ढूँढती फिरी / कहीं तो दीख पड़े एक किरण प्रकाश की
नहीं दिखाई दी कहीं भी / तो कहा किसी ने / बाहर नहीं है कुछ भी
क्य प्राप्त करोगी बाहर की रिक्तता से ?
सब कुछ तो है तुम्हारे भीतर / एक अलग संसार |
मैंने बन्द किये अपने नेत्र, झाँकने को अपने भीतर
वहाँ था केवल अन्धकार, भय, चिन्ता |
तब मैंने खटखटाए द्वार महापुरुषों के / शरण ली गुरुओं की
जिन्होंने दिया मुझे एक मन्त्र / जाप करने को / दीक्षा के रूप में
ताकि दूर हों समस्त भय, चिन्ताएँ
छिन्न हो समस्त अन्धकार
और दीख पड़े एक किरण प्रकाश की |
मैं करती रही जाप निरन्तर अनवरत
बाँध कर चारों ओर / दसों दिशाओं में / दिग्बन्ध
करती रही पूर्ण समस्त प्रक्रियाओं को / स्थिति और न्यासों की
जो बताये गए थे उन्हीं ज्ञान ी महापुरुषों द्वारा
जाप और अनुष्ठानों की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए
पर कुछ नहीं घटा / मेरा भय, चिन्ताएँ, अन्धकार / कुछ भी नहीं |
तब मान कर सलाह किसी अन्य की
चाट डाले सारे वेद पुराण उपनिषद
श्रवण किये सभी अवधूतों / सन्यासियों / धर्मपुरुषों के उपदेश
जिनसे मिला ज्ञान आध्यात्मिकता का |
पर यह क्या ?
इस ज्ञान ने तो कर दिया मुझे और भी भ्रमित |
तब पूछा किसी अन्य ने
क्य जीवन में तुमने कभी प्रयास किया है / तजने का अपने अहंकार को ?
क्या तुमने कभी प्रयास किया है / तजने का अपने समस्त ज्ञान को ?
क्या तुमने कभी प्रयास किया है / निस्वार्थ प्रेम का ?
क्य तुम्हारे जीवन में कभी रहा है / आडम्बर और स्वार्थ रहित प्रेम ?
ये समस्त अहंकार / ज्ञान / जप / दिखाते हैं मार्ग बाहर का |
प्रकाश पाना है / तो पैठना होगा अपने ही भीतर के विशाल सरोवर में
उतरना होगा अधिक / और अधिक गहराई में |
बिन प्रेम कैसे पाओगे प्रकाश अपने भीतर का ?
कैसे दूर होंगे तुम्हारे भय और चिन्ताएँ ?
केवल मन्त्र से ? अथवा ज्ञान से ?
अथवा दीक्षा लेकर किसी तथाकथित गुरु से ?
नहीं, पहले उत्पन्न करो प्रेम अपने भीतर
वही है सबसे बड़ा मन्त्र – महामन्त्र |
वही है सबसे बड़ा ज्ञान – महाज्ञान |
और अपने बन्द नेत्रों से मैंने अनुभव किया
एक अदृश्य किन्तु स्नेहिल स्पर्श / अपने मस्तक पर |
अब मैं देख सकती थी प्रकाश / गहन प्रकाश / अपने भीतर
और उस प्रकाश में वह मार्ग / जो लेता है चरम सत्य की ओर
बिना किसी भय के / बिना किसी चिन्ता के…
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ढूँढती फिरी / कहीं तो दीख पड़े एक किरण प्रकाश की
नहीं दिखाई दी कहीं भी / तो कहा किसी ने / बाहर नहीं है कुछ भी
क्य प्राप्त करोगी बाहर की रिक्तता से ?
सब कुछ तो है तुम्हारे भीतर / एक अलग संसार |
मैंने बन्द किये अपने नेत्र, झाँकने को अपने भीतर
वहाँ था केवल अन्धकार, भय, चिन्ता |
तब मैंने खटखटाए द्वार महापुरुषों के / शरण ली गुरुओं की
जिन्होंने दिया मुझे एक मन्त्र / जाप करने को / दीक्षा के रूप में
ताकि दूर हों समस्त भय, चिन्ताएँ
छिन्न हो समस्त अन्धकार
और दीख पड़े एक किरण प्रकाश की |
मैं करती रही जाप निरन्तर अनवरत
बाँध कर चारों ओर / दसों दिशाओं में / दिग्बन्ध
करती रही पूर्ण समस्त प्रक्रियाओं को / स्थिति और न्यासों की
जो बताये गए थे उन्हीं ज्ञानी महापुरुषों द्वारा
जाप और अनुष्ठानों की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए
पर कुछ नहीं घटा / मेरा भय, चिन्ताएँ, अन्धकार / कुछ भी नहीं |
तब मान कर सलाह किसी अन्य की
चाट डाले सारे वेद पुराण उपनिषद
श्रवण किये सभी अवधूतों / सन्यासियों / धर्मपुरुषों के उपदेश
जिनसे मिला ज्ञान आध्यात्मिकता का |
पर यह क्या ?
इस ज्ञान ने तो कर दिया मुझे और भी भ्रमित |
तब पूछा किसी अन्य ने
क्य जीवन में तुमने कभी प्रयास किया है / तजने का अपने अहंकार को ?
क्या तुमने कभी प्रयास किया है / तजने का अपने समस्त ज्ञान को ?
क्या तुमने कभी प्रयास किया है / निस्वार्थ प्रेम का ?
क्य तुम्हारे जीवन में कभी रहा है / आडम्बर और स्वार्थ रहित प्रेम ?
ये समस्त अहंकार / ज्ञान / जप / दिखाते हैं मार्ग बाहर का |
प्रकाश पाना है / तो पैठना होगा अपने ही भीतर के विशाल सरोवर में
उतरना होगा अधिक / और अधिक गहराई में |
बिन प्रेम कैसे पाओगे प्रकाश अपने भीतर का ?
कैसे दूर होंगे तुम्हारे भय और चिन्ताएँ ?
केवल मन्त्र से ? अथवा ज्ञान से ?
अथवा दीक्षा लेकर किसी तथाकथित गुरु से ?
नहीं, पहले उत्पन्न करो प्रेम अपने भीतर
वही है सबसे बड़ा मन्त्र – महामन्त्र |
वही है सबसे बड़ा ज्ञान – महाज्ञान |
और अपने बन्द नेत्रों से मैंने अनुभव किया
एक अदृश्य किन्तु स्नेहिल स्पर्श / अपने मस्तक पर |
अब मैं देख सकती थी प्रकाश / गहन प्रकाश / अपने भीतर
और उस प्रकाश में वह मार्ग / जो लेता है चरम सत्य की ओर
बिना किसी भय के / बिना किसी चिन्ता के…