कल सारा दिन टी वी पर शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में कार्यक्रमों के प्रसारण होते रहे और “प्रथम शिक्षक” विषय पर कुछ चैनल्स पर चर्चाएँ भी होती रहीं | उसी सबको देखकर आज स्मरण हो आया उस व्यक्तित्व का जो माँ और पिताजी के बाद हमारे प्रथम शिक्षक बने | हमारी शिक्षा हिन्दी माध्यम के विद्यालय में हुई है | विषय अंग्रेजी सहित सभी पढाए जाते थे | अबसे लगभग 58-59 बरस पहले भी हमारे स्कूल में उन बच्चों को एडमीशन मिलता था जिनके विषय में स्कूल के अध्यापक आश्वस्त होते थे कि ये बच्चा विद्यालय के रिज़ल्ट के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी ही करेगा, प्रतिशत को गिरने नहीं देगा | उन दिनों यदि बच्चे के साठ प्रतिशत अंक आ जाते थे तो मिठाई बाँटी जाती थी – बच्चा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ है | और यदि एक या अधिक विषयों में 75 प्रतिशत अंक आ गए तब तो ख़ुशी दूनी चौगुनी हो जाया करती थी – बच्चे को डिस्टिंक्शन – विशेष योग्यता – मिली है | हमारे विद्यालय में शायद ही कोई छात्र अथवा छात्रा अनुत्तीर्ण रहते होंगे बोर्ड की परीक्षाओं में और इसीलिए उत्तर प्रदेश बोर्ड की ओर से हमारे विद्यालय को कई बार पुरुस्कृत भी किया गया था | इसीलिए बच्चों के एडमीशन के समय सावधानी बरती जाती थी | लिहाज़ा स्कूल में एडमीशन के लिए भेजने से पहले बच्चों के माता पिता उन्हें काफ़ी कुछ तैयार करा देते थे |
इसी तरह हमारी माँ ने भी हमें काफ़ी कुछ याद करा रखा था – जैसे ए से एप्पल, बी से बॉल या फिर अ से अनार आ से आम | साथ में गिनतियाँ भी अच्छी तरह रटा रखी थीं | अक्षरों और गिनतियों को पुस्तक में पढ़ना भी सिखा दिया था | कई सारी बच्चों की कविता एँ और कहानियाँ भी खेल खेल में रटा दी थीं | यहाँ तक कि घर में कोई मेहमान आता तो उसके सामने हमें प्रस्तुत किया जाता “पूनम बेटा वो सुनाओ – मछली जल की रानी है…” आदि आदि, और हम शुरू हो जाते | पर जब कॉपी और क़लम दवात रखकर लिखना सिखाने की कोशिश करती थीं तो हमारे हाथ दुखने लग जाते थे | कारण था कि लिखना नहीं चाहते थे | काफ़ी दिनों तक तो स्कूल में भी यही हाल रहा | अध्यापक कुछ लिखने के लिए बोलते तो हमारा जवाब होता “आप सुन लीजिये, हमें सब याद है | हाथ में दर्द है इसलिए लिख नहीं पाएँगे |” और तोते की तरह खटाखट सब सुना देते थे | पिताजी के पास शिक़ायत पहुँचती तो वे हँस कर टाल देते थे | पर माँ को गुस्सा आता था |
खैर, तो बात चल रही थी लिखना सीखने की | जब हमें लिखना सिखाने में माँ को सफलता नहीं मिली तो पिताजी से कहा गया | उनका वही सदा के जैसा उत्तर था “अरी भाग्यवान मास्टरनी जी, स्कूल जाएगी तो सब सीख जाएगी, अभी क्यों इसे तंग करने में लगी हो…” और अपनी लाडली को गोद में उठा प्यार से पुचकारने लगते | माँ बेचारी मन मसोस कर रह जातीं | आख़िर उन्होंने अपने आप ही पण्डित यज्ञदत्त जी से बात कर ली कि वे हमें ट्यूशन पढ़ाएँगे और जो काम माँ नहीं कर पा रही हैं – हमें लिखना सिखाने का – वो पण्डित जी पूरा करेंगे |
मुहल्ले के बच्चों को पता चला तो बड़े बच्चों ने डराना शुरू कर दिया “अरे पण्डित यज्ञदत्त जी तो बड़ी सख्ती से पढ़ाते हैं | यहाँ तक कि अगर ज़रा सी भी ग़लती हो जाए तो छड़ी से पीटते भी हैं |” हम परेशान | तीन साल के बच्चे से और क्या आशा की जा सकती थी | हमने माँ पिताजी से कहा तो सुनकर माँ तो धोती का पल्ला मुँह में दबाकर हौले से हँस दीं, और पिताजी ने गोद में उठाकर समझाया “अरे नहीं बेटा, वो तो बच्चों से बड़ा प्यार करते हैं | इतनी बार तो आप मिल चुकी हो उनसे | ये पप्पू मोहन तो यों ही आपको डरा रहे हैं | हम समझाएँगे इन बच्चों को…”
खैर जी, अच्छा सा मुहूर्त देखकर पण्डित यज्ञदत्त जी को बुलाया गया | उनके आने से पहले ही हमें हमारी छोटी से कुर्सी पर बैठा दिया गया था और सामने हमारी छुटकी मेज़ पर कॉपी और क़लम दवात रख दिए गए थे | पण्डित जी आए | शहर में उनका अच्छा ख़ासा सम्मान था जो उनके व्यक्तित्व और वेशभूषा में स्पष्ट दीख पड़ता था | कलफ किया हुआ सफ़ेद खद्दर का धोती कुरता और उस पर एक भूरे रंग की बंडी पहने और सर पर टोपी लगाए पतले दुबले छरहरे कसरती गठे बदन वाले श्यामल वर्ण पण्डित जी | पूजा पाठी कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे सो मस्तक पर केसर चन्दन का तिलक भी लगाया हुआ था | बंडी की ऊपर की ज़ेब से एक सफ़ेद तिकोना रुमाल भी झाँक रहा था | हाथ में एक डंडा भी था | वो अक्सर उस डंडे को अपने साथ रखते थे ये बात हम जानते थे, पर उस दिन हमें लगा वो डंडा हमारी पिटाई के लिए लाया गया था | हमने परेशान हो पिताजी की तरफ़ देखा | उन्हें बात समझ आई तो पण्डित जी को सारी बात बताई और पण्डित जी ज़ोर से हँस पड़े “अरे नहीं बिटिया, ये डंडा तो उन पप्पू, मोहन और अनिल जैसे शरारती लौंडों के लिए है जो जब देखो तब आपकी छत पर चढ़े आपके पेड़ से जामुन तोड़ते रहते हैं | आप तो इतनी प्यारी बच्ची, भला आपको कोई क्यों मारेगा ? लो हम इसे बाहर दहलीज़ में रख आते हैं…” और उन्होंने दहलीज़ के एक कोने में डंडे को छोड़ दिया | अब हमारी जान में जान आई |
पण्डित जी पढ़ाने के लिए बैठे | बैठक में पण्डित जी पढ़ा रहे थे और बैठक तथा रसोई के बीच में एक सर्विस विण्डो बनी हुई थी जिसमें से माँ मेहमानों के लिए खाने पीने का सामान पकड़ाती रहती थीं | माँ रसोई में पण्डित जी के लिए नाश्ता तैयार करती उसी रसोई की खिड़की में से हम पर नज़र रखे हुए थीं |
बहरहाल, पण्डित जी ने पूछा हमें क्या क्या आता है | और हमने सारी गिनतियाँ, हिन्दी अंग्रेजी की सारी वर्णमालाएं और सारी कविताएँ वगैरा उन्हें एक के बाद बिना रुके सुना दीं | अब बारी थी पुस्तक में से पढ़ने की | वो भी हमने अच्छे से पहचान कर सब पढ़ दिया – ये अ है – अ से अनार बनता है – और ये अनार है… वगैरा वगैरा…
जब इतना सब हो चुका तो पण्डित जी ने बैठक में चारों तरफ़ नज़र दौड़ानी शुरू की | रसोई की खिड़की में से माँ ने पूछा “क्या चाहिए पण्डित जी…”
“मास्टरनी जी लल्ली की तख्ती कहाँ है…?” पण्डित जी ने पूछा |
“तख्ती ? पर मैं तो इसे कॉपी पर लिखवाने की कोशिश कर रही हूँ… तख्ती से तो इसके कपड़े और हाथ ख़राब हो जाएँगे…” माँ ने भीतर से कहा |
“अरे मास्टरनी जी आप भी न… आप जैसी समझदार महिला भी इस प्रकार की बातें करेंगी तो इन आजकल के अँगरेज़दाओं को क्या कहेंगे… आज मैं चलता हूँ, कल तख्ती और खडिया मिट्टी मंगा कर रखियेगा तभी लिखना शुरू करवाऊँगा…” और नाश्ता करके पण्डित जी उस दिन वापस लौट गए |
दूसरे दिन माँ ने तख्ती मंगा कर उसे खड़िया मिट्टी से पोत कर सुखा कर रख दिया था | पण्डित जी आए | पहले एक दवात में कोई गोली डालकर उसे घोलकर स्याही बनाई | फिर सरकंडे की क़लम लेकर ज़ेब से चाकू निकाल कर उसे बनाया और ज़मीन पर टिकाकर उसकी नोक को तिरछा काटा | उसके बाद अपनी ज़ेब से ही कोई छोटा सा पत्थर निकाला और उससे तख्ती को घिसकर चिकना किया | उसके बाद उस पर कई लकीरें खींच कर पेन्सिल से उन पर अक्षर बनाए और हमें कहा कि क़लम को दवात की स्याही में डुबाकर उन पेन्सिल से लिखे अक्षरों पर लिखें |
हमें तो तख्ती और क़लम तैयार करने की पण्डित जी की सारी प्रक्रिया देखकर ही मज़ा आ रहा था | हमारे लिए वो सब एक खेल जैसा था | लिहाज़ा अब पण्डित जी ने लिखने के लिए कहा तो उन पेन्सिल से बने अक्षरों पर हम आराम से लिखते चले गए | और इस तरह हमरी लिखने की शुरुआत आई…
पर एक बात ज़रूर कहेंगे, पण्डित यज्ञदत्त जी ने जिस तरह हमें लिखना सिखाया उसी का नतीजा था कि हमारी लिखाई इतनी ख़ूबसूरत बन गई थी कि देखने वाले कहते थे “क्या मोती से अक्षर टाँकती है गुरु जी की बेटी…” वो अलग बात है कि बाद में जल्दी जल्दी लिखने के चक्कर में घसीट जैसी लिखाई बन गई | रही सही क़सर इस कम्पूटर ने पूरी कर दी…
बहरहाल, माँ और पिताजी को छोड़ दिया जाए तो वास्तव में ये थे हमारे सबसे पहले शिक्षक – पण्डित यज्ञदत्त जी | जैसा सुमधुर और आकर्षक व्यक्तित्व था उनका वैसा ही मधुर स्वभाव भी था | पापा ने सच ही कहा था – बच्चों पर बड़ा स्नेह रखते थे और एक मधुर मुस्कान सदा उनके मुखमंडल पर विराजमान रहा करती थी | बचपन में हमें काफ़ी कुछ पढ़ाया उन्होंने – और सब कुछ पता नहीं कब में खेल खेल में ही पढ़ा दिया | अब वे संसार में नहीं हैं, पर अपने इस प्रथम शिक्षक का स्मरण सदैव बना रहता है… श्रद्धापूर्वक नमन है पण्डित जी आपको…