मंज़िल का भान हो न हो / पथ का भी ज्ञान हो न हो
आत्मा – हमारी अपनी चेतना / नित नवीन पंख लगाए
सदा उड़ती ही जाती है / सतत / निरन्तर / अविरत...
क्योंकि मैं “वही” हूँ / मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं
“अहम् ब्रह्मास्मि” या कह लीजिये “सोSहमस्मि”
तभी तो, कभी इस तन, कभी उस तन
कभी तेरे तन तो कभी मेरे तन |
न इसके पंख जलते हैं भयंकर ताप से
न ये गलते हैं अनवरत बरखा के पानी से
और न ही ये सिकुड़ते हैं तेज़ सर्द हवाओं से |
इन डैनों को फैलाए आत्मा – हमारी अपनी चेतना
उड़ती जाती है विशाल ब्रह्माण्ड में / सतत / निरन्तर / अविरत...
कितनी दूर अभी जाना है / कहाँ रुकना है
नहीं ज्ञान इसे / बस ज्ञान है तो इतना
कि फैलेँगे पंख जितने विशाल / ऊँची होगी उतनी उड़ान |
प्रत्यक्ष की इस जीवन यात्रा में
आत्मा – हमारी अपनी चेतना
बस उड़ती ही रहती है / सतत / निरन्तर / अविरत...
थकते नहीं कभी / कमज़ोर पड़ते नहीं कभी पंख इसके
हाँ, ठहर ज़रूर जाते हैं कुछ पलों के लिए
क्योंकि आ जाते हैं व्यवधान राहों में |
कभी मार्ग रोकता है क्रोध
लेकिन साथ ही प्रेम दिखा देता है नया मार्ग |
कभी मार्ग रोकते हैं भय और कष्ट
तो साथ ही पुरुषार्थ खोल देता है नई राहें |
कभी उन फैले पंखों से पहुँचता है कष्ट किसी को
तो क्षमादान प्रशस्त करता है एक नया मार्ग |
कभी होता है अभिमान एक पंख को अपने विस्तार का
तो दूसरा पंख एक ओर झुककर / प्रशस्त करता है मार्ग विनम्रता का |
एक पंख के साथ होता है रुदन
तो दूसरा हँसकर उसे पहुँचाता है सुख |
कभी दोनों ही पंख होते हैं उपेक्षित
तो कभी दोनों को मिलता है सम्मान अपार |
यही क्रम है सृष्टि का – संसार चक्र का
आत्मा – हमारी अपनी चेतना
अनेक प्रकार के पंख लगाए
बस उड़ती जाती है अपने ही विशाल विस्तार में
सतत / निरन्तर / अविरत........
तो आइये आज दे दें अपनी आत्मा को पंख उन्मुक्त प्रेम के
भर दें इन पंखों में माधुर्य क्षमा का
पुरुषार्थ से कर दें इन पंखों को बलिष्ठ
हवा भर दें इन पंखों में विनम्रता की
ताकि उड़ती रहे आत्मा – हमारी अपनी चेतना
अपने ही विशाल विस्तार में / सतत / निरन्तर / अविरत / अनवरत......