प्रकृति बदलती है नित नवीन रूप / नित नवीन परिधान
गर्मी, बरखा, सर्दी, पतझड़, मनभावन वसन्त
मौसमों की – ऋतुओं की सन्धियाँ
चक्र की भाँति घूमते मौसम, वर्ष, युग, काल
जिन्हें देख हो जाती हूँ मन्त्रमुग्ध
और देती हूँ धन्यवाद उस महाशक्ति को
जो न जाने कहाँ बैठी नचाती रहती समस्त जड़ चेतन को
और तब मैं सोचती हूँ
क्या कुछ ऐसा है जो हमें कर सके उदास ?
उदासी, सुख, दुःख क्या हैं / आत्मा को तो ज्ञान ही नहीं
उसे तो बोध है दिव्य आनन्द का, तृप्ति का
न उसे पता कुछ मोह का, न लोभ, न ईर्ष्या, न घृणा का
वो तो है परे समस्त भावों और अभावों से
छलकती है वहाँ मदिरा केवल आनन्दातिरेक की
होता है उन्मुक्त हास माधुर्य का
नहीं होता अन्धकार के लिए स्थान वहाँ
ज्ञान के असंख्य सूर्य प्रकाशित करते हैं आत्मा के उस भवन को
जो है सात चक्रों से भी परे
जो है उस मूलाधार का भी आधार
जो कहलाता है आत्मा के उत्थान की प्रथम सीढ़ी
और जहाँ होता है भाव केवल आनन्द का
जहाँ खिलते हैं अष्टदल कमल नष्ट करने को समस्त पाप
गर्भ से जोड़ने वाले नवल स्थान से भी अधिक बलिष्ठ
जहाँ गूँजता है अनहद नाद / हर पल / प्रति पल
जहाँ वास है विशुद्ध ज्ञान का, कलाओं का
जहाँ स्वधा-स्वाहा और फट हुम्
आज्ञा देते हैं सम्पूर्ण शक्तियों को जागने की
ताकि मार्ग प्रशस्त हो सहस्रदल कमल तक पहुँचने का
क्योंकि उसके पार ही है परब्रह्म की परा शक्ति
अपने अन्नमय कोष से ऊपर उठकर
प्राण, मन और विज्ञान के मार्गों से गुज़रते हुए
प्राप्त करना है असीम आनन्द
ताकि चित्त को अपने ही भीतर प्रवृत्त कर
पूर्ण कर सकूँ अनन्त के साथ मिलन की अपनी यात्रा …