे देखकर दिल को ढाढ़स दूं? हाय! मेर

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