ना मोक्ष की है चाह मुझे / ना आत्ममिलन की आस मुझे
मोक्ष किससे ? अपने जीवन से ? जग की चिन्ताओं से ?
क्या खोजना होगा मोक्ष को बाहर कहीं ?
भटकना होगा कभी इस तीर्थ तो कभी उस तीर्थ ?
गुज़रना होगा अनेक प्रकार की रीतियों से / ढकोसलों से ?
क्या है ये आत्ममिलन / जब मैं ही हूँ वह / मुझमें ही है वह ?
क्या नहीं है यह मेरे भीतर ही ?
क्या अपने अहम् का नाश करने हेतु / पखारने होंगे चरण दूसरों के ?
नहीं, कदापि नहीं / क्योंकि मेरे अपने मन के भीतर ही है एक तीर्थ
किसी भी अन्य तीर्थ से भी अधिक पवित्र
धवल जल से पूर्ण / एक स्वच्छ सरोवर से युक्त
जहाँ नहीं है विश्राम किसी चिन्ता के लिए
ना ही है स्वीकार्यता किसी पीड़ा के लिए
न वहाँ झरने पाते हैं आनन्द के पत्र पुष्प / दुःख के पतझड़ में
जहाँ शान्ति की हरीतिमा बिखरी है हर ओर
और फैला है आनन्द का प्रकाश हर दिशा में
जहाँ नर्तन करता है प्रेम हर पल / उल्लास के साथ
हाँ, है बड़ा ही कठिन पहुँचना इस तीर्थ तक
दूरी है बहुत / समय है कम / मार्ग है पथरीला
पर पार कर लिया इन बाधाओं को / अखण्ड विश्वास के सहारे
तो पहुँच ही जाऊँगी मन के उस तीर्थ तक
जहाँ है वह स्वच्छ धवल अमृत जलपूर्ण सरोवर
और फिर धीरे धीरे गहरे पैठ कर उस सरोवर में
खो जाऊँगी मन के उस तीर्थ में / जो है पुनीत किसी भी तीर्थ से
नहीं रहेगी चिन्ता तब मोक्ष की / निर्वाण की
नहीं होगा प्रयास तब समाधि का भी वहाँ
नहीं है कोई महत्त्व इनका / जब बिसरा ही दिया अपने अहं को
हो जाने को एक उस महाप्राण के साथ
वही तो होगा आत्ममिलन / अपने ही स्व के साथ
क्योंकि नहीं कोई दूजा है वह / क्योंकि मुझमें ही है वह / क्योंकि हूँ मैं ही वह…