प्रेम – जो नहीं विकसित होगा अनायास ही |
रोपित करना होगा बीज परस्पर विश्वास का
देनी होगी खाद निस्वार्थ स्नेह की
सींचना होगा उसे समर्पण के जल से |
हो सकता है भाग्य साथ दे न दे
हो सकता है समय अनुकूल हो न हो
हो सकता है झकझोर दें इस पौधे को
अनिश्चितता और दुर्भावनाओं के भीषण झँझावात
हृदय बन जाएँ आवास अहंकार के अन्धकार का
आँखों पर पड़ जाए आवरण अधिकार भाव का |
किन्तु समस्त अनिश्चितताओं और दुर्भावनाओं के साथ ही
प्रवाहित होती रहती है / सद्भावों की भी मलय पवन
बस अहसास करना होगा उसकी मधुर गन्ध का |
अहम् के अन्धकार के साथ ही चलती है
प्रेम के प्रकाश की भी एक पतली सी किरण
बस देखना होगा उसे पूरे मनोयोग से |
अधिकार के आवरण के पीछे / कहीं बहुत भीतर
कहीं बहुत गहरे / हृदय की असीम गहराइयों में
छिपा होता है ऐसा कुछ विशिष्ट / ऐसा कुछ मधुर
जिसे चाहते हैं हम बाँटना / परस्पर / एक दूजे के साथ
बस करना होगा प्रयास उसे पहचानने का
और प्रयास नहीं होता सदा ही सरल |
किन्तु सत्य है यह भी
कि तज दिया प्रयास / तो नहीं होगा हासिल कुछ भी |
करेंगे सतत प्रयास पहचानने का / अपने भीतर के उस “विशिष्ट” को
जिसे चाहते हैं हम बाँटना आपस में
तो विकसित होगा परस्पर सामंजस्य
छंट जाएगा अहंकार का घना अन्धकार
हट जाएगा अधिकार भाव का भी आवरण
और तब रोप देंगे बीज परस्पर विश्वास का
डालेंगे उसमें खाद परस्पर स्नेह की
सींचेंगे उसे समर्पण के जल से |
और तब प्रस्फुटित होंगी प्रेम की नवीन कोंपलें
जिनसे विकसित होगा स्नेह का नन्हा पौधा
जो बन जाएगा धीरे धीरे प्रेम का विशाल वृक्ष |
प्रेम – जो है ईश्वर की दी हुई एक ऐसी भेंट
जिसका नहीं कोई मोल / और न ही कोई अहंकार
जहाँ नहीं भावना किसी पर अधिकार की
यदि कुछ है तो वह है
केवल और केवल अलौकिक प्रेम का भाव
जो होता है मासूम बच्चों जैसा / अल्हड़ किशोर जैसा
मतवाला युवाओं जैसा / और गम्भीर बुजुर्गों जैसा
और तब मानवता हो जाती है धन्य |
तो क्यों न सारे अहंकार और अधिकार भाव को तज
करें आराधन ऐसे निस्वार्थ प्रेम का
क्योंकि यही तो है सहचर समूची मानवता का…