[८ बजे रात का समय। जियाद की खास बैठक। शिमर और जियाद बातें कर रहे हैं।]
जियाद– क्या कहते हो। मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि दरिया पर हुसैन का कोई आदमी न आने पाए।
शिमर– बजा है। मगर मैं तो हुसैन के आदमियों को दरिया से पानी लाते बराबर देखता रहा हूं, और शायद मेरा, दरिया की हिफ़ाजत के लिए अपनी जिम्मेदारी पर, हुक्म जारी करना साद को बुरा लगा।
जियाद– साद पर मुझे इतमीनान है। मुमकिन है, उसे लोगों को प्यासों मरते देखकर रहम आ गया हो, और हक़ तो यह है कि शायद मैं भी मौके पर इतना बेरहम नहीं हो सकता। इससे यह नहीं साबित होता कि साद की नीयत डाँवाडोल हो रही है।
शिमर– मैं साद की शिकायत करने के लिए आपकी खिदमत में नहीं हाजिर हुआ हूँ, सिर्फ वहां ही हालत अर्ज करनी थी। हुसैन ने आज साद को मुलाकात करने को भी तो बुलाया है। देखिए, क्या बातें होती हैं।
जियाद– क्या? साद हुसैन से मुलाकातें भी कर रहा है? तुम साबित कर सकते हो?
शिमर– हूजूर, मेरे सबूत की जरूरत नहीं। उनका कासिद अभी आता ही होगा।
जियाद– क्या कई बार मुलाकातें हुई हैं?
शिमर– आज की मुलाकात का भी तो मुझे इल्म है, पर शायद और भी मुलाकातें तनहाई में हुई हैं।
जियाद– कोई और आदमी साथ नहीं रहा?
शिमर– मैंने खुद साथ चलना चाहा था, पर मेरी अर्ज कबूल न हुई।
जियाद– कलाम पाक की कसम मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंने उसे हुसैन से जंग करने को भेजा है, मसालहत करने के लिए नहीं। मैं उससे इसका जवाब तलब करूंगा।
शिमर– हुजूर के उनके साथ जो सलूक किए हैं, और इस काम के लिए सिला तजवीज किया है वह तो किसी दुश्मन को भी आपका दोस्त बना देता। मगर अपना-अपना मिजाज ही तो है।
[एक कासिद का प्रवेश]
कासिद– अस्सलामअलेक या अमीर, उमर दिन साद का खत लाया हूं।
[जियाद को खत देता है, और जियाद उसे पढ़ने लगता है। कासिद बाहर चला जाता है।]
जियाद– इस मसालहत का नतीजा तो अच्छा निकला। हुसैन वापस जाने को रजामंद हैं, और साद ने इसकी ताईद करते हुए लिखा है कि उनकी जानिब से किसी खतरे का अंदेशा नहीं। खल़ीफ़ा यजीद की मंशा भी यही है। साद ने खूब किया कि गैर जंग के फतह हासिल कर ली।
शिमर– बेशक बड़ी शानदार फतह है।
जियाद– क्यों, यह फतह नहीं है? तंग क्यों करते हो? शिमर– जिसे आप फतह करते रहे हैं, वह फतह नहीं, आपकी शिकस्त है। ऐसी शिकस्त, जो आपको फिर पनपने न देगी। आग फूस में पड़कर उतनी खौफ़नाक नहीं हो सकती, जितने इस मुहासिरे से निकलकर हुसैन हो जायेंगे। शेर किसी शिकार के पीछे दौड़ता हुआ बस्ती में आ गया है। उसे आप घेरकर मार सकते हैं, लेकिन एक बार वह फिर जंगल में पहुंच जाये, तो कौन है, जो उसके पंजों के सामने जाने की हिम्मत कर सके। कर्बला से निकलकर हुसैन वह दरिया होंगे, जो बांध को तोड़कर बाहर निकल आया हो, और आपकी हालत उसी टूटे हुए बांध की-सी होगी।
जियाद– हां, इसमें तो कोई शक नहीं कि अगर वह निकलकर हिजाज और यमन चले जायें, तो शायद खलीफ़ा यजीद की खिलाफत डगमगा जाये। मगर एक शर्त यह भी तो है कि उन्हें यजीद के पास जाने दिया जाए। इसमें हमें क्या उज्र हो सकता है?
शिमर– अगर बाज कबूतर के करीब पहुंच जाये, तो दुनिया की कोई फौज उसे बाज के चंगुल से नहीं बचा सकती। हुसैन अपने बाप के बेटे हैं। खलीफा़ उनकी दलीलों से पेश नहीं पा सकते। कोई अजब नहीं कि अपनी अक्ल के ज़ोर से आज का कैदी कल का खलीफ़ा हो, और खलीफ़ा को उल्टे उसकी बैयत कबूल करनी पड़े।
जियाद– तुम्हारा यह खयाल भी बहुत सही है। काश मुझे तुम्हारी वफ़ादरी का इतना इल्म पहले होता, तो तुम्हीं फौज के सिपहसालार होते।
शिमर– काश साद ने मेरी बातें इतनी कद्रदानी से सुनी होती, तो मुझे यहां आने और आपको तकलीफ़ देने की जरूरत ही न पड़ती।
जियाद– तुम सुबह चले जाओ, और साद से कहो कि फौरन जंग शुरू करे।
शिमर– हुजूर की जो हुक्म देना हो खत के जरिए दे। मातहत के जरिए उसके अफ़सर को हुक्म देना अफसर को मातहत के खून का प्यासा बनाना है।
जियाद– बेहतर, मैं खत ही लिख देता हूं।
[जियाद खत लिखकर शिमर को देता है]
शिमर– इसमें हुजूर ने ऐसा कोई कलमा तो नहीं लिखा, जिसमें साद को सुबहा हो कि मेरे इशारे से लिखा गया है?
जियाद– मुतलक़ नहीं। हां, यह अलबत्ता लिख दिया है कि अगर तूने सिरताबी की, तो तेरी जगह शिमर लश्कर का सरदार होगा।
शिमर– हुजूर की कद्रदानी की कहां तक तारीफ करूं।
जियाद– इसकी जरूरत नहीं। अगर साद मेरे हुक्म की तामील करे, तो बेहतर, नहीं तो वह माजूल होगा, और तुम लश्कर के सरदार होगे। पहला काम जो तुम करोगे, वह साद का सर कलम करके मेरे पास भेजना होगा। यहीं तुम्हारी बहाली की बिस्मिल्लाह होगी।
शिमर– (उठकर) आदाब बजा लाता हूं।
[शिमर बाहर चला जाता है और जियाद मकान में आराम करने जाता हैं।]
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D