पर फिर भी हो मुग्धमना मैं करती गुँजन
सन्ध्या को जब पवन
बहे सन सन सन सन सन
राग सुरीला सुनकर हो जाती मैं अनमन |
कितना आकुल कितना व्याकुल मेरा अन्तर
पर फिर भी हो मुग्धमना मैं करती गुँजन ||
भूली बिसरी वीणा मैं निज हस्त संभालूँ,
धीरे धीरे उसके तारों को सहलाऊँ
सारे स्वर हैं शुद्ध सुरीले पहले जैसे,
पर एकाकी यों ही घुट घुट कर रह जाते |
वीणा को फिर शयन कराती होकर अनमन
पर फिर भी हो मुग्धमना मैं करती गुँजन ||
वीणा ही क्या, मैं भी तो उसके ही जैसी, जिसका अन्तर शुद्ध सुरीले तारों जैसा
झन झन करता तुम्हें पुकारे कब आओगे,
सावन की रिमझिम का मीठा गान सुनोगे |
हर सन्ध्या मन के तारों को करती निश्चल
पर फिर भी हो मुग्धमना मैं करती गुँजन ||
शरद रात्रि हो या वासन्ती भोर जगी हो,
दीवाली की जगमग हो, होली का रंग हो
या मेघों का दामिनि के संग नृत्य रचा हो,
मेरे मन के भावों से हो तुम नहीं अपरिचित |
तब मन की तानों की गति को करती सीमित
पर फिर भी हो मुग्धमना मैं करती गुँजन ||